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पिछले हफ्ते तक आपने लाभ सिंह का नाम सुना था क्या?
शशि शेखर। नई दिल्ली। पिछले हफ्ते तक आपने लाभ सिंह का नाम सुना था क्या? वह पंजाब में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को हराकर हीरो बन गए हैं। इसी तरह, भुवन चंद्र कापड़ी को भी सीमित संख्या में लोग जानते थे। उन्होंने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को चुनावी मैदान में धूल चटा दी। लाभ सिंह और भुवन चंद्र कापड़ी की जीत क्या साबित करती है?
इतिहास के झरोखे में झांकें, तो एक धुंधली-सी तस्वीर उभरती है। बहुत से हीरो अतीत के आकाश में धूमकेतु की तरह चमके और अस्त हो गए। 1970 के दशक में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह को रामकृष्ण द्विवेदी ने हराया था। इससे पहले भी ऐसे कमाल होते रहे हैं, पर क्या जीतने वाले महारथी साबित हुए? इन लोगों ने महज वक्ती तौर पर सनसनी पैदा की, लेकिन कुछ दिनों में किसी अगली ही सनसनी ने उन्हें लील लिया। अब यह लाभ सिंह और भुवन चंद्र कापड़ी पर निर्भर है कि वे अपने को कैसे गढ़ते हैं?
उनके लिए अच्छी खबर यह है कि पिछले कुछ सालों में नेपथ्य से आए तमाम लोग खुद को आदमकद साबित करने में सफल रहे हैं। इनमें पहला नाम है, योगी आदित्यनाथ। वह इससे पहले पांच बार गोरखपुर से सांसद चुने गए थे। उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ भी उनसे पहले चार बार उसी सीट से जीतते रहे, पर 2017 में जब योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए, तब तमाम सवाल उठे थे। कोई कहता कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव नहीं है, तो किसी और को उनके चोले से तकलीफ थी। पद संभालते ही उन्होंने पहला काम कानून-व्यवस्था पर लगाम लगाने का किया। पुलिस अपराधियों पर कहर बनकर टूट पड़ी। मानवाधिकारवादियों को यह तरीका भले ही रास न आ रहा हो, मगर उत्तर प्रदेश की जनता इस पर निहाल हुई जा रही थी। चुनावी राजनीति में यह चुनाव इस मामले में भी अनोखा था कि कोई मुख्यमंत्री पुलिस के काम पर चुनाव लड़ रहा था। अब तक पुलिस के कारनामे नेताओं को हरवाते आए हैं, पर योगी ने इसे अपना केंद्रीय मुद्दा बनाया और जीता। क्यों?
उत्तर प्रदेश में, जहां अपराधी 1970 के दशक से महिमामंडित होते आए हों, वहां उनकी अवैध इमारतें गिरते देखना लोगों के लिए सुखद था। मैं खुद चुनाव यात्रा के सिलसिले में जब अपने बचपन के शहर इलाहाबाद में घूम रहा था, तो देखा कि जानसेन गंज चौराहे पर रेखी ब्रदर्स की दुकान गायब है। रेखी ब्रदर्स का नदारद होना याददाश्त के किसी एक कोने पर गाज गिरने जैसा था। मैंने एक राहगीर से पूछा, तो मालूम पड़ा कि इस पर जेल में बंद एक माफिया बॉस ने कब्जा कर लिया था, लेकिन 'योगी बाबा' ने उसकी बिल्डिंग तुड़वाकर 'मैदान' कर दी है। मुझे इस उपमा पर हंसी आई, पर शहर में घूमते हुए और फिर हवाई अड्डा जाने के क्रम में चौड़ी सड़कों से गुजरते हुए बार-बार एहसास हुआ कि उस माफिया पर कड़ी कार्रवाई से न केवल तमाम तरह के रास्ते सुगम हो गए हैं, बल्कि कानून-व्यवस्था भी बेहतर हुई है। उत्तर प्रदेश में 'ईज ऑफ डूइंग' की राह में अपराध और अपराधी सबसे बड़ा रोड़ा थे। योगी ने इसे कड़ाई से हटाया।
यही नहीं, कोरोना के प्रसार के वक्त उत्तर प्रदेश में कोई प्रयोगशाला ऐसी नहीं थी, जो इस मारक वायरस को पहचान सकती हो। आज प्रदेश के सभी मंडलीय और जिला अस्पतालों में बीएसएल-2 प्रयोगशालाएं उपलब्ध हैं, जिनकी प्रतिदिन की जांच-क्षमता लगभग चार लाख है। योगी आदित्यनाथ खुद कोरोना के शिकार बने, लेकिन संक्रमण से मुक्त होते ही वह सुबह, शाम और रात अलग-अलग अस्पतालों में देखे जाने लगे।
