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वैसे अगर संचालन समिति के अध्यक्ष पद से आनंद शर्मा त्यागपत्र न देते
By: divyahimachal
वैसे अगर संचालन समिति के अध्यक्ष पद से आनंद शर्मा त्यागपत्र न देते, तो भी उनकी भूमिका में हिमाचल कांग्रेस के संदर्भों में कौन सा इजाफा होता। उनके इस्तीफे ने सिर्फ यह संकेत दिया है कि कांग्रेस किसी भी आयाम पर पगला सकती है और पंजाब व उत्तराखंड के बाद हिमाचल में ऐसी पारी शुरू हो रही है। गुलाम नबी आजाद ने अगर जम्मू-कश्मीर कांग्रेस से नाता तोड़ा तो आनंद शर्मा ने चुनावी सफर शुरू होने से पहले ही बता दिया कि वह कितने गंभीर व मूल्यवान हो सकते हैं। दरअसल कांग्रेस में दरबारियों के आत्मसम्मान, पार्टी को गच्चा देने की हिमाकत कर सकते हैं और इसी की रूपरेखा में आत्म विध्वंस का दौर जारी है। कम से कम हिमाचल की दृष्टि से आनंद शर्मा की राजनीतिक गोटियां तब तक सही बैठती रही हैं, जब तक उन्हें सत्ता के पुरस्कार स्वरूप राज्यसभा की सीट के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र के खिलाफ धड़ेबंदी का स्पेस मिलता रहा। बेशक वह कांगे्रस की दरबारी अमानत के रत्न बनकर, पार्टी की सत्ता के उच्च फलक पर रहे, लेकिन उनकी बदौलत हिमाचल को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा हिमाचल को मिले औद्योगिक पैकेज की जब यूपीए सरकार द्वारा कतरब्यौंत हुई, उस समय आनंद शर्मा केंद्रीय वाणिज्य मंत्री होते हुए भी इस प्रकोप के भागीदार बने।
उनके लिए प्रदेश के मायने शिमला से गलबहियां करते हुए, कांग्रेसी सत्ता के नूर में अपने इरादे बुलंद करते रहे और इसलिए कुछ नेताओं का दिल्ली जमावड़ा लगाकर वह एक तरह से वीरभद्र सिंह विरोधी हवा बनाते रहे, लेकिन इस अभियान के भी असफल खिलाड़ी माने गए। ऐसे में चुनाव से पूर्व जिन ताकतों ने उन्हें हिमाचल चुनाव संचालन समिति का अध्यक्ष बनाया, वे भी अपने गिरेबां में देखें। पार्टी ने अब तक अपने अहम ओहदों की चमक को बर्बाद ही किया है और इसीलिए कार्यकारी अध्यक्ष के पद से सुशोभित पवन काजल जैसे नेता किनारा कर रहे हैं। आनंद शर्मा के ताने-बाने से हिमाचल कांग्रेस अगर मुक्त हो रही है, तो गनीमत है वरना पार्टी को एक तरह से अपने खिलाफ इश्तिहार बनाने की आदत सी हो गई है। विडंबना यह भी है कि पार्टी ऊपर से ढह रही है, जबकि जमीनी आधार पर समर्थन की कमी नहीं है। ऐसे में पार्टी को यह तय करना है कि उसे अपने शीर्षस्थ नेताओं को ढोना है या जमीन पर खड़े कार्यकर्ता को आसमान दिखाना है। यहां भी आनंद शर्मा और गुलाम नबी आजाद सरीखे नेताओं की अलहदा दिखने की शर्तें दिखाई दे रही हैं।
क्या आनंद शर्मा के आत्मसम्मान की सजा हिमाचल कांग्रेस के पक्ष में खड़े समीकरण भुगतें या आम कार्यकर्ता केवल नेताओं के बनते-बिगड़ते मूड को निहारें। जो भी हो, आनंद शर्मा की पद से रुखसती, उनकी ओर से हिमाचल चुनाव को राहत प्रदान कर रही है। कम से कम इससे अनावश्यक गुटबाजी को अब आधार व अधिकार तो नहीं मिलेगा। इससे पूर्व पवन काजल को जिस तरह कांगड़ा भाजपा मंडल ने ठुकराया है, उससे कांगे्रस के भगौड़े नेताओं को सीख लेनी चाहिए ताकि कल कहीं परिस्थितियां, धोबी के कुत्ते की तरह न हो जाएं। आनंद शर्मा के त्यागपत्र से मिले संकेत पर कांग्रेस को अपना घर सुधारने की आवश्यकता महसूस करनी होगी। फिलहाल कांग्रेस के सामने भाजपा का पहाड़ नहीं, बल्कि पार्टी के भीतर भितरघात के खतरे बढ़ रहे हैं। इससे निजात न पाई, तो भाजपा के लिए खुश होने की वजह बढ़ जाएगी।
Rani Sahu
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