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इस पुस्तक के विमोचन समारोह में मैं भी गया था. बोलने का अवसर नहीं था
Srinivas
इस पुस्तक के विमोचन समारोह में मैं भी गया था. बोलने का अवसर नहीं था. पर वहां जो कॉपी किताब पर कमेन्ट लिखने के लिए घूम रही थी, उसमें लिखा था- '…आप तो छुपा रुस्तम निकले.' यह यूं ही, खुश करने के लिए नहीं लिखा था. अब भी यही मानता हूं. बाद में एक मैसेज किया, जो इस किताब के संदर्भ में यहां दुहरा रहा हूं- "दुनिया को ढेर सारे अंतर्दृष्टिपूर्ण उद्धरण देने वाले सत्रहवीं सदी के मशहूर निबंधकार फ्रांसिस बेकन ने अपने लेख 'ऑफ स्टडीज' में लिखा है- 'कुछ किताबें बस चखने के लिए होती हैं, कुछ भकोस जाने के लिए, लेकिन बहुत कम किताबें चबा-चबा कर पचाने के लिए होती हैं..' तो मेरी नजर में यह किताब भी एक तरह से चबा-चबा कर पचाने वाली है. गंभीर या गरिष्ठ तो नहीं, पर इतना कुछ है कि आप एकबारगी नहीं पढ़ सकते. सो, अभी चबा रहा हूं धीरे-धीरे. पूरा चबाने में वक्त लगेगा.
यह किताब (वाया-मधुकर जी) हाथ में आयी तो लेखक के रूप में नवीन शर्मा का नाम देख कर सहसा सोच ही नहीं सका कि यह वही नवीन है, जिसे मैं लंबे समय से जानता हूं, जिसके साथ काम कर चुका हूं. अपने राजनीतिक मिजाज के कारण मिलने पर हम राजनीति और समाज के मौजूदा हालत पर ही बात करते थे. तो यह अंदाजा भी नहीं था कि फिल्मों में इस आदमी की इतनी गहरी रुचि हो सकती है.
मधुकर जी के बताने पर कि ये वही नवीन है और उसका अनुरोध है कि मैं इसे पढूं और इस पर कुछ लिखूं. मैं किताब देख कर चकित था. पांच सौ पेज का एक पोथा नवीन शर्मा ने लिख दिया! फिर प्रसन्न हुआ कि मेरे किसी करीबी