सम्पादकीय

अपनों पर न चले ताकत का जोर

Rani Sahu
4 April 2022 6:44 PM GMT
अपनों पर न चले ताकत का जोर
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सोलह लंबे वर्षों तक भारत राष्ट्र ने एक परेशान करने वाली छवि लगातार देखी है

विभूति नारायण राय

सोलह लंबे वर्षों तक भारत राष्ट्र ने एक परेशान करने वाली छवि लगातार देखी है, जिसमें अपने जीवन के तीसरे दशक में सफर कर रही एक युवती को सुरक्षा बल के जवान जबर्दस्ती गले में नली डालकर उसके पेट में कुछ तरल खाद्य पदार्थ डाल रहे हैं। यह युवती इरोम शर्मिला थीं, जिन्होंने मणिपुर की राजधानी इंफाल में हवाई अड्डे के नजदीक नवंबर 2000 में असम राइफल्स की एक टुकड़ी द्वारा की गई फायरिंग में 10 नागरिकों की मृत्यु के विरोध में भूख हड़ताल कर रखी थी। शुरुआत में तो फायरिंग और उससे हुई मौतों का विरोध था, पर जल्द ही इरोम की मुख्य मांग पूरी तरह से उस कानून को हटाने की बन गई, जिसके तहत सेना को गिरफ्तारियों, तलाशियों या नागरिकों पर फायरिंग जैसे अलोकतांत्रिक अधिकार हासिल हो गए थे। अगले 16 वर्षों तक यह अनशन चलता रहा और पूरी दुनिया में राज्य की ज्यादातियों के खिलाफ अहिंसक नागरिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गया।
अफस्पा या सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम 1958 में नगालैंड में, जो उस समय असम प्रांत का ही भाग था, हथियारबंद पृथकतावादी आंदोलन के चलते अस्तित्व में आया था और कुछ ही वर्षों में मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा से लेकर जम्मू-कश्मीर तक यह लागू हो गया। इसके बीज तो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में ही पड़ गए थे, जब अंग्रेजों ने सेना को नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार दे दिया था। आजाद भारत में जब यह कानून बना, तब प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आश्वासन दिया था कि छह महीने के अंदर इसे हटा लिया जाएगा, पर 60 वर्षों के बाद भी यह अस्तित्व में बना हुआ है।
ऐसे कानूनों के बनने के कारण एक नए स्वतंत्र हुए भूभाग के राष्ट्र-राज्य बनने की जद्दोजहद में खोजे जा सकते हैं। 1947 में आजादी हासिल करने वाले देश के सामने सबसे बड़ी समस्या ही एक बहुभाषी, बहु-धार्मिक या बहु-सांस्कृतिक समाज को सही अर्थों में एक राष्ट्र-राज्य बनाने और फिर उसे एकजुट रखने की थी। ऐसे कठिन वक्त में जब कई क्षेत्रों में अलगाववादी शक्तियां पृथकतावादी आंदोलन चला रही थीं, लोकतंत्र समर्थक प्रधानमंत्री नेहरू को भी अफस्पा जैसे गैर-जनतांत्रिक कानून का सहारा लेना पड़ा था। दिक्कत तब आई, जब वादा करके भी छह महीने बाद इसे हटाया न जा सका। इसकी अवधि तो बढ़ती ही गई, नए-नए इलाके इसके प्रभाव क्षेत्र में आते गए।
इस कानून के दुरुपयोग या इसके विरुद्ध जनाक्रोशों की छिटपुट खबरें तो लगातार छपती रहीं, पर यह भी कटु सच्चाई है कि इस महादेश में इन सुदूर अंचलों में घट रही ज्यादतियों पर हमारी आत्मा पर वैसे घाव नहीं दिखे, जिनकी किसी सभ्य समाज में अपेक्षा की जा सकती थी। इसीलिए जब 9 अगस्त, 2016 को इरोम शर्मिला ने अपना अनशन अचानक खत्म किया, तो इसके पीछे उनके द्वारा बताए गए कारणों में एक सरकार की उपेक्षा थी। वह निराश थीं कि उनका अनशन व अफस्पा लंबे समय से साथ-साथ चल रहे थे और सरकारों की सोच पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। इससे कम निराशाजनक जनता का रवैया नहीं था। अनशन से उठने के बाद 2017 में इरोम ने एक राजनीतिक दल बनाकर विधानसभा का चुनाव लड़ा और खुद उन्हें सौ से भी कम मत मिले। संदेश साफ था, राज्य के दोनों अंगों- सरकार व जनता के लिए मानवाधिकार अभी भी बहुत उद्वेलित करने वाला मुद्दा नहीं बन सका है।