चुनाव के दौरान देखने में आया कि ज्यादातर लोग मानते हैं, कोरोना से जो नुकसान हो सकता था, उतना नहीं हुआ। वे अकाल मौतों को भूलकर आगे बढ़ चुके थे। इस दौरान भुखमरी न फैले, इसके लिए योगी ने अन्न वितरण की मोदी सरकार की योजना के साथ अन्य कल्याणकारी योजनाओं को कारगर तरीके से लागू किया। योगी तत्काल फैसलों के लिए भी जाने जाते हैं। देवरिया के महिला एवं बालिका संरक्षण गृह में बलात्कार की घटना हुई, तो उन्होंने न केवल तुरंत कार्रवाई की, बल्कि महिलाओं की जागृति, प्रगति और सुरक्षा के लिए 'मिशन-शक्ति' जैसे कार्यक्रम चलाए। इन चुनावों के बाद की 'रिसर्च' बताती है कि इस बार ग्रामीण महिलाओं तक ने जाति-धर्म के विभेद में फंसे बिना भाजपा को वोट दिया। मोदी के नारे 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' को इससे बेहतर अमलीजामा नहीं पहनाया जा सकता है।
अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दूसरे कार्यकाल पर आते हैं। यह पारी कुछ चुनौतियां भी साथ लेकर आई है। इस बार उनका सामना पहले से मजबूत विपक्ष से होगा। इस जीत के बाद से प्रदेश के लोग उन्हें अति आशा से देख रहे हैं। उम्मीदों के इस जखीरे को जस का तस निभा पाना चुनौतीपूर्ण है। विपक्ष कहीं भी, कैसी भी कमी का इंतजार करेगा, ताकि लाभ उठाया जा सके। इसके अलावा, खुद उनकी पार्टी में अंतरविरोधों की भरमार है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वह उनसे कैसे निपटेंगे?
राजनीति की यही खूबी है कि वह समानांतर शख्सियतें गढ़ती चलती है। अगर भाजपा को उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ बतौर स्तंभ हासिल हुए हैं, तो दिल्ली ने नितांत विपरीत ध्रुव गढ़ दिया है। आप समझ गए होंगे, मैं अरविंद केजरीवाल की चर्चा कर रहा हूं। केजरीवाल ने भी कल्याणकारी नीतियों को बेहद सटीक तरीके से लागू किया। सत्ता संभालते ही उन्होंने स्कूलों और अस्पतालों के सुधार पर जोर दिया। बिजली, पानी के भागते बिलों पर लगाम लगाई। अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पहले के मुकाबले लगभग आधे खर्च पर पूरा किया जाने लगा। 'जनता का पैसा जनता के लिए' के नारे के साथ वह पिछले आठ साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज हैं, पर वह इतने से संतुष्ट नहीं हैं। पंजाब में पिछला चुनाव हारने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और इस बार अभूतपूर्व जीत हासिल की। उनकी नजरें अब गुजरात और हिमाचल पर टिकी हुई हैं। यदि वह वहां दहाई से ऊपर सीटें पाने में कामयाब हो जाते हैं, तो तय है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनकी दावेदारी और पुख्ता हो जाएगी।
हालांकि, उनका रास्ता अभी लंबा है। भारतीय राजनीति में नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, स्टालिन, जगनमोहन रेड्डी, सी चंद्रशेखर राव, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और उद्धव ठाकरे सरीखे दिग्गज बडे़-बडे़ प्रदेशों में बैठे हैं। कांग्रेस भी उनकी राह का रोड़ा है। इसके अलावा, लोगों की नजरें उन पर गड़ी होंगी कि वह पंजाब जैसे उलझे हुए सूबे को कैसे संभालते हैं? आम आदमी पार्टी के 92 विधायकों में 63 करोड़पति हैं और 52 पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। सत्ता के साथ पार्टी का विस्तार भी चुनौतियां साथ लाया है।
योगी और केजरीवाल का सियासी करियर चुनौतियों में ही पनपा है। इन चुनावों ने उनके कद पहले के मुकाबले कहीं अधिक बढ़ा दिए हैं। वे अगर राह में फिसले नहीं, तो तयशुदा तौर पर नई मंजिलें उनका इंतजार कर रही हैं।
Deepa Sahu
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