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सोर्स- जागरण
डा. विशेष गुप्ता। कोरोना के प्रभाव को लेकर देश में विगत दो वर्षों में अनेक सर्वेक्षण हुए, जिनके निष्कर्ष बताते हैं कि इसने देश के आम जनजीवन के साथ शिक्षा, शिक्षण और छात्रों को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। छात्र चूंकि संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के आधार स्तंभ हैं, इसलिए उन पर पड़ने वाला प्रभाव देश और समाज को भी प्रभावित करता है।
इसी संदर्भ से जुड़ा एक प्रमुख सर्वेक्षण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 3.79 लाख छात्रों पर किया गया है। यह सर्वेक्षण एनसीईआरटी की मनोदर्पण इकाई द्वारा जनवरी-मार्च 2022 में कक्षा छह-आठ तथा नौ-12 के छात्रों के बीच दो श्रेणियों में किया गया था। इसमें सामने आया कि देश के 33 प्रतिशत यानी एक तिहाई छात्र परीक्षा और उसके परिणाम की चिंता को लेकर हमेशा दबाव में रहते हैं।
51 प्रतिशत छात्र आज भी आनलाइन पढ़ाई में कठिनाई महसूस करते हैं। 81 प्रतिशत छात्र पढ़ाई, परीक्षा और परिणाम को लेकर अधिक चितिंत रहते हैं। हालांकि 73 प्रतिशत छात्र स्कूली जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। बदलाव के साथ समायोजन को लेकर 43 प्रतिशत छात्रों ने अपनी सकारात्मक सहमति जताई। वहीं 45 प्रतिशत छात्र शारीरिक छवि को लेकर तनाव से ग्रस्त पाए गए। यहां छात्रों ने यह भी स्पष्ट किया कि वे अपने इस तनाव प्रबंधन के लिए योग एवं ध्यान के साथ-साथ अपने सोच में बदलाव करने और जर्नल्स लिखने जैसे माध्यमों का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा बच्चों में इस मैकाले शिक्षा व्यवस्था के जरिये पनपने वाली कुंठा और ईर्ष्या के चलते शिक्षा के मंदिरों में हिंसा की घटनाएं भी किसी से छिपी नहीं हैं।
वास्तव में बच्चों पर इस मानसिक दबाव के लिए इस शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ परिवार और समाज का प्रतिस्पर्धी माहौल भी कम दोषी नहीं है। भारतीय सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत बिखराव, संयुक्त परिवार प्रणाली का विखंडन, नगरों में मां-बाप दोनों का कामकाजी होने जैसे कारणों से बच्चे परिवारों में लगातार उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। पूर्व में संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी एवं परिवार के अन्य बड़े सदस्य बच्चों में इस प्रकार के बाहरी दबाव को सहन करने में उनके लिए 'शाक एब्जार्वर' की भूमिका निभाते थे। साथ ही बच्चों के समक्ष पढ़ाई जैसे दबाव से जुड़ी विषम परिस्थितियों को संभाल लेते थे, परंतु वर्तमान में एकल परिवार बच्चों में पनप रहे मानसिक दबाव के इस मनोविज्ञान को संभालने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। वे बच्चों को संवेदनापूर्ण संरक्षण नहीं दे पा रहे हैं। कोरोना के बाद तो स्थिति और बिगड़ी है।
आज स्थिति यह है कि बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को जाने-समझे बिना मां-बाप का ध्यान परीक्षा अथवा प्रतियोगिता में बच्चों की प्रोगेसिव रिपोर्ट पर रहता है। इस संदर्भ में सामान्य अवलोकन यह है कि बच्चे यदि परीक्षा में बेहतर नहीं कर पाते तो मां-बाप बच्चों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगते हैं। उपेक्षा का यही भाव धीरे-धीरे बच्चों को गहरे अवसाद में ले जाता है।
मनोचिकित्सकों का भी मानना है कि स्वयं को आत्महत्या की ओर ले जाने वाले बच्चे गहरे अवसाद के शिकार होते हैं। यह अवसाद किसी असफलता, अप्रत्याशित त्रासदी अथवा टापर बनने के सिंड्रोम से जुड़ा है। निरंतर प्रताड़ना बच्चों को गहरे अवसाद और निराशा से जुड़ी हीनभावना की ओर ले जा रही है। सही मायने में परिवार, स्कूल एवं समाज में बच्चों से निरंतर संवाद का अभाव उन्हें खुद को दबाव से अवमुक्त नहीं कर पा रहा है।
आज 21वीं शताब्दी के वैश्विक दौर में करियर को लेकर घमासान मचा है, वहीं हम अभी अपने छात्रों को इस शिक्षा पद्धति से उपजने वाले तनाव से बाहर भी नहीं निकाल पा रहे हैं। यही वजह है कि जब परीक्षाएं शुरू होती हैं तो छात्रों पर बढ़ने वाले तनाव की खबरें सुर्खियों में आने लगती हैं। अब इस शिक्षा पद्धति के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसा पाठ्यक्रम बने जो छात्रों के स्वभाव के अनुकूल हो तथा जो उनकी अनुकूलता के आधार पर उनमें कौशल विकसित करते हुए उनके करियर का निर्माण करे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा है कि बच्चे भविष्य के वट वृक्ष हैं और अगर अब इनके व्यक्तित्व का तनावरहित निर्माण नहीं किया गया तो भविष्य में हमें कहां से देश और समाज का संचालन करने वाले अच्छे लोग मिलेंगे। आशा है कि नई शिक्षा नीति के विधिवत रूप से लागू होने के बाद कक्षा में पाठ्यक्रम पढ़ाने के साथ-साथ बालक की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने के सघन प्रयास किए जाएंगे।
दरअसल, भारत में शिक्षा ज्ञान की प्रतिष्ठा और ज्ञान की व्यवस्था से सीधे संबद्ध रही है। सच यह भी है कि भारत में शिक्षा व्यवसाय, अर्थोपार्जन और पद-प्रतिष्ठा से अलग जाकर जीवन के साथ सीधे जुड़ी रही है। यही कारण है कि यहां शिक्षा विद्यालय की सीमा से बाहर आकर बालक के संपूर्ण जीवन के साथ एक सामंजस्य बनाती रही है, लेकिन पिछले दिनों यह सामंजस्य डगमगाया है।
इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा दीनदयाल उपाध्याय के पंचकोशीय आयामों-शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं आत्मा से जुड़े। शिक्षा का यही स्वरूप बालक के विराट व्यक्तित्व का निर्माण करने के साथ ही वर्तमान आधुनिक वैश्विक समस्याओं का निदान भी करेगा। हमें अविलंब बच्चों के बीच रहकर बच्चों को पढ़ना और उन्हें जानना-समझना शुरू कर देना चाहिए। तभी हम उन्हें सही से गढ़ पाएंगे। यही बच्चों के साथ हमारे संबंधों की कसौटी है। यहीं से उनके रचनात्मक जीवन और भयमुक्त व्यक्तित्व के निर्माण की आधारशिला तैयार होगी।
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