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By: divyahimachal
कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव पारित कर फिलिस्तीन के मुसलमानों की जमीन, स्व-शासन, गरिमा और सम्मान के साथ जीने के अधिकार को समर्थन दिया है। तत्काल संघर्ष-विराम का आह्वान किया है। इजरायल पर भारत ने बयान जारी कर हमास के आतंकी हमले की भत्र्सना की है। यह युद्ध आतंकवाद के खिलाफ ही है। इजरायल ने फिलिस्तीन की हुकूमत वाले इलाके पर न तो बयान दिया है और न ही हमले की एक भी कोशिश की है। अलबत्ता दोनों मुल्कों के बीच कई मुद्दे लंबित और विचाराधीन हैं। इस मुद्दे पर भारत के प्रधानमंत्री मोदी का बयान ही पर्याप्त और अधिकृत है। देश विभाजित मानसिकता का नहीं दिखना चाहिए। कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव के अलावा, राजधानी दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) और जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी ने भी फिलिस्तीन के पक्ष में जुलूस निकाले, फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की मांग की और इजरायल की भूमिका पर सवाल उठाए। विश्वविद्यालयों के परिसरों में पर्चे, पोस्टर भी निकाले गए। सवाल है कि क्या फिलिस्तीन इजरायल का ‘गुलाम देश’ है? जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष ने ‘एक्स’ (ट्विटर) पर लिखा है कि कब्जा करने वाले और उत्पीडक़ देश इजरायल को ‘रक्षा के अधिकार’ पर भाषण देने का कोई अधिकार नहीं है। दरअसल यह मुद्दा ही नहीं है। इजरायल और फिलिस्तीन के भू-भाग संबंधी विवाद बिल्कुल भिन्न हैं। फिलहाल इजरायल पर हमास के आतंकियों ने हमले किए हैं, हत्याएं की हैं और सैकड़ों लोगों को बंधक बना कर रखा है। इजरायल ने उसका पलटवार किया है।
यह उसका नैतिक और राष्ट्रीय अधिकार है। ऐसे हमले, पलटवार विध्वंसक ही होते हैं। उन पर संयुक्त राष्ट्र संघ भी अंकुश नहीं लगा पाया है। तो भारत से उठने वाली अलग-अलग आवाजों के मायने क्या हैं? अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने भी फिलिस्तीन के समर्थन में जुलूस निकाला और ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाए। क्या मौजूदा इजरायल-हमास युद्ध धार्मिक कारणों पर शुरू हुआ है? सांप्रदायिक विभाजन भारत में बहुत ही गहरा है। हरेक मुद्दे को मुस्लिम-गैर मुस्लिम के चश्मे से आंका जाता है। यह सियासत देशहित में कभी भी नहीं रही और न आज है। इजरायल का एक उदाहरण लिया जा सकता है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ एक बड़ा जन-आंदोलन सडक़ों पर जारी था। जनता सरकार के कथित न्यायिक सुधारों के पक्ष में नहीं थी। अचानक हमास के आतंकियों ने हमला बोल दिया। इजरायल का सशक्त, आजमाया हुआ, रक्षा-कवच जैसा पूरा सिस्टम ध्वस्त कर दिया गया। सभी की नाकामी बेनकाब हो गई। इजरायल के अस्तित्व का सवाल सामने है। चूंकि देश पर आक्रमण किया गया है, लिहाजा सत्ता, विपक्ष और आम जनता एक मु_ी की तरह साथ-साथ हैं। पूर्व प्रधानमंत्री बेनेट भी आरक्षित सेना में ड्यूटी निभा रहे हैं। इसे ही ‘राष्ट्रीय सामूहिकता’ कहते हैं।
कमोबेश बीते कुछ सालों में भारत में ऐसी एकजुटता और राष्ट्रीय एकता का अभाव सतह पर आता रहा है। बेशक हमारे जांबाज सैनिकों ने पाकिस्तान की सीमा में घुस कर सर्जिकल स्ट्राइक की हो अथवा बालाकोट में आतंकी अड्डों को ‘मलबा’ कर देने का अभियान चलाया हो, लेकिन एक सियासी तबके ने सरकार से सवाल किए और सबूत भी मांगे। चीन ने हमारी 40,000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा जमीन कब कब्जाई थी, यह तथ्य दुनिया के सामने है, लेकिन सवाल मौजूदा भारत सरकार पर उठाए जाते रहे हैं। एक वैचारिक और मीडिया वर्ग भी चीन के गुणगान करता रहा है। हम ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर देश-विरोधी क्यों होते रहे हैं? लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी ‘निरंकुश’ और देश-विरोधी होने की इजाजत नहीं देते। बहरहाल मामला इजरायल का ही नहीं, समूचे विश्व का है। हमारी आंतरिक और बाहरी सुरक्षा पर भी संकट मंडरा सकते हैं। मुद्दा गंभीर है, तो ईरान ने इस्लामी देशों की आपात बैठक बुलाई है। उधर यूरोपीय संघ के विदेश मंत्री भी आपात बैठक कर रहे हैं। बहरहाल, देश अलग-अलग आवाज में बोलता हुआ नहीं दिखना चाहिए।
Rani Sahu
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