अफस्पा के कुछ इतने विचलित करने वाले प्रकरण आजाद भारत में घटे कि कई बार तो न्यायपालिका को लीक से हटकर आदेश पारित करने पड़े। एक मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सामने मणिपुर में कुछ वर्षों के दौरान 1,528 नागरिकों के 'फर्जी' मुठभेड़ों में मारे जाने का भी आया। इसमें उसने कठोर टिप्पणियां कीं और इन घटनाओं की जांच कराने का इरादा जाहिर किया। इस फैसले से मणिपुर में फौरी राहत तो मिल गई है, पर दूसरे इलाकों में अभी भी विचलित करने वाली घटनाएं घटती रहती हैं। हाल में नगालैंड के मोन जिले में एक ट्रक पर कोयला खदान से दिन भर की मेहनत-मजूरी करके लौट रहे एक दर्जन से अधिक मजदूर फौजी टुकड़ी की अनायास फायरिंग में मारे गए। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण एक बार फिर अफस्पा चर्चा में आ गया। इस बार तो कुछ विधानसभाओं में इसे हटाने के प्रस्ताव भी पास हुए हैं। मोन की घटना का एक सकारात्मक परिणाम यह जरूर निकला कि केंद्र सरकार को एक विशेषज्ञ कमेटी नियुक्त करनी पड़ी, जिसने समयबद्ध विचार-विमर्श के बाद कम से कम पूर्वोत्तर के काफी बड़े क्षेत्र से तो अफस्पा हटाने की सिफारिश कर दी और सरकार ने उसे हटाने की अधिसूचना भी जारी कर दी है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि शेष पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर से भी शीघ्र यह कानून हटा लिया जाएगा। दुर्भाग्य से कई बार आतंकवाद से लड़ाई में भी न्यस्त स्वार्थ पैदा हो जाते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि कोई बड़ा नीतिगत फैसला राजनीतिक नेतृत्व ही कर सकता है। उसे सारे हितधारकों से बात करके ऐसे फैसले करने होंगे, जो लोकतंत्र को मजबूत करे। सशस्त्र बलों की मानेंगे, तो किसी क्षेत्र से विशेष कानून नहीं हट सकेगा।
पूर्वोत्तर के एक बडे़ हिस्से से अफस्पा को हटाया जाना एक बहुत बड़ा घटनाक्रम है, जिसका सभी लोकतंत्र प्रेमियों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए। इस पर आम सहमति बननी चाहिए कि अपने नागरिकों से निपटने के लिए सैन्य बलों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। उसके उपकरण और सिखलाई दुश्मन से निपटने के लिए होते हैं और अपने नागरिकों को आप दुश्मन नहीं घोषित कर सकते। सशस्त्र बलों द्वारा आवश्यकता से बहुत अधिक बल का प्रयोग नहीं होना चाहिए। अपने नागरिकों के असंतोष का हल राजनीतिक इच्छाशक्ति और बातचीत के जरिये निकलना चाहिए। अपवाद स्वरूप यदि बल का प्रयोग करना ही पडे़, तो उसके लिए स्थानीय पुलिस सबसे बेहतर विकल्प है। इसके लिए उसके संख्या बल, उपकरणों और प्रशिक्षण में सुधार कर सेना की कमी पूरी की जा सकती है। पंजाब का जीता-जागता उदाहरण हमारे पास है, जहां जैसे ही पंजाब पुलिस ने लड़ना शुरू किया, पासा पलट गया।


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