सम्पादकीय

पंचायत चुनाव आदिवासी स्वशासन व्यवस्था, परंपरा, रीतिरिवाज और संस्कृति को खत्म करने का षड्यंत्र

Rani Sahu
10 April 2022 3:59 PM GMT
पंचायत चुनाव आदिवासी स्वशासन व्यवस्था, परंपरा, रीतिरिवाज और संस्कृति को खत्म करने का षड्यंत्र
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हम आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था, परंपरा, रीतिरिवाज, संस्कृति, रूढ़ि-प्रथा एवं सामुदायिकता को खत्म करने का षड्यंत्र है

Gladson Dungdung

हम आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था, परंपरा, रीतिरिवाज, संस्कृति, रूढ़ि-प्रथा एवं सामुदायिकता को खत्म करने का षड्यंत्र है पंचायत चुनाव. 24 दिसंबर 1996 को जब संसद में पेसा कानून पारित हुआ तब देश की पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों ने ढोल, नगाड़ा और मांदर बजाकर इसका स्वागत किया था. डॉ. बीडी. शर्मा को आदिवासियों का मसीहा के रूप में पेश किया गया था. उन्होंने बंदी बाबा के साथ मिलकर पेसा,पत्थलगड़ी अभियान भी चलाया था.
आदिवासियों को बताया गया था कि आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को संवैधानिक जामा पहनाने में डॉ. बीडी. शर्मा का हाथ है, जिन्होंने राजीव गांधी को इसके लिए समझा-बुझाकर तैयार किया और फिर भूरिया समिति का गठन हुआ. भूरिया समिति की सिफारिश के आधार पर ही पेसा कानून बनाया गया. हमलोग बहुत सारे आदिवासी एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी और आंदोलनकारी पेसा पेसा करते रहते हैं. लेकिन यदि सही से विश्लेषण किया जाये तो यह समझ में आयेगा कि देशभर के आदिवासियों को अंधेरे में रखकर पेसा कानून के द्वारा हमारी ''पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था'', परंपरा, रूढ़िप्रथा, संस्कृति एवं सामुदायिकता को जमींदोज कर दिया गया है.
भूरिया समिति ने आदिवासियत का एक अहम स्तंभ ''सर्वसम्मति'' को हटाकर आदिवासी समाज पर ''बैलट,ईवीएम वाला चुनाव'' थोप दिया. इसके साथ-साथ पारंपरिक ग्रामसभाओं के पास जो अधिकार था उसे दरकिनार करते हुए नया ग्रामसभा का गठन करवा दिया, जिसके सदस्य वोटर लिस्ट के आधार पर होंगे.यदि आपका नाम वोटर लिस्ट में नहीं है तो आप ग्रामसभा के सदस्य नहीं हो सकते हैं. जबकि पारंपरिक ग्रामसभाओं में उक्त गांव का निवासी होना ही काफी था.
पारंपरिक ग्रामसभाओं में आदिवासी मिलजुलकर सब कुछ करते थे लेकिन पेसा कानून के द्वारा आदिवासियों के ऊपर चुनाव थोपकर गांव के लोगों कोएक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है. यह आदिवासियों की सामुदायिकता को तोड़ने का सबसे बड़ा षड्यंत्र था. हमें समझना चाहिए कि सामुदायिकता के बगैर आदिवासी समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है. प्राकृतिक संसाधनों के मामले में भी पेसा कानून में ग्रामसभा को मालिकाना हक नहीं दिया गया है. बस इतना ही कहा गया है कि गांव के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने में ग्रामसभा सक्षम है.
भूमि अधिग्रहण के मसले पर ग्रामसभा सिर्फ परामर्श दे सकता है, लेकिन विटो पावर उसके पास नहीं है.जबकि विस्थापन आदिवासियों का सबसे बड़ा मुद्दा है. इसके अलावा लघु खनिज सम्पदा के मामले में ही ग्रामसभा सिफारिश कर सकता है, जबकि हम आदिवासी लोग कोयला, लौह-अयस्क, बॉक्साइट, यूरेनियम जैसी खनिज सम्पदा पर कोई हक नहीं होने की वजह से बर्बाद हो रहे हैं. अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत चुनाव नहीं होना चाहिए, बल्कि पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को ही पूरा अधिकार होना चाहिए. ताकि आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति, रूढ़ि, प्रथा एवं प्राकृतिक संसाधन बरकरा रहे, आदिवासियत बरकरा रहे.
पेसा कानून में मौलिक संशोधन करने की जरूरत है. यदि आज अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के साथ पेसा कानून का हवाला देकर एक अलग पंचायत व्यवस्था कायम की गयी है तो उसका जिम्मेवार भूरिया समिति और आदिवासियों के तथाकथित मसीहा डॉ. बीडी. शर्मा हैं. पेसा कानून पर पुनर्विचार की जरूरत है.
Rani Sahu

Rani Sahu

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