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by Lagatar News
Premkumar Mani
खबर है कि कविता कृष्णन ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी लिबरेशन से स्वयं को मुक्त करने की इच्छा प्रकट की थी. जिसे उनकी पार्टी ने स्वीकार लिया है. कन्नूर में जन्मी और पली -बढ़ी सुश्री कृष्णन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद सामाजिक-राजनीतिक मोर्चे पर निरंतर सक्रिय रहीं. मुक्त होने तक वह माले लिबरेशन की केंद्रीय समिति की सदस्य भी थीं. डेढ़ या दो साल पहले उनसे एक वर्चुअल संवाद कार्यक्रम में साथ होने का अवसर मिला था, जहां उनके विचारों से मैं बिलकुल सहमत नहीं था. लेकिन आंदोलनों में उनकी निरंतर भागीदारी का मैंने हमेशा सम्मान किया है.
खबर मैंने अख़बार में देखा. उसके कुछ समय बाद बीबीसी पर उनके एक साक्षात्कार को देखने-सुनने का अवसर मिला. उससे ही उन मुद्दों से परिचित हो सका, जिसे लेकर उन्होंने पार्टी से अलग होने का फैसला किया है. कहा जाय तो यह फैसला उन्होंने आत्म- मंथन के लिए किया है. उनके मन में पार्टी की रीति- नीति और मार्क्सवादी वैचारिकता पर कुछ गहरे सवाल हैं. इस दुविधा के साथ पार्टी में रहना उन्होंने अच्छा नहीं समझा. उनकी इस ईमानदारी का कोई भी सम्मान करना चाहेगा.
उनके सवाल अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और उसकी वैचारिक जड़ता से भी हैं. उनके अनुसार आप (कम्युनिस्ट बिरादरी) हिटलर के गैरलोकतांत्रिक और अमानवीय आचरण की तो निन्दा करते हैं, लेकिन स्टॉलिन के लगभग वैसे ही आचरण पर यह कह कर चुप्पी साध लेते हैं कि यह उनकी विवशता थी. या यह सब उन्होंने समाजवाद के लिए किया. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सर्वाधिकारवाद के तहत जो कर रही है, उसकी आलोचना के लिए कम्युनिस्टों के पास वक्त नहीं है, लेकिन वही काम कहीं और हो रहा हो उसकी आलोचना में तनमन से लग जाते हैं. बीबीसी की उस वार्ता में उनका ध्यान चीन,म्यांमार, श्रीलंका और भारत में चल रहे मुस्लिम विरोधी सरकारी-गैरसरकारी अभियान पर भी गया है. इस बिंदु पर कम्युनिस्ट मित्रों की राय से वह संतुष्ट नहीं दिखतीं. ऐसे ही कतिपय सवाल सुश्री कृष्णन के हैं. इन सवालों को सार्वजनिक कर उन्होंने एक राजनीतिक विमर्श का खुला आमंत्रण दिया है, जिसका कम से कम मैं स्वागत करता हूं.
प्रसंगवश मुझे हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी का स्मरण होता है. कहानी का शीर्षक है ' आत्मसाक्षी'. यह 1965 में लिखी गई थी. जर्मन हिंदी विद्वान लोठार लुत्से ने इस कहानी का अपनी जुबान जर्मन में अनुवाद किया है और जब वह भारत में रेणु से मिलने आए तब उनकी वार्ता का आरम्भ इस कहानी से ही होता है. हिंदी कवि-लेखक अज्ञेय भी इस कहानी के प्रशंसक थे. यह कहानी गनपत नाम की एक कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता की कहानी है, जो 1930 के दशक में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ा, खंजड़ी बजा-बजा कर गांव-कस्बों में पार्टी का प्रचार करता रहा, आंदोलनों में भाग लिया, तकलीफें सहीं, जेल गया और आज जब पार्टी के बड़े नेताओं ने न जाने किन मुद्दों पर पार्टी का विभाजन (1964 का विभाजन) कर लिया है, तब उसे पार्टी का इलाकाई नेता उसे अपमानित कर पार्टी दफ्तर से निकाल देता है. उस पार्टी दफ्तर से जिसे उसने चंदा करके एक समय स्थापित किया था. रेणु ने इस कहानी के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र के खतरों के प्रति आगाह किया है. राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही है. लोकतंत्र स्थापित होने के पूर्व राजनीतिक कार्यकर्त्ता हमारे सामाजिक जीवन में नहीं था. आज़ादी के बाद जब राजनीतिक दल बने तब राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी बने. इनकी स्थिति का आकलन हमारे साहित्य में लगभग नहीं था. रेणु के साहित्य में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भरमार है. गनपत ऐसा ही एक अभागा कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता है, जिसकी पीड़ा समझने के लिए उसके अलावे और कोई नहीं है.
गनपत की स्थिति किसी एक पार्टी में नहीं, सभी पार्टियों में है. हिंदी कथाकार उदयप्रकाश की कहानी' और अंत प्रार्थना' का डॉक्टर वाकणकर आरएसएस का स्वयंसेवक है. मुश्किल है कि वह ईमानदार है. उसकी पार्टी की ही सरकार है. लेकिन भ्रष्टाचार और बेईमानी के विरुद्ध उसकी लड़ाई में सब उसकी जान के दुश्मन बन जाते हैं. राजनीतिक दलों के पेचोखम कितने हैं,इसे स्पष्ट करने केलिए उपरोक्त दो कहानियां पर्याप्त हैं.
कविता कृष्णन के सवाल केवल उनके व्यक्तिगत सवाल नहीं हो सकते. वे हजारों कार्यकर्ताओं के सवाल हो सकते हैं. कट्टर कम्युनिस्ट मित्रों को झटका लग सकता है कि देश में जब समाजवादियों और कम्युनिस्टों की एकता और एकजुटता की जरुरत है, तब कविता कृष्णन यह क्यों कर रही हैं. लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, इन प्रश्नों पर मंथन सभी को करना चाहिए. यह क्यों हो गया है कि तमाम कम्युनिस्ट पार्टियां मठ की मानिंद हो गई हैं और उनके नेता महंथ बन गए हैं. इन सब बातों पर सार्थक विमर्श हो तब कम्युनिस्ट पार्टी कमजोर होने के बजाय मजबूत होगी. अनेक सवाल कार्यकर्ताओं के मन में हो सकते हैं. नेता उनसे संवाद की स्थितियां तो विकसित करें!
Rani Sahu
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