सम्पादकीय

हॉर्न नहीं बजा सकते थे, जान लोगे क्या मेरी?

Rani Sahu
17 Sep 2021 9:12 AM GMT
हॉर्न नहीं बजा सकते थे, जान लोगे क्या मेरी?
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अक्सर जब आपकी कार, बाइक, स्कूटर या फिर साइकल राह चल रहे किसी मुसाफिर से टकराती है

अभिषेक कुमार नीलमणि। अक्सर जब आपकी कार, बाइक, स्कूटर या फिर साइकल राह चल रहे किसी मुसाफिर से टकराती है तो पलटते ही जवाब मिलता है 'क्या तुम्हारी गाड़ी में हॉर्न या साइकिल में घंटी नहीं है? चढ़ा दोगे शरीर पर क्या?' मगर जब आप कहेंगे कि मैंने बजाई थी, पर आपने शंख की आवाज सुनी ही नहीं, इसलिए टक्कर हो गई. जरा सोचिए, शंख, हारमोनियम, तबले की आवाज सड़क पर बजने लगेंगे तो भला कौन मानेगा कि ये गाड़ी का हॉर्न है. क्योंकि ये हिंदुस्तान है. यहां तो आदत ही अजीब है. जब तलक आप दिल्ली के चावड़ी बाजार, चांदनी चौक, बल्लीमारान जैसी जगहों से होकर गुजरेंगे, वहां बिना पों-पों के कहां पब्लिक साइड देने वाली है.

परिवहन मंत्री नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) ने एक बहुत बड़ा फैसला लिया है. परिवहन मंत्री गडकरी का कहना है, 'देश में हॉर्न का पैटर्न बदल देंगे. सड़क पर तेज आवाज वाली हॉर्न नहीं बल्कि शंख, हारमोनियम और तबले की आवाज सुनाई पड़ेगी.' वाह गडकरी साहब वाह. पहल तो बहुत अच्छी है. आपको ऐसा सोचने मात्र के लिए ही बधाइयां. पर उन्होंने इससे ज्यादा जानकारी राजस्थान के दौसा में दी नहीं. जहां आप 90 हजार करोड़ की लागत से बन रहे दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे को एक नजर देखने आए थे. हालांकि नितिन गडकरी ने ये जरूर कहा कि इसपर काम शुरू हो चुका है.
ऐसे में सवाल कई हैं. लोगों के मन में ये उथल पुथल मच गया है कि भला हारमोनियम कैसे हॉर्न के रूप में बजेगा? क्या सड़कों पर 'सा रे गा मा पा' सुनाई देगा? क्या महंगी करोड़ों की कार से तबले की थाप सुनाई देगी? क्या बुलेट के बटन से शंखध्वनि बजेगी? और अगर इन सारे सवालों का जवाब 'हां' है तो फिर अंतिम सवाल है कि कैसे?
समुद्र मंथन से निकले रत्नों में शंख भी शामिल था
मगर फिर भी कहूंगा कि पहल तो वाकई बहुत अच्छी है. क्योंकि शंख ध्वनि की महिमा अपार है. हिंदू धर्म में पूजा और शुभ कार्यों के लिए शंख का प्रयोग अनिवार्य है. आपको यहां ये बता देना जरूरी है कि शंख भी समुद्र मंथन का हिस्सा है. जब देव और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था तो 14 तरह के रत्न प्राप्त हुए थे. उन 14 में से एक रत्न शंख ही था. हिंदू रीति रिवाज से शादी विवाह, उत्सव या मांगलिक कार्यक्रम में शंख के सुर न सुनाई पड़ें तो वो कार्य ही अधूरा समझा जाता है. शंख मंगलकारी है. शुभ है. शांति का द्योतक है. सुख समृद्धि का प्रतीक है. शास्त्रों में भी शंख का भरपूर बखान हुआ है. इसकी स्थापना के नियम सुझाए गए हैं. उस नियम से होने वाले फायदे गिनाए गए हैं. शंखों में दक्षिणावर्ती शंख को सर्वोत्तम बताया गया है. जो शुभ भी है और श्रेष्ठ भी.
क्या गडकरी के फैसले पर तुष्टीकरण का बीज बोया जाएगा?
जब शंख इतना ही अच्छा है, तो फिर हॉर्न के बदले बजाई जाए तो आपत्ति होगी क्या? क्योंकि ऐसा तो नहीं कि इसे भी तुष्टीकरण की बलि का बेदी बना दिया जाएगा. ऐसा तो नहीं पूछा जायेगा कि क्यों सिर्फ एक ही धर्म समुदाय का ख्याल रखा गया है? क्यों नहीं अज़ान का प्रावधान हॉर्न में किया गया? क्यों नहीं गुरुनानक बाबा के अरदास की व्यवस्था की गई? ऐसा क्यों नहीं हुआ कि बेसुरे हॉर्न के बदले 'फादर' के प्रेयर को शामिल किया गया? मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि सवाल उठेंगे, पर हां उठाने वाले उठा जरूर सकते हैं. क्योंकि ये मुल्क हिंदुस्तान है. जहां हर साल माहौल चुनावी रहता है. लिहाजा दलों के बीच हर मुद्दा धर्म विशेष के चश्मे से देखा जाने लगता है.
बहन मायावती ने हाथों में त्रिशूल क्यों उठा लिए?
वैसे राजस्थान की जमीं पर पधारे गडकरी ने भले ही अपने इस मसौदे का पूरा खाका खींचा ना हो, लेकिन सियासत की रोटियां सेंकने वाले इसमें मुद्दा ढूंढ जरूर लेंगे. अब आप उत्तर प्रदेश में बहन मायावती को ही देखिए. अरसा हो गया, न जाने कहां गायब सी हो गई थीं. मगर चुनाव नजदीक आते ही, नजर भी आईं और एक्टिव भी. शुरुआत ब्राह्मणों को लुभाने से हुआ. एक सभा आयोजित की गई. जहां शंख बजे. मंत्रोच्चारण हुआ. त्रिशूल लहराए गए. मायावती के हाथों में भी त्रिशूल दिखा. इन सब के साथ गणेश की प्रतिमा भी नजर आई. मतलब बहन जी को शंख की महिमा समझ आ चुकी है. कतार में और भी पार्टियां हैं. एक-एक करके सब सामने आएंगे. फिर जनता इन्हें ही 'रंगा सियार' कहने लगती है.
अब ऐसे में भला गडकरी जी क्या गलत कर रहे हैं? अब देखना है वादे के पक्के और जनता के बीच कही बातों को पूरा करने वाले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी अपने इस फैसले को जमीन पर कब उतारते हैं. क्योंकि '130 करोड़' तो ना सही पर '80 करोड़' जनता को बेसब्री से इंतजार है कि हिंदुस्तान की सड़कों पर शंख की मधुर ध्वनि गूंजे. ना कि कर्कश पों-पों.


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