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राजनीति में नैतिक मूल्यों का पतन कोई नई बात नहीं
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
महाराष्ट्र विधानभवन परिसर में बुधवार को जनप्रतिनिधियों ने जो नजारा पेश किया वह शर्मनाक तथा बेहद निंदनीय है। जन प्रतिनिधियों के आचरण को किसी जमाने में आदर्श समझा जाता था, मगर सार्वजनिक जीवन तथा राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन को देखते हुए अब ऐसी बात नहीं रही। राजनीति का मकसद सत्ता हासिल करना होता है लेकिन इसके लिए जनसेवा की साधना करती पड़ती है, मूल्यों, विचारों तथा सिद्धांतों पर अडिग रहना पड़ता है। नेहरू युग के पहले दो दशक तक राजनेताओं का बड़ा सम्मान था।
नेताजी एक सम्मानजनक शब्द हुआ करता था क्योंकि उस दौर के राजनेता तथा जनप्रतिनिधि एक निश्चित विचारधारा तथा मूल्यों के प्रति समर्पित रहते थे और सत्ता का लालच उन्हें भ्रष्ट नहीं बना सकता था। सत्तर के दशक में गैर-कांग्रेसवाद के दौर ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों पर भी प्रहार करना शुरू कर दिया। राजनेता आसानी से भ्रष्टाचार के दलदल में फंसते चले गए। विधानसभा तथा संसद के बाहर और भीतर जनप्रतिनिधियों के आचरण अशोभनीय होने लगे। इस सिलसिले को रोकने का प्रयास किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं किया।
राजनीतिक मतभेद व्यक्तिगत दुश्मनी में तब्दील होने लगे। एक-दूसरे की पार्टी को नीचा दिखाने के लिए सदन के भीतर तथा बाहर असंसदीय भाषा तक का प्रयोग जनप्रतिनिधि करने लगे। महाराष्ट्र विधान भवन परिसर में बुधवार का नजारा राजनीति के गिरते स्तर को प्रतिबिंबित करता है। यह सभी जानते हैं कि सत्ता आती-जाती रहती है लेकिन राजनीति के मूल लक्ष्य जनता तथा राष्ट्र की सेवा के लक्ष्य से कभी नहीं हटने चाहिए। मगर आज सिर्फ सत्ता के लिए राजनीति होती है और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है।
शिवसेना दो फाड़ हो चुकी है। एक गुट का नेतृत्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे कर रहे हैं। उन्होंने शिवसेना तोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया और महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास आघाड़ी की सरकार का तख्ता पलट दिया। अब वह सत्ता में हैं और गरीब आदमी तथा राज्य के सर्वांगीण विकास की दिशा में काम करने का वादा कर रहे हैं लेकिन बुधवार की घटना से लगता है कि सत्ता हासिल करने की खुशी तथा सत्ता खोने का दुख विद्रूप होने लगा है।
शिंदे सरकार पर विभिन्न मोर्चों पर असफलता के आरोप लगाकर नारेबाजी करना तो ठीक है, पिछली सरकार पर भी इसी तरह के आरोप मढ़कर नारों से जवाबी हमला भी ठीक है लेकिन आपस में गुत्थमगुत्था हो जाना बेहद अफसोसजनक है। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को व्यक्तिगत दुश्मनी में बदलते हुए देश ने देखा है। उत्तर प्रदेश में गेस्ट हाउस में बसपा प्रमुख मायावती पर जानलेवा हमला और तमिलनाडु विधानसभा में अन्नाद्रमुक की सर्वेसर्वा जे जयललिता का चीरहरण भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के काले अध्यायों में शुमार हो गए हैं लेकिन इन दोनों ही राज्यों में राजनेताओं ने पिछली कटुता भुला दी है।
अब अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक के नेताओं में सामाजिक तथा व्यक्तिगत संबंध मधुर होने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती ने भी गिले-शिकवे भूलकर समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र की राजनीति की हमेशा यह विशेषता रही है कि राजनीतिक विरोध राजनेताओं के व्यक्तिगत संबंधों को बिगाड़ नहीं सका। महाराष्ट्र की राजनीति में हमेशा सौहार्द्र और सद्भावना का पुट रहा। दुर्भाग्य से लगता है अब तस्वीर बदलने जा रही है। विधान भवन में जो कुछ हुआ, उसमें संलिप्त नेताओं को अपने आचरण पर मंथन कर यह सोचना चाहिए कि क्या वह लोकतंत्र के प्रहरी कहलाने की कसौटी पर खरे उतरते हैं?
Rani Sahu
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