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छठ का महापर्व अतुलनीय है। एक मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति आदिकाल में बिहार के देव नामक स्थान पर हुई थी
भरत शर्मा व्यास। छठ का महापर्व अतुलनीय है। एक मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति आदिकाल में बिहार के देव नामक स्थान पर हुई थी, जो औरंगाबाद जिले में स्थित है। देव में एक बहुत बड़़ा पोखर है और यहां सूर्य भगवान का मंदिर भी है। यहां छठ का विशेष महत्व है। लोग चालीस-पचास कोस दूर से भी छठ करने पैदल ही या तरह-तरह के वाहनों के सहारे आते हैं। माना जाता है कि यह पर्व आसपास के क्षेत्र में पहले और उसके बाद प्रांत में और अब तो दुनिया भर में फैल चुका है।
आज हिन्दुस्तान का कोई ऐसा कोना नहीं है, जहां छठ न मनाया जाता हो। वर्षों पहले मुंबई में सागर तट जुहू पर मने छठ पर्व की मुझे याद है। तब जहां तक नजर जाती थी, केवल लोग ही लोग नजर आते थे। छठ करने वालों में ्त्रिरयां भी थीं और पुरुष भी। उतने लोगों को एक जगह मैंने कहीं छठ करते देखा नहीं था। वहां उस साल बड़ा सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ था। स्थानीय कलाकार भी थे और बाहर से भी कलाकार आए थे। सब बारी-बारी छठ गीत गाते रहते थे और बीच-बीच में फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियों का मंच पर सम्मान होता था। ऐसे आयोजन अब देश में जगह-जगह होने लगे हैं। छठ घाट या छठ पूजा स्थलों पर भीड़ बढ़ती चली जा रही है।
मैं तो छुटपन से ही छठ देखता और मनाता आ रहा हूं। मेरे घर हर साल यह होता है। मां बहुत श्रद्धा से छठ किया करती थीं। अब जब वह नहीं हैं, तब मेरी धर्मपत्नी इसे करती हैं। बहुत अच्छी बात है कि जिनके यहां छठ नहीं होता है, वे भी इसके आयोजन में दूसरों के साथ पूरे उत्साह से शामिल होते हैं। मैं अपने आसपास के छठ घाटों और आयोजन से जुड़ा रहता हूं। घाटों की साफ-सफाई, टेंट की व्यवस्था, बिजली की व्यवस्था से जुड़ा रहता हूं। खुद से जितना भी योगदान हो पाता है, उतना पूरी श्रद्धा से करने की कोशिश करता हूं।
इस महापर्व की एक बड़ी खूबी है कि यह अपने आयोजन में बहुत लचीला है। लोग भक्ति और शक्ति के अनुसार भोग, प्रसाद सामग्री का इंतजाम करते हैं। सूप सबसे जरूरी है, दउरा में फल के साथ सब्जियां भी होती हैं, ठेकुआ रहता है। सूप और दउरे में सब सामग्री रखकर उसे पीले कपड़े से ढक दिया जाता है और तब घाट की ओर चलते हैं व्रती। दउरा भारी रहता है। उपवास कर रहे व्रती को इसे नहीं उठाना पड़ता। घर का कोई अन्य युवा सदस्य इसको सिर पर उठाकर पूरी श्रद्धा से ओतप्रोत संभलकर चलता है। जगह-जगह सब छठ के गीत गाते या गुनगुनाते मिलते हैं।
सब जानते हैं कि संगीत और छठ का गहरा नाता रहा है। मैं तो छठ गीत बचपन से ही गाने लगा था। संगीत कार्यक्रमों में गाते हुए अब पचास साल हो गए। 1971 से ही गा रहा हूं। तब पंद्रह वर्ष की उम्र रही होगी। जहां तक रिकॉर्डिंग की बात है, तो 1990-91 में मैंने प्रसिद्ध गायिका अनुराधा पौडवाल के साथ टी सीरीज के लिए छठ गीत रिकॉर्ड कराए थे। कैसेट का नाम था, आहो दीनानाथ। वह बहुत प्रसिद्ध हुआ था, आज भी खूब सुना जाता है। वह गीत था- आहो दीनानाथ/ जल बिच खाड़ बानी/ कांपेला बदनवा/ दर्शन दीहीं ए दीनानाथ।
