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By डॉ संजय बारू
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार शशि थरूर ने कहा है कि वे बदलाव के प्रतिनिधि हैं, जबकि दूसरे उम्मीदवार मल्लिकार्जुन खड़गे निरंतरता का प्रतिनिधित्व करते हैं. यह कहकर थरूर ने अपने को खड़गे के सामने नहीं, बल्कि राहुल के सामने खड़ा कर दिया है. माना जाता है कि बदलाव का माध्यम और प्रतीक राहुल गांधी को होना है. अब जब पार्टी फिर से अपने उभार की कोशिश में है, तो उसे निरंतरता व बदलाव दोनों के प्रतीकों की जरूरत है. दिल्ली के कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे नकली चुनाव कह कर कांग्रेस पर तंज किया है.
लेकिन इस प्रक्रिया को समझा जाना चाहिए. हो सकता है कि असली योजना यह रही होगी कि अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाकर राजस्थान से हटा दिया जाए और उनकी जगह सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बना दिया जाए. पर यह दांव एक साधारण कारण से उलटा पड़ गया. भारतीय सत्ता शक्ति के छात्र एक बुनियादी पाठ यह पढ़ते हैं कि शक्ति के मामले में देश में तीन ही पद मायने रखते हैं- पीएम (प्रधानमंत्री), सीएम (मुख्यमंत्री) और डीएम (जिलाधिकारी).
इन तीनों के पास स्वतंत्रता से काम करने का संवैधानिक अधिकार है, जो कुछ ही अन्य पदाधिकारियों के पास होता है. तो फिर कोई मुख्यमंत्री, जिसके पास बहुमत का समर्थन है, ऐसे पार्टी पद के लिए अपनी सत्ता क्यों छोड़ेगा, जो केवल सजावटी है? अध्यक्ष का पद सजावटी इसलिए है कि कोई भी अध्यक्ष पार्टी की सत्ता संरचना के महत्वपूर्ण लोगों से इतर स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकता है. भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा को यह पता है.
वे भी एक तरह से सजावटी हैं तथा उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्षस्थ लोगों से निर्देश लेना पड़ता है. यह वह सत्ता संरचना है, जिससे भाजपा अध्यक्ष का सामना होता है. अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस में अध्यक्ष के रूप में सफल रहने के लिए सोनिया व राहुल गांधी से लगातार विचार-विमर्श करते रहना होगा.
सो, दोनों राष्ट्रीय दलों के अध्यक्षों को पार्टी के असली सत्ता केंद्रों के साथ ताल मिलाकर चलना होता है. अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियां वैसे भी नेता के बेहद करीबी लोगों द्वारा चलायी जाती हैं. इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को दिखावा कहना उचित नहीं है और ऐसा करने से असली बात छूट जाती है. वह बात यह है कि आखिरकार कथित 'आलाकमान' ने यह समझा कि व्यापक जन समर्थन पाने के लिए किसी नेता का पार्टी के भीतर राजनीतिक वैधता हासिल करना अनिवार्य शर्त है.
सोनिया गांधी पार्टी पर इसलिए काबिज हो सकी थीं क्योंकि राजीव गांधी के विश्वासपात्रों का पार्टी संगठन पर नियंत्रण था, जिन्होंने सीताराम केसरी का तख्ता पलटने में उनकी मदद की. उनका अध्यक्ष बनना 1992 में अपने को अध्यक्ष निर्वाचित करवाने के पीवी नरसिम्हा राव के निर्णय से बिल्कुल उलटा था. राव ने धुरंधर नेताओं को हराया था. सोनिया गांधी परिवार को उत्तराधिकार देने में असफल रहीं और राहुल गांधी को पार्टी संगठन पर नियंत्रण लेने के लिए अलग रास्ते अपनाने पड़े हैं. पदयात्रा का भी यही लक्ष्य है.
दिग्विजय सिंह का नाम आगे आने का खास मतलब नहीं था. यह सबको मालूम है कि अपने ही राज्य में उनका जनाधार बहुत कम है. उनके अध्यक्ष बनने से कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक संदेश नहीं जाता. भले ही दिल्ली मीडिया में थरूर के दोस्त उनकी उम्मीदवारी की तुलना संयुक्त राष्ट्र महासचिव के उनके चुनाव से करें, लेकिन किसी ने उनके महासचिव पद जीतने की आशा नहीं की थी और कोई भी चुनाव जीतने की आशा भी नहीं कर रहा है.
पर मैदान में उतरने और अपनी बात कहने में कुछ भी गलत नहीं है. अध्यक्ष के रूप में खड़गे की वही भूमिका होगी, जो मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में निभायी थी यानी नेहरू-गांधी परिवार को ऊपर रखना. कई लोगों ने खड़गे की खूबियों की चर्चा की है, पर उनकी जाति और क्षेत्रीय पहचान का भी अर्थ है. वे दलित हैं और कर्नाटक से आते हैं. दिलचस्प है कि जिस दिन उनकी उम्मीदवारी घोषित हुई, उसी दिन राहुल गांधी की पदयात्रा ने कर्नाटक में प्रवेश किया.
साल 2022 में अध्यक्ष का चुनाव इसलिए नहीं हो रहा है कि कौन 2024 के चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करेगा. वह नेतृत्व राहुल गांधी ही करेंगे. राहुल गांधी को ऐसा 'सांगठनिक' व्यक्ति चाहिए, बहुत कुछ मोदी के नड्डा की तरह, जो रोजमर्रा के उबाऊ सांगठनिक मामलों को देखे और देशभर के कार्यकर्ताओं की बात सुने. थरूर ऐसे सांगठनिक व्यक्ति नहीं हैं, भले वे उदात्त, आकर्षक, अच्छे वक्ता और मीडिया को समझने वाले आदि हों.
ये वे लक्षण हैं, जो पार्टी का चेहरा होने के नाते राहुल गांधी में होना चाहिए. आंतरिक रूप से पार्टी को थरूर के बुद्धिमान मुख की अपेक्षा खड़गे के धैर्यपूर्ण कानों की अधिक आवश्यकता है. जब पदयात्रा पूरी हो जायेगी, कांग्रेस नेतृत्व को देशभर में अपनी कमतर राजनीतिक उपस्थिति की वास्तविकता का सामना करना होगा. वाम मोर्चे की कीमत पर केरल में अधिक सीट जीतना समझदार राजनीति नहीं है. वाम दल और कांग्रेस गहरे रूप से परस्पर संबद्ध हैं. कांग्रेस को भाजपा को हराकर सीटें हासिल करनी चाहिए तथा भाजपा विरोधी पार्टियों की मदद करनी चाहिए.
भाजपा अपने विरोधियों से आगे है, पर उसकी जमीन खिसक रही है. मोदी को अपने गृह राज्य गुजरात में बहुत समय देना पड़ रहा है. वे कोई जोखिम लेना नहीं चाहते. इसका मतलब है कि दूसरों के लिए मौका है. हिंदी पट्टी में हिचकिचाहट है. बिहार पहले ही हाथ से निकल चुका है.
तब भी 2024 में भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी होगी और शायद वह साधारण बहुमत भी पा ले, लेकिन गैर-भाजपा दलों के लिए संभावनाएं हैं. आखिरकार, राजनीति संभावनाओं का ही खेल है. भाजपा द्वारा किनारे धकेल दी गयीं गैर-भाजपा दलों ने लड़ने का दम दिखाया है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने ऐसा किया है और तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव यह कर रहे हैं. कांग्रेस ने भी अपने समर्थकों के सामने संघर्ष करने की अपनी क्षमता, इच्छा और कल्पना का प्रदर्शन किया है. पदयात्रा और सांगठनिक चुनाव इस आंतरिक उद्देश्य के लिए सहयोगी हो सकते हैं. अगर ऐसा होता है, तो पार्टी के पास भाजपा को हराने की बहुत बड़ी चुनौती के लिए आवश्यक ऊर्जा होगी, भले ही धन न हो.
Gulabi Jagat
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