सम्पादकीय

जिन देशों ने महामारी के दौरान भारी खर्च किया, उनकी रिकवरी उतनी तेज नहीं रही, हमारी बेहतर आर्थिक रिकवरी के पीछे एक कारण यह भी

Rani Sahu
26 Oct 2021 6:08 PM GMT
जिन देशों ने महामारी के दौरान भारी खर्च किया, उनकी रिकवरी उतनी तेज नहीं रही, हमारी बेहतर आर्थिक रिकवरी के पीछे एक कारण यह भी
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महामारी की शुरुआत से ही कई उभरते देशों ने अमेरिका व अन्य बड़े विकसित देशों को भारी-भरकम आर्थिक प्रोत्साहन (राहत) बांटते देख सोचा कि काश वे ऐसा कर पाते

रुचिर शर्मा महामारी की शुरुआत से ही कई उभरते देशों ने अमेरिका व अन्य बड़े विकसित देशों को भारी-भरकम आर्थिक प्रोत्साहन (राहत) बांटते देख सोचा कि काश वे ऐसा कर पाते। लेकिन अब लगता है कि वे खुशकिस्मत थे जो ऐसा नहीं कर पाए या ऐसा न करने का फैसला लिया। भारत दोनों ही स्थिति में रहा। फंड की कमी ने उसे रोका भी और उसने बड़ा प्रोत्साहन न देने का फैसला भी लिया।