अपने देश-समाज में छठ गीतों की बहुत लोकप्रियता रही है, जिसकी वजह से कभी-कभी ही गांव में रहने का मौका मिलता है। ज्यादातर तो संगीत कार्यक्रम करने के लिए अलग-अलग स्थानों पर जाता रहा हूं। हां, एक और प्रसिद्ध छठ गीत है, जिसकी मांग बहुत होती है- कांच ही बांस के बहंगिया/ बहंगी लचकत जाए। इस गीत को तो गाना ही पड़ता है। इसके बिना छठ व्रत अधूरा ही मानिए।
पूर्वांचल के लोग जहां भी जाते हैं, अपनी संस्कृति नहीं भूलते। वे हर जगह अपने साथ छठ व्रत भी ले जाते हैं, होली, दशहरा और कजरी की संस्कृति भी ले जाते हैं। मैंने तो मॉरीशस में भी देखा है। वहां एक बार ग्यारह दिन रहा था। वहां लोग गिरमिटिया बनकर गए थे। गिरमिटिया मतलब अनुबंध के बाद गए थे। भोले मेहनतकश लोगों को यह कहकर ले जाया गया था कि वहां जो जाएगा, उसे सोना मिलेगा, तो लोग बड़ी संख्या में चले गए। वहां सोना नहीं मिला, वहां सिर्फ पत्थर थे, लेकिन अपनी मेहनत के बल पर पूर्वांचल के लोगों ने पत्थर को काटते-काटते एक से एक उपजाऊ खेत तैयार कर दिए। वे वहीं बस गए, पूरा एक देश बसा दिया, वहां अपनी सरकार बना ली। अब वहां भोजपुरी सरकार है। वहां 70 प्रतिशत भोजपुरी लोग ही हैं। वहां वैष्णव देवी, विंध्याचल देवी व अन्य कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं। विशेषता है, यहां के लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति को दिल से लगाए रखते हैं।
पहले लोग कुछ संकोच करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने खुलकर अपनी पहचान और अपने गौरव को स्वीकार किया। छठ पर्व हम मनाते हैं, छठी मैया कहा जाता है, लेकिन अर्घ्य सूर्य को दिया जाता है। सारी दुनिया उगते सूर्य को प्रणाम करती है, लेकिन पूर्वांचल के लोग पहले डूबते सूर्य को प्रणाम करते हैं और उसके बाद उगते सूर्य को। सूर्य के प्रति इनमें अपार श्रद्धा है। इसीलिए छठ साल दर साल समृद्ध होता जा रहा है। छठ महापर्व ऐसा है कि जो अच्छा करता है, तो उसे फल मिलता है, और यदि गलती हो गई, तो उसका दुष्फल भी मिलता है। यह बहुत असरकारी पर्व माना जाता है। हम बाकी देवताओं को देख या महसूस नहीं कर पाते हैं, पर सूर्य साक्षात देव हैं। इसलिए सूर्य पर कुछ ज्यादा ही श्रद्धा स्वाभाविक है। जीवन में इनका महत्व है, तो इन पर गहरा विश्वास भी है। मान्यता है कि जो मांगा जाता है, वह इस व्रत को करने से मिलता है, शायद इसलिए भी इसका विस्तार जारी है।
छठ से सबक लेते हुए हमें अपनी संस्कृति के प्रति जागरूक होना चाहिए। उसके अच्छे पक्षों को उभारकर अपने जीवन में अपनाना चाहिए। अपनी संस्कृति और उसकी मर्यादाओं, श्रेष्ठताओं को कभी नहीं भूलना चाहिए। अच्छे-अच्छे गीत सुनने चाहिए। मन में ऐसे अच्छे भाव रखने चाहिए कि उगते अनुपम सूर्य की तरह ही हमारा भी प्रतिपल विकास हो।
Rani Sahu
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