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- समाज का गहराता संकट
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| kredit beey janasatt सोसायटी का अर्थ समाज होता है। इसी अवधारणा के तहत भारत में मुंबई महानगर में शुरू हुई बहुमंजिली इमारतों वाली आवास समितियों (हाउसिंग सोसायटियों) की संस्कृति अब देश के दूसरे महानगरों और शहरों में भी दिखने लगी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली में तो ऐसी हजारों सोसायटियां खड़ी हो गई हैं। वस्तुत: भारतीय समाज की आत्मा का सौंदर्य भाईचारे, समरसता और परस्पर सहयोग में ही निहित है। ये भारत के ही ऋषि थे जिन्होंने 'सर्वे भवंतु सुखिन:' और 'वसुधैव कुटुंबकम' का संदेश युगों पूर्व दिया था। लेकिन कथित संभ्रांत वर्ग और सुरक्षित समझी जाने वाली इन सोसायटियों के समाज की कोरोना काल में सारी पोल खुल गई। 'हैप्पी बर्थडे' और 'गेट टू गेदर' के तमाम कार्यक्रमों से गुलजार रहने वाली इन इमारतों में कोरोना के दौर में समाज की मूल भावना का नितांत अकाल दिखा।
देश को नई दिशा और दर्शन देने वाले पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने समाज के जिन मूल्यों की परिकल्पना की और लोक-प्रयोग किए, उनका आज के सोसायटी वाले समाज में सर्वथा अभाव दिखता है। उनका कहना था, ह्लवैसे तो प्रत्येक व्यक्ति का जीवन नाशवान है, फिर भी भगत सिंह को सब याद करते हैं। वीर हकीकत राय, गुरु तेग बहादुर को याद करते हैं। एक लंबी परंपरा है, जिसका स्मरण होता है। इन सब बलिदानी महापुरुषों ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। यह ह्यहमह्ण ही था, जिसने 'मैं' को इतना ऊंचा उठने की प्रेरणा दी। हंसते-हंसते बलिदान हो गए। कहा कि शरीर नश्वर है। समाज अमर है। समाज को जीवित रखने के लिए व्यक्ति का बलिदान दिया। समाज ने उन्हें अपनी स्मृतियों में संजोकर अमर बना दिया। समाज व्यक्तियों का समुच्चय है। समाज की रचना तब होती है जब व्यक्ति समाज के ताने-बाने में गुंथता है, एकाकार होता है। लेकिन इन सोसायटियों के समाज का संवासी निजी हितों तक सीमित हो गया है।
दिल्ली की एक सौ साठ फ्लैटों वाली एक सोसायटी में कोविड से आठ लोगों की मौत हो गई थी। किसी एक आदमी की मृत्यु पर शोक सभा की बात तो दूर, आज तक कोई सामूहिक शोक सभा भी नहीं हुई। न ही सामूहिक या व्यक्तिगत शोक संदेश तक भेजे गए। जबकि होली का उत्सव पूरे हुड़दंग के साथ सामूहिक रूप से मनाया जाता था। आए दिन कीर्तन और जागरण होते हैं। कोविड से पहले भी दो-तीन लोगों के निधन पर केवल परिवार के ही लोग दिखे। पड़ोसियों को तो पता ही नहीं चला कि कब एंबुलेंस आई और कब परिवार के ही लोग अंतिम संस्कार करके लौट आए। एक वृद्ध माताजी की मौत के दौरान भी ऐसा ही हुआ, परिवार को मिला कर सुरक्षा गार्डों समेत दस-बारह लोग ही दिखाई पड़े।
सोसायटियों में पार्किंग जैसे मसले पर आए दिन झगड़े होते हैं। ऊपर के फ्लैट में रहने वाले लोगों से नीचे वाले परेशान रहते हैं। उन्हें पानी गिरने और ठक-ठक की शिकायत रहती है। अपने-अपने भगवानों के मंदिर के लिए लोग झगड़ते हैं। एक कथित प्रतिष्ठित सोसायटी में जैन मंदिर बनेगा या सनातन परंपरा का मंदिर बनेगा, उसका झगड़ा लंबे समय से चला आ रहा है। यहां भगवान भी 'सामाजिक' नहीं, 'व्यक्तिगत' हो गए हैं। सोसायटी के रखरखाव के पैसे का प्रबंध समिति सदस्यों द्वारा गबन करने की शिकायतें आम हैं। पानी का जम कर दुरुपयोग होता है। गाड़ियों को धोने और पौधों को सींचने के दौरान पानी के दुरुपयोग पर किसी को टोक दो, तो समझो आपने सामने वाले को दुश्मन बना लिया।
सोसायटी नाम के इस समाज में किसी विषय पर सामूहिक संवाद या चर्चा नहीं होती। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक शिक्षक ने एक ऐसी सोसायटी में घर खरीदा जिसमें कई शिक्षक रहते हैं। लेकिन हैरानी की बात यह कि कई तो आपस में बात तक नहीं करते हैं। सोसायटी में केवल गेट पर नोटिस चिपकाए जाते हैं। इनमे हिंगलिश बोलने वाले गांव से आने वाले परिवारों और अपनी भाषा हरियाणवी, गढ़वाली, कुमाऊंनी, भोजपुरी और मैथिली आदि में बात करने वालों को कई बार हेय दृष्टि से देखा जाता है, उनका मजाक उड़ाया जाता है। कोविड के दौरान एक सोसायटी ने तो मौखिक आदेश दे दिया कि भिक्षा के लिए घर आने वाले जैन संतों को सोसायटी के बाहर या गार्ड रूम में ही भिक्षा दी जाएगी। ठीक इसके विपरीत सोसायटी में रहने वाले दिन-भर बाहर आते-जाते थे।
समाज में गरीबी-अमीरी, सुख-सुविधाओं और आवश्यकताओं में अंतर बढ़ेगा, तो मतभेद और मनभेद भी बढ़ेगा। नीली या खाकी वर्दी में सोसायटी के सुरक्षा गार्ड मजदूर ही नजर आते हैं। इन्हें सोसायटी के समाज का सदस्य नहीं समझा जाता। यह अलग बात है कि इन्हीं गार्डों के दम पर सोसायटी में रहने वाले लोग बीस रुपए का ताला लगा कर कई-कई दिन तक भ्रमण करने चले जाते हैं। इसी तरह कोविड में घरों में काम करने वाली महिलाएं अपनी दिहाड़ी के लिए सोसायटी के बाहर कई-कई दिन तक खड़ी रहीं, उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया गया। घरों में बर्तन साफ करने और पोंछा लगाने वाली महिलाओं के प्रति इस समाज का कोई दायित्व नहीं है। एक सोसायटी में रहने वाले एक पुलिस अधिकारी ने एक सफाईकर्मी की पिटाई कर दी। वह सफाई कर्मी घर-घर जाकर रोया, लेकिन किसी ने भी इतना साहस नहीं दिखाया कि पुलिस अधिकारी के सामने विरोध दर्ज करवाया जाए। शिकायत करने का साहस करने का तो सवाल ही नहीं।
सोसायटी वालों में एक खास प्रकार का अहंकार देखने को मिलता है। छोटी सोसायटी वालों में छोटा, बड़ी और महंगी सोसायटी वाले का बड़ा और पॉश सोसायटी वाले का अहंकार भी 'पॉश' होता है। पेंट हाउस वाले की तो बस पूछिए मत, उसका अहंकार आसमान से बातें करता है। ऐसे समाज में एक खास प्रकार का वर्ग खड़ा हो रहा है। उस वर्ग की अलग-अलग हीन भावनाएं हैं। अपने से कम आय वाले के साथ तालमेल न बिठाना और स्वयं को बेहतर मानना इनमें सबसे बड़ी और सामान्य है।