जिन उभरते बाजारों ने आक्रामकता से प्रोत्साहन दिया, उन्हें तेज रिकवरी में उसका उतना लाभ नहीं हुआ। भारत सबसे ज्यादा खर्च करने वालों में नहीं था, जो उच्च मुद्रास्फीति, उच्च ब्याज दरों और मुद्रा मूल्यह्रास का शिकार होते हैं। उसने कम से कम आंशिक रूप से प्रोत्साहन के जोश को ठंडा रखा।
शीर्ष उभरते और विकसित बाजारों के 2020 के प्रोत्साहन कार्यक्रमों के स्तर और उनसे हुई रिकवरी की मजबूती के बीच संबंध देखने के लिए जब उनके आंकड़ों का विश्लेषण किया तो मुझे ऐसा कोई संबंध नहीं दिखा। यहां तक कि गहरी गिरावट को भी ध्यान में रखा, जिनसे आमतौर पर बाद में तेज वापसी होती है। लेकिन फिर भी आक्रामक मौद्रिक और वित्तीय प्रोत्साहनों का रिकवरी पर कोई विशेष असर नहीं दिखाई पड़ा।
यह असंबंधन उभरती दुनिया में काफी ज्यादा था। उभरते बाजारों को भारी और कम खर्च करने वालों में बांटने और नए सरकारी व्यय तथा केंद्रीय बैंक द्वारा संपत्ति की खरीद, दोनों को शामिल करने पर भी पाया गया कि भारी खर्च करने वाले बाजारों में दरअसल कमजोर रिकवरी रही। वर्ष की दूसरी तिमाही में भारी खर्च वाले 11 बाजारों में मध्यम रिकवरी रही जो जीडीपी की 12% थी। इसकी तुलना में कम खर्च करने वाले 11 बाजारों में जीडीपी की 19% रिकवरी रही।
भारत बड़े वित्तीय घाटे के साथ संकट में था, जिसने उसके प्रोत्साहनों को सीमित रखा। उसका पैकेज जीडीपी का 10% था, जो उसके साथ वालों की तुलना में मध्यम आकार का ही था। लेकिन इस मितव्ययता के बदले में उसकी रिकवरी उभरते बाजारों में सबसे मजबूत में से एक रही। भारी खर्च करने वालों में विक्टर ओरबान के राज में हंगरी, जैर बोलसोनारो के तहत ब्राजील और रोड्रिगो डुटेर्टे के तहत फिलीपीन्स रहा। ये सभी जनवादी सरकारें हैं। सभी से अपनी जीडीपी का कम से कम 16 फीसदी प्रोत्साहन में खर्च कर दिया।
आखिर प्रोत्साहन ऐसा अस्पष्ट लाभ क्यों दिखा रहा है और कुछ उभरते बाजारों में इसका उल्टा असर क्यों हो रहा है? किसी भी एक उभरते हुए देश में प्रोत्साहन के प्रभाव पर अब महामारी के अद्वितीय कारकों का बहुत ज्यादा असर हो सकता है, जिसमें अमेरिका और अन्य विकसित देशों में बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन का वैश्विक प्रभाव और वायरस के खिलाफ लड़ाई शामिल है। गोल्डमैन सैक्स शोध में पाया गया कि लॉकडाउनों व वैक्सीन, दोनों और वृद्धि के बीच बड़ा संबंध है। जितना सख्त लॉकडाउन रहा और जितने धीमें टीकाकरण हुई, वृद्धि को उतना ज्यादा नुकसान हुआ।
इसके अलावा जरूरत से ज्यादा खर्च का उल्टा असर अक्सर विकासशील देशों पर होता है। उनके पास वित्तीय संसाधनों और अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगाड़े बिना व्यय बढ़ाने की संस्थागत विश्वसनीयता की कमी होती है। अंतत: वैश्विक बाजार उन्हें बुरी तरह प्रभावित करते हैं।
पिछले एक साल में भारी व्यय वाले उभरते बाजारों में महंगाई 5 फीसदी से ज्यादा बढ़ गई है, जो कम व्यय वालों की तुलना में करीब एक अंक तेज है। बॉन्ड से कमाई 142 आधार अंक से ज्यादा है, जो कम व्यय वाले बाजारो में 43 अंक से ज्यादा है। आईएमएफ के पूर्वानुमानों के मुताबिक 2021 के अंत तक भारी व्यय वाले बाजारों में सरकार का वित्तीय घाटा थोड़ा ज्यादा होगा, जीडीपी का करीब 7 फीसदी तक। जबकि कम व्यय वाले बाजारों के लिए यह 6 फीसदी रहेगा।
महंगाई, मुद्रा, ब्याजदर और घाटा, इन कारकों पर उभरते बाजारों की तुलना करें तो प्रोत्साहन की उल्टी प्रतिक्रिया के प्रभाव और स्पष्ट नजर आते हैं। भारी व्यय वाले देशों में हंगरी, ब्राजील और फिलिपीन्स की सबसे बुरी स्थिति है, वहीं कम खर्च वालों में ताइवान, साउथ कोरिया और मेक्सिको सबसे अच्छी स्थिति में हैं। मध्यम खर्च वाले भारत पर मिश्रित असर हुआ है, जहां महंगाई और ब्याज दरों पर कम नकारात्मक असर हुआ, लेकिन मुद्रा मूल्य पर ज्यादा असर हुआ। इसमें जीडीपी का 11% घाटा चिंताजनक है, जो कि उभरते बाजारों में सबसे ज्यादा है, लेकिन यह परिस्थिति महामारी के पहले से ही थी।
प्रोत्साहन अभियानों का संबंध शायद आर्थिक परिस्थिति से ज्यादा राजनीति से है। अपनी सरकार की परंपराओं के साथ चलते हुए पूर्वी एशियाई देशों ने कम व्यय किया, जबकि लातिन अमेरिकी देशों ने भारी। जिन देशों ने सबसे ज्यादा गिरावट देखी, जरूरी नहीं कि सबसे बड़ा प्रोत्साहन पैकेज देने वाले हों।
विकसशील दुनिया ने इन विकल्पों का पहले भी सामना किया है। कई उभरते बाजार 1990 के दशक के अंत में संकट में फंस गए थे और उन्हें खर्च करने की बजाय, सुधार पर जोर देने के लिए मजबूर होना पड़ा। घाटे और कर्ज पर लगाम लगाने पर वे अगले दशक में उछाल के लिए तैयार हो गए।
2008 तक वे समृद्ध हो गए और उस वर्ष संकट का जवाब भारी मात्रा में खर्च और उधार लेकर दिया, जिससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं को सबसे खराब दशक का सामना करना पड़ा। जल्दबाजी में खर्च करने वाले देश अक्सर बाद में पछताते हैं। जिन्होंने महामारी के दौरान भारी खर्च किया, उन्हें संभवतः उनकी कल्पना से कम वृद्धि मिली और उच्च घाटे तथा ऋण के रूप में परेशानी ज्यादा मिली, जिससे अगली जंग के लिए उनके पास कम हथियार बचे।


Rani Sahu

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