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- नहीं कराना सम्मान!
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चार दशक की साहित्य साधना के बाद मुझे होश आया कि सम्मान तो करवाया ही नहीं। मैंने भागा-दौड़ी की तो लोग कहने लगे कि अब तक कहां थे? हमने तो अपने खेमे के सबको निपटा दिया, किसी और किसी को पकड़ो! सूखा सा उत्तर पाकर मैं दूसरों के पास गया, दूसरों ने भी टरका दिया। फिर हारकर मैं भ्रमर जी के पास पहुंचा। साहित्य के घाघ हैं। सारी ऊंच-नीच का पता है उन्हें। मुझे देखते ही बोले- ‘शर्मा धूप में बाल सफेद कर लिये। कागज काले करते रहे। लेखन के बूते पर सम्मान की आस लगाये बैठे रहे। पहले मिल लेते तो अब तक तो यह सम्मान की धारा भी पार कर लेते। खैर कोई बात नहीं, जागे वहीं सवेरा। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। चलो तुम्हारा अमृत सम्मान करवा देंगे। बस थोड़ा सा पेंच है, वह तुम्हें ही भुगतना है।’ भ्रमर जी की अंतिम बात मैं समझा नहीं, सो मैंने पूछा- ‘क्या भुगतना है? इतना विपुल लिखने के बाद भी मुझे क्या करना पड़ेगा?’ भ्रमर जी हंसने लगे, बोले- ‘शर्मा, सम्मान-पुरस्कार जोड़-तोड़ के जुगाड़ हैं। तुम साहित्य साधना में लीन रहे, यही तुम्हारा माइनस पाइंट है। लिखने से कुछ नहीं होता। लिखने से किताब छप जायेगी, लेकिन सम्मान के लिए लोगों से लगाकर खाना पड़ता है। लिखने का नशा उतर जाये तो मैं तुम्हें एक पते की बात बताऊं?’ ‘हां….हां बताइये। मैं आप जो कहेंगे, वह करने को तैयार हूं। साहित्य का सम्मान लिखने से ही तो मिलता है।
ग्यारसी लाल जी और कजोड़मल जी जब सम्मान ले सकते हैं तो मैंने कोई घास थोड़े ही खोदी है।’ मैंने कहा तो भ्रमर जी बोले- ‘तुमने घास ही खोदी है शर्मा, जिनका तुम उदाहरण दे रहे हो, उन्होंने रोकड़ा खर्च करके सम्मान लिया है। अब पहले वाली बात नहीं है कि वर्क देखा और सम्मान दे दिया। आजकल तो सम्मान-पुरस्कार खुद के जुगाड़ हैं। तुम्हें लेना है तो अपना बजट बताओ, अपनी संस्था के बैनर तले तुम्हारा भी गंगा स्नान हो जायेगा। ग्यारसीलाल और कजोड़मल ने सम्मान के लिए तन-मन और धन तीनों लगा दिये थे। उनकी भक्ति भावना (चमचागिरी) को तुम क्या जानो भैया। भक्ति भावना व पैसे के बूते पर आज वे साहित्य शिरोमणि प्राप्त कर सके हैं। मूल्य बदल गये हैं, युग बदल गया है। अभी देखा नहीं, रामलाल जी जिस अकादमी के अध्यक्ष हैं, उसी से अपना सम्मान करवा लिया। उन्हें पता है, विलंब किया और सम्मान के लिए पापड़ बेलो कार्यक्रम शुरू हो जावेगा। इसलिए मेरी संस्था को धन देवो और सार्वजनिक मंच पर मालाएं पहनकर चहकते फिरो।’ भ्रमर जी की बातों से मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं, लेकिन समस्या धन की थी। सम्मान के लिए धन कहां से लाऊं।
गृहस्थी की गाड़ी ही जब इस महंगाई में नहीं चल पा रही तो यह महंगा सम्मान कैसे प्राप्त करूंगा। मैंने भ्रमर जी से कहा- ‘मैं एक-दो दिन में आपसे मिलता हूं।’ यह कहकर मैं सीधा किचन में पत्नी की शरण में पहुंचा। पत्नी बोली- ‘क्यों क्या बात है, मुंह लटकाये क्यों खड़े हो?’ मैं बोला- ‘सम्मान तो बहुत महंगे हो गये। जरा सी लापरवाही से अब पैनल्टी अलग लगेगी। मेरा मतलब सम्मान के लिए धन चाहिए।’ पत्नी बोली- ‘क्या करोगे सम्मान का। इससे बढिय़ा तो बच्चों की फीस चुकाओ। पोते-पोती क्या सोचते होंगे कि बाबा उनके लिए कुछ नहीं करते। सम्मान से कुछ नहीं होता। लिखते-पढ़ते हो, यह कोई कम सम्मान की बात है।’ एक ही क्षण में पत्नी ने सम्मान की खुजली मिटा दी। मैं बोला- ‘तुम सही कहती हो। ऐसे सम्मान का क्या करेंगे, जो पैसों से मिलते हैं। मैं तो अपनी नयी किताब तैयार करता हूं।’ पत्नी ने कहा- ‘मस्त रहो, काम करो। सम्मान तो अब गधों के होने लगे हैं। क्या तुम यही चाहते हो?’ मैं चुपचाप रसोई से निकल आया और अपने कमरे में आकर चुपचाप लिखने में लीन हो गया।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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