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- उर्वरक नीति में बदलाव...

हरित क्रांति के दौर से पहले किसान प्राकृतिक खेती किया करते थे, जिसमें रासायनिक उर्वरकों की खपत नगण्य थी। उस समय फसलों का उत्पादन और उत्पादकता कम थी। देश के बार-बार अकालग्रस्त होने से, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विदेशी अनाज के आयात पर निर्भर थी। वर्ष 1943 के बंगाल अकाल में 30 लाख से ज्यादा लोग भूख से मारे गए। ऐसी विकट परिस्थितियों में, नीतिकारों ने हरित क्रान्ति के जनक डा. नॉर्मन बोरलॉग द्वारा विकसित गेहूं की बौनी किस्मों और अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान से धान की बौनी किस्मों का आयात करके, देश में हरित क्रांति का आगाज किया। इन उन्नत गेहूं-धान की बौनी किस्मों और बाजरा-ज्वार की हाईब्रीड किस्मों से पूरा उत्पादन लेने के लिए, भारी मात्रा में उर्वरकों का आयात और उत्पादन व भूजल आधारित ट्यूबवेल से सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया गया।
हरित क्रांति दौर में अपनाए गए कृषि सुधारों से देश में विभिन्न फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में कई गुणा बढ़ोतरी हुई। जिसकी बदौलत पिछले 5 दशकों से, लगातार बढ़ती आबादी के बावजूद, देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बना हुआ है। चावल का पचास हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का वार्षिक निर्यात भी कर रहा है।
भारत में वर्ष 2022 में उर्वरक की औसत खपत 193 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि थी और लगभग 30 करोड़ मीट्रिक टन उर्वरक की खपत हुई। भारत में यूरिया सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला उर्वरक है। देश में उर्वरक की खपत प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। उर्वरकों की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए सरकार भारी मात्रा मे वार्षिक आयात करती है।
हरियाणा-पंजाब-पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में गेहंू-धान फसल चक्र की उत्पादकता 10 टन वार्षिक से ज्यादा है। इसी तरह पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, केरल आदि प्रदेशों में भी वार्षिक धान की 2-3 फसल चक्र की उत्पादकता 10 टन से ज्यादा है। इसलिए इन प्रदेशों में उर्वरक की वार्षिक खपत राष्ट्रीय औसत से दुगने से भी ज्यादा प्रति हेक्टेयर 250 किलो नाइट्रोजन, 120 किलो फास्फोरस और 200 किलो पोटेशियम के आसपास है। जबकि वर्षा आधारित बारानी फसलों बाजरा, ज्वार, दलहन, तिलहन आदि के उत्पादक राज्यों में उर्वरक की वार्षिक खपत राष्ट्रीय औसत से काफी कम रहती है। उच्च उत्पादकता वाली कन्दमूल और गन्ने जैसी फसलों को अच्छी पैदावार देने के लिए ज्यादा पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जिससे इन फसलों की रासायनिक उर्वरक की खपत बहुत ज्यादा होती है।
हरित क्रांति दौर से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए, नीतिकारों ने कृषि क्षेत्र के लिए रासायनिक उर्वरक की सस्ती दर पर आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उर्वरक सब्सिडी नीति को अपनाया। किसानों को सस्ती दरों पर उर्वरक उपलब्ध कराने पर सरकार का व्यय पिछले वित्त वर्ष में 6 प्रतिशत घटकर रुपये 1,77,129.5 करोड़ रह गया, जो 2023-24 के दौरान रुपये 1,88,291.62 करोड़ था। यह गिरावट मुख्य रूप से यूरिया और डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) के आयात में गिरावट तथा अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में कमी के कारण हुई है। गिरावट के बावजूद, वास्तविक सब्सिडी बजट में प्रदान की गई रुपये 1,71,310 करोड़ से 3.4 प्रतिशत अधिक है। यूरिया, जो एक पूर्णतः नियंत्रित उर्वरक है, का विक्रय मूल्य पिछले कई वर्षों से 267 रुपये प्रति (45 किग्रा) बैग पर बना हुआ है। उद्योग के अनुमानों से पता चलता है कि सब्सिडी के बिना यह लगभग 1,750 रुपये प्रति बैग हो सकता है। इसी प्रकार, डीएपी का खुदरा मूल्य 1,350 रुपये प्रति बैग तय किया गया है, जो बिना सब्सिडी के लगभग 3,500 रुपये प्रति बैग हो जाएगा।
सरकारी विभागों के कदाचार की वजह से लगभग आधे से ज्यादा सब्सिडी वाले कृषि ग्रेड उर्वरक की खपत उद्योगपतियों की फैक्टरियों में गैर-कानूनी तौर पर हो रही है यानी कृषि के लिए दी जा रही केन्द्रीय उर्वरक सब्सिडी का लाभ किसानों को नहीं मिलकर, उद्योगपतियों को मिल रहा है। हर वर्ष फसल बुआई के समय किसानों को उर्वरक पूरी मात्रा में नहीं मिल पा रहा है। उन्हें उर्वरक खुले बाजार से महंगे दाम पर ब्लैक में लेना पड़ रहा है। किसानों को समय पर पूरी मात्रा में उर्वरक नहीं मिल पाने से, फसल की उत्पादकता पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
कृषि ग्रेड उर्वरक किसानों को सब्सिडी वाले उर्वरक नहीं मिलने के चलते सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारी उर्वरक कम्पनी इफ्को किसानों को वर्ष 2021 से नैनो यूरिया बेच रही है। इफ्को कम्पनी के दावों के अनुसार नैनो यूरिया तरल स्वरूप में, पारंपरिक दानेदार यूरिया की 50 किलो की एक बोरी का विकल्प है। हरित क्रांति दौर से अग्रणी रहे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय आदि अनेक संस्थानों के अनुसंधान में नैनो यूरिया को कृषि क्षेत्र के लिए अनुपयोगी पाया गया है।
कृषि ग्रेड उर्वरक के उद्योग में गैर-कानूनी दुरुपयोग को रोकने और उर्वरक सब्सिडी को युक्तिसंगत बनाकर किसानों तक पहुंचाने के लिए सरकार पिछले कई वर्षों से प्रयासरत है। कृषि सुधारों में सबसे ज्यादा तर्कसंगत उपाय उर्वरक सब्सिडी का किसानों को प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण रहेगा। उर्वरक सब्सिडी के मौजूदा सरकारी आंकड़ों के हिसाब से प्रति एकड़ सिंचित भूमि के लिए 7,000 रुपये और वर्षा आधारित बारानी भूमि के लिए 4,000 रुपये दिये जाने चाहिए। कृषि मंत्रालय ने पहले ही पीएम-किसान, पीएम फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी विभिन्न योजनाओं के आंकड़े तथा प्रत्येक किसान को नवीनतम विशिष्ट आईडी, जिसमें भूमि जोत, बोई गई फसल और उपज जैसे विवरण शामिल हैं, उर्वरक मंत्रालय के साथ साझा कर दिया है।
उर्वरक सब्सिडी का प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के रूप में किये जाने का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही लाभार्थियों तक समय पर पहुंचे, जिससे योजनाओं की प्रभावशीलता में सुधार होता है। इसका मुख्य लक्ष्य पारदर्शिता बढ़ाना है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
