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आदित्य चोपड़ा: इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि लोकतन्त्र सशक्त विपक्ष के बिना लंगड़ा तन्त्र ही माना जाता है क्योंकि चुने हुए सदनों, विधानसभाओं से लेकर संसद तक में सत्तारूढ़ पक्ष की जनता के प्रति जवाबदेही विपक्ष ही तय करता है किन्तु यदि विपक्ष में स्वयं ही जनता की जिम्मेदारी उठाने की ताकत चुक जाये तो राजनीति में निर्वात (खालीपन) आने लगता है जिसे भरने का जिम्मा भी लोकतन्त्र में जनता ही पूरा करती है। भारत में कांग्रेस पार्टी आज भी ऐसी पार्टी मानी जाती है जिसका वैचारिक स्तर पर सीधे वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के साथ धुर विरोध है अतः इसके कमजोर होने का असर समूचे विपक्ष की कमजोरी का पर्याय बने बिना नहीं रह सकता। कांग्रेस के कमजोर होने के अनेक कारण हैं मगर सबसे बड़ा कारण इसके संगठनात्मक ढांचे का जड़ से बिखर जाना है। यह बहुत भलीभांति स्पष्ट होना चाहिए कि कांग्रेस 'विरासत' पर जीने वाली पार्टी रही है अतः इस विरासत के कमजोर होने का असर हमें चोतरफा दिखाई पड़ रहा है परन्तु ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस की इस विरासत की अन्तर्निहित शक्ति चुक गई हो। यह शक्ति हमें आज भी देश के हर राज्य से लेकर जिले तक में नजर आती है, यह बात अलग है कि इस शक्ति को संगठनात्मक रूप से ध्रुवीकृत करने में अनेक कठिनाइयां हैं। इनमें सबसे बड़ी कठिनाई कांग्रेस के भीतर इसके नेताओं के बीच चलने वाली गुटबाजी है। दूसरे पार्टी में हवाई नेताओं को जिस तरह इज्जत बख्शने की परम्परा 1984 के बाद से चली उससे पार्टी की संस्कृति बजाय जनता परक होने के नेता परक होती चली गई जिसकी वजह से यह जनता से कटती चली गई मगर बीच–बीच मे ऐसे अवसर भी आये जब जनता ने कांग्रेस को अपना समर्थन देने में कंजूसी नहीं बरती विशेष रूप से 2018 के वर्ष में पांच राज्यों मंे हुए विधानसभा चुनावों मे इसे अच्छी सफलता मिली और तीन राज्यों में इसकी सरकारें भी गठित हुईं। मगर 2019 के लोकसभा चुनावों में इसकी साख पर जबर्दस्त बट्टा लगा और यह केवल 52 सीटें ही जीत पाई जिससे राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के ठोस विकल्प होने का विचार चकनाचूर होने लगा । इसके बाद भी जिन राज्यों में चुनावों में हुए उनमें कांग्रेस अपनी खोई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकी जिसकी वजह से कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर कई तरह के सवालिया निशान लगने लगे। सबसे बड़ा सवाल राहुल गांधी की योग्यता को लेकर खड़ा हुआ । यह सवाल ऐ सा था जो कांग्रेस की महान विरासत की पूंजी को ही प्रश्नों के घेरे मे ले रहा था जबकि हकीकत इस देश की यही रहेगी कि कांग्रेस के पास गांधी–नेहरू परिवार के अलावा ऐ सी कोई दूसरी सम्पत्ति नहीं है जिसे आगे रख कर यह पार्टी अखिल भारतीय स्तर पर अपने राष्ट्रीय होने का सबूत दे सके। पं. नेहरू हों या इन्दिरा गांधी दोनों की विरासत के बिना कांग्रेस आज भी मरुस्थल में खड़ा सूखा पेड़ ही समझी जायेगी क्योंकि इन दोनों नेताओं का इतिहास वही है जो पिछली सदी में भारत का इतिहास है अतः जब इस विरासत से आज के नवजात कांग्रेसी मुंह मोड़ने का काम करते हैं तो वे अपनी जड़ों को ही खोखला करते हैं। बेशक स्व. नेहरू या इन्दिरा गांधी जैसा कोई करिश्मा राहुल गांधी के पास नहीं है मगर उनमें एक प्रबल विपक्षी नेता बनने की इच्छा शक्ति जरूर है। यदि इसका संज्ञान आम कांग्रेसी नेता ही नहीं लेना चाहते तो इसमें सत्ताधारी दल भाजपा का कोई कसूर नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच अवधारणा युद्ध सतत जारी रहता है। कांग्रेस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में विगत रविवार को जो अपनी रैली की उसका सन्देश यही है कि पार्टी में जनता के मुद्दे उठाने की जिज्ञासा में कोई कमी नहीं आयी है और यह सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए सड़कों पर उतरने के लिए भी तैयार है। दो दिन बाद कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा शुरू हो जायेगी जिसे पार्टी का अपना राजनीतिक नजरिया कहा जायेगा। परन्तु हाल ही में कांग्रेस छोड़ कर गये श्री गुलाम नबी आजाद ने भी जम्मू में अपनी नई बनने वाली पार्टी की तरफ से जनसभा की और उसमें कांग्रेस की नई संस्कृति की कटु आलोचना की। उनके साथ जम्मू-कश्मीर के अधिसंख्य कांग्रेसी नेता भी थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि केन्द्र में 1977 मे जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार गठित होने के बाद आजाद साहब स्वयं कांग्रेस पार्टी की प्रेस विज्ञप्तियां लेकर अखबारों के दफ्तरों के चक्कर काटा करते थे मगर मौजूदा हालात में कांग्रेस नेता यह सवाल उठा रहे हैं कि आज जब कांग्रेस रसातल में जा रही है तो आजाद साहब का वह जज्बा कहां चला गया और वह कांग्रेस पार्टी को ही अलविदा कह बैठे। दर असल सत्ता से दूर रहने का गम आम कांग्रेसी को भूलना होगा और विपक्ष में रहने के नियम का पालन करना होगा और अपनी विरासत की सुरक्षा करनी होगी क्योंकि इसके अलावा कांग्रेस के पास और कुछ नहीं है। अतः आज जो नवजात कांग्रेसी पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचन मंडल के सदस्यों के नाम सार्वजनिक करने की मांग कर रहे हैं, जरा अपने गिरेबान में झांककर बतायें कि कांग्रेस के हुकूमत में होने के समय उन्हें मन्त्री बनाये जाते समय कितने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से राय ली गई थी। लोकतन्त्र में पार्टी अपने उस संविधान से चलती है जिसे वह चुनाव आयोग को सौंपती है। अतः कांग्रेसियों को सबसे पहले अपने भीतर यह इच्छा शक्ति मजबूत करनी होगी कि वे विपक्ष में रह कर इसका धर्म निभायेंगे और अपने एयर कंडीशंड महलों से निकल कर सड़क पर आम जनता की आवाज सुनेंगे।