सम्पादकीय

शिक्षा का व्यवसायीकरण रोकना होगा

Rani Sahu
26 Jun 2022 7:20 PM GMT
शिक्षा का व्यवसायीकरण रोकना होगा
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शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है

शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य का न केवल बौद्धिक विकास होता है, बल्कि उसका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी होता है। अनेक शिक्षाविदों के द्वारा समय-समय पर किए गए शोध इसका प्रमाण हंै। हमारे देश में शिक्षा का क्या महत्त्व है, यह शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है। हर रोज ग्रामों और शहरों में भारत के करोड़ों बच्चे हर सुबह अपनी पीठ पर बस्ता लेकर अपना भविष्य संवारने स्कूल जाते हैं। हर माता-पिता की इच्छा रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर एक महान और काबिल इनसान बने और दुनिया में उनका और अपना नाम खूब रोशन करे। माता-पिता के इन सपनों को पूरा करने में हमारे स्कूल और हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। स्पष्ट सी बात है कि किसी भी देश की संपन्नता उस देश की जनसंख्या के साक्षरता अनुपात पर ही निर्भर करती है। यद्यपि संपन्नता को मापने के लिए साक्षरता के अतिरिक्त अनेकों अन्य आयाम भी होते हैं, परंतु हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि बिना शिक्षा के किसी देश, राज्य या परिवार की प्रगति संभव हो ही नहीं सकती। शिक्षा के बिना मानव पूंछ विहीन पशु के समान है, क्योंकि शिक्षा ही मनुष्य में सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है और मानव को अन्य चौरासी लाख प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ भी बनाती है। अब जरा विडंबना देखिए कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली ये पाठशालाएं आजकल एक समृद्ध व्यवसाय का रूप ले चुकी हैं जिसने अच्छी शिक्षा को पैसे वालों की धरोहर बना कर रख दिया है। अब साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार इन फाइव स्टार से दिखने वाले स्कूलों को दूर से टकटकी लगाकर ललचाई आंखों से देखते हैं और सोचते हैं कि काश, उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता। यह हाल केवल शहरों में होता तो भी भाता, परंतु आजकल तो गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायी और व्यापारीकरण हो रहा है। हर गली-मोहल्ले में दो-चार किराए के कमरों में हिंदी में अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई हो रही है, जिसे यदि इंग्लिश न कह कर हिंगलिश माध्यम कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। आज यदि सरकारी स्कूलों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो हम देखेंगे कि इन स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढ़ने के लिए आते हैं क्योंकि प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं में फीस के रूप में एक बड़ी रकम वसूली की जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले धनाड्य लोग ही अदा कर पाते हैं।

ये शिक्षा के व्यापारी लोगों की मनःगति बहुत अच्छे से पढ़ चुके हैं। क्योंकि हर माता-पिता अपनी संतान को डॉक्टर, इंजीनियर से अतिरिक्त कुछ बनाना चाहते ही नहीं हैं, जो बुरी बात भी नहीं, परंतु बच्चे की क्षमता को कोई देख नहीं रहा। तभी तो आज अच्छी और उच्च शिक्षा का निरंतर व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालकों के पौ-बारह हो रहे हैं। वे इसी भावना का लाभ उठा कर मनमानी फीस वसूल कर रहे हैं या यूं कहें शिक्षा के खुले बाज़ार में लूट मचा रखी है। हर वर्ष इन शिक्षा की दुकानों में एक तरफ ग्राहक बढ़ रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ स्कूल की फीस बढ़ती ही जा रही है। क्या कभी किसी ने गौर किया कि जितनी रफ्तार से फीस बढ़ रही है, उतनी ही गति से शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है? शायद नहीं। बल्कि यह स्तर दिन-प्रतिदिन नीचे ही गिरता जा रहा है। क्या कभी किसी ने सोचा है कि इस सबके लिए कौन जिम्मेवार है? न जाने हम सब अपने बच्चों को किस रेस या प्रतिस्पर्धा में आगे निकालने की कोशिश कर रहे हैं। अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि जो स्कूल जितना महंगा होगा वहां पढ़ाई भी उतनी ही उत्तम होगी। बस इसी भ्रम में पड़ कर हम अंधी अनुकरणीय दौड़ में दौड़ पड़ते हैं। दुकानदार भी दुकान सजाए मौके का लाभ उठाते हुए खूब मन भावन मन लुभावन सब्जबाग दिखा कर हिप्नोटाइज़ करता है और हम, हम अपने बच्चों को उसी महंगे रेस का हिस्सा बना देते हैं।
आज के आधुनिक और दिखावे के दौर में मनपसंद स्कूल में प्रवेश लेना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को उनकी पसंद के स्कूल में यदि पढ़ाना चाहें तो शायद नहीं पढ़ा सकते क्योंकि बड़े नामी स्कूल में नर्सरी कक्षा में यदि प्रवेश दिलाने की आपकी इच्छा है तो उसकी फीस ही आज पचास हजार से एक लाख तक अदा करनी पड़ सकती है। यही नहीं, यदि आपको अच्छे स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाना है तो आपके बैंक बैलेंस भी अच्छा खासा होना चाहिए अन्यथा आप अपने बच्चे को इस अच्छे कहे जाने वाले स्कूल में पढ़ाने का सपना नहीं देख सकते। आज पश्चिमी सभ्यता का हम पर ऐसा प्रभाव देखने मिलता है कि हम आजकल किसी की भी योग्यता को अंग्रेजी ज्ञान के पैमाने आंकने लगे हैं। जिसको जितनी अंग्रेजी आती है उसको उतना ही बुद्धिमान समझा जाने लगा है। लोगों की इस मानसिकता का लाभ उठाते हुए शिक्षा को शिक्षा के इन व्यापारियों ने वेस्टर्न कल्चर की तरफ मोड़ दिया है। आजकल लोग अपनी मातृभाषा या मां बोली को बोलने में शर्म महसूस करने लगे हैं तथा टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने में भी स्वयं गौरवान्वित समझने लगे हैं। जहां तक बात है शहरों की, वहां तो संसाधन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण लोग इस दौड़ में कुछ सफलता हासिल कर भी लेते हैं, परंतु गांव-देहातों में फीस न होने के कारण कुछ लोग तो अपने बच्चों को स्कूल भेजने में भी असमर्थ हैं।
यदि फीस का जुगाड़ हो जाए, उसके साथ-साथ पुस्तकें, यूनिफॉर्म के खर्चे भी बहुत हो गए हैं जो उनकी पहुंच से कोसों दूर होते हैं। शिक्षा का व्यवसाय आज इतना फल-फूल रहा है कि स्कूल वालों ने साथ-साथ पुस्तक और स्कूल ड्रेस का व्यापार भी करना शुरू कर दिया है। स्कूल प्रबंधन अपने ही किसी सगे संबंधी को उक्त काम का ठेका दे देते हैं जिससे वो तो लाभ लेते ही हैं, साथ साथ संबंधी भी चांदी बटोरते हैं। अब स्पष्ट है कि शिक्षा का व्यापारीकरण दिन प्रतिदिन फल-फूल रहा है तो इस पर अंकुश कैसे लगे? आज शिक्षा के ऐसे हालात को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाने होंगे और 'शिक्षा मौलिक आधार' का अक्षरहाक्षर पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्रत्येक बच्चे तक अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा पहुंचानी चाहिए। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि आम जनता को किसी भी सूरत में कोई भी शिक्षा का व्यापारी लूट न सके। कोई भी आदमी शिक्षा व्यवसायी बन कर भोले-भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर बेवकूफ न बना सके और न ही उनसे मनमानी फीस वसूल कर सके। सरकार को चाहिए कि वह सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक लगाए। सभी निजी शिक्षण संस्थाओं की फीस का ढांचा सरकार स्वयं तय करे।
देवदत्त शर्मा
भाषा अध्यापक

सोर्स- divyahimachal


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