सम्पादकीय

फर्जी डिग्री की सोहबत में शिक्षा

Rani Sahu
24 Dec 2021 7:02 PM GMT
फर्जी डिग्री की सोहबत में शिक्षा
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जेेसीसी बैठक के बाद कर्मचारियों के हित जिस उफान पर हैं

जेेसीसी बैठक के बाद कर्मचारियों के हित जिस उफान पर हैं, उनसे कहीं हट कर फर्जी डिग्रियों का गुब्बारा फूटा है। शिक्षा विभाग की जांच ने पंद्रह भाषा अध्यापकों का बोरिया-बिस्तर गोल किया है। ये एलटी टीचर्ज 2006 से पीटीए के तहत नियुक्ति पाकर प्रदेश की व्यवस्था में पसरे हुए थे और इनके विभागीय लाभांश में परत-दर-परत सरकारी खजाने की आहुतियां चढ़ती रही होंगी। आश्चर्य यह नहीं कि फर्जी डिग्री चलती रही, बल्कि यह है कि अप्रत्यक्ष सरकारी नियुक्तियों में अनैतिक धंधों को भी शरण मिलती रही है। हिमाचल में सरकारी नौकरी पाना वास्तव में एक ऐसे समुदाय में शामिल होना है, जो राजनीतिक गठजोड़ में सरकारी कार्यसंस्कृति में दल बना रहा है और इस तरह पूरी व्यवस्था का दलदल जाहिर है। इसी दलदल में पंद्रह भाषा अध्यापक दिखाई देते हैं, तो हम शिक्षा विभाग के ऋणी हैं कि कार्रवाई अंजाम तक पहुंची वरना सरकारी क्षेत्र की सीढि़यां एक-दूसरे का हाथ पकड़ते-पकड़ते इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि हाथ लगाते ही, कहर की बरसात होने लगती है। ऐसे में माफिया का चंगुल सिर्फ रेत-बजरी बेचकर या शराब की भट्ठी सजा कर नहीं पैदा होता, बल्कि सरकारी क्षेत्र की परतों में कब आबाद हो गया, पता ही नहीं चलता। भाषा अध्यापकों का रुखसत होना अपने पीछे कितनी कालिख छोड़ गया, यह छात्रों के ललाट पर खड़ी अनिश्चय की स्थिति बता रही होगी। आश्चर्य यह कि शिक्षा और अध्यापक का चरित्र, उसकी क्षमता और अध्यापन का स्तर इतना गिर चुका है कि हमारी व्यवस्था को यह भी मालूम नहीं हो रहा कि क्लासरूम में पढ़ा कौन रहा। कुछ समय पहले निजी विश्वविद्यालयों के कुलपति इसलिए हटा दिए कि वे योग्यता की शर्तों में कहीं नीचे थे।

ऐसे में शिक्षा की अहमियत अगर अध्यापन से अध्ययन तक है, तो शिक्षक के संदर्भ खंगाले जाने चाहिएं। आज से वर्षों पहले जब स्कूलों की जांच का तरीका थोड़ा इंस्पेक्टरी जैसा था, तो आकस्मिक तौर पर अध्यापक का चरित्र और चेहरा क्लासरूम में देखा जाता था, लेकिन अब राजनीति की कक्षा में टीचर्स का उत्तीर्ण होना कहीं ज्यादा जरूरी है। शिक्षक का स्थायित्व नौकरी में है, अध्यापन में नहीं, लिहाजा सबसे अधिक कर्मचारी संगठन शिक्षा की नहीं, बल्कि अध्यापकों की पैरवी करते हैं। ऐसे में क्या पंद्रह भाषा अध्यापकों द्वारा फैलाई गई कालिख से कर्मचारी संगठन बच पाएंगे या इस विषय पर खड़े हो रहे नैतिकता के प्रश्न पर यह प्रदेश किसी आईने के सामने खड़ा होगा। जेसीसी बैठक में शरीक होकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सदाशयता से कर्मचारी एहसास को पलकों पर सवार किया या इससे पहले अलग-अलग मुख्यमंत्री ने इस वर्ग की आशाओं को लाल कालीन पर चलाया, लेकिन क्या कभी कर्मचारी वर्ग हिमाचल के प्रति कृतज्ञ हुआ। हुए होंगे धन्यवाद प्रस्ताव, लेकिन प्रदेश के खजाने का सौदा हमेशा कुचला गया और अब तो डर लगता कि कब कौन सा कर्मचारी मसला बर्र का छत्ता बन जाए
फर्जी डिग्रियों के इतिहास में हिमाचल की बदनामी एक बात है, लेकिन अप्रत्यक्ष रोजगार के सरकारी प्रवेश में भी यही तहें बिछ रही हैं, तो खुदा ऐसी जिल्लत से बचाए। कहीं न कहीं सरकारी कार्य संस्कृति के बीचोंबीच सड़ांध भरा अनैतिक नाला बह रहा है और अगर संदेह है तो नादौन के एसएचओ के कारनामे पर पुलिस वर्दी के स्टार देख लें, जहां बाकायदा एसआईटी का गठन करके यह पूछा जा रहा है कि 'महोदय' कितनी गर्त तक डूबे थे। कितनी एसआईटी बना कर यह पता चलेगा कि प्रदेश में घूसखोरी एक स्वीकृत व्यवस्था बन गई है और जहां हर दिन नागरिक अपनी नैतिक ऊर्जा को दफन करते हुए अरदास करता है। किसी भी सरकारी कार्य या सरकारी कार्यालय की परिक्रमा में उलझी जनता से पूछ लें कि वहां उसकी नीयति में किसकी नीयत का खोट होता है। न नादौन की घटना अंतिम है और न ही भाषा अध्यापकों की नौकरी में छुपी फर्जी डिग्री अंतिम होगी, लेकिन ऐसे प्रकरणों के बाद हम सुधार की दृष्टि से क्या करते हैं। क्या सरकारी नियुक्तियों के लिए पारदर्शी व्यवस्था बनाने में अग्रसर होंगे या इतनी अप्रत्यक्ष कैटेगरी पैदा करते रहेंगे कि अनियमितताएं अपनी अपराधी खाल बचा लें और यह संभव है क्योंकि 14 सालों से फर्जी भाषा अध्यापक सरकार से न्यायोचित अधिकार पाने के लिए अधिकृत रहे। इसी तरह नादौन के आरोपित एसएचओ की पृष्ठभूमि को प्रश्रय मिलता रहा तो इसलिए कि ऐसी व्यवस्था अब रास आ रही है और इस तरह की रासलीला को नजरअंदाज करने की सहमति बना कर आम जनता केवल रहम की भीख मांगती है। हम नागरिकों के मसले इतने उलझा दिए गए हंै कि 'नैतिकता' के विषय अब किसी परिपाटी में नहीं आते।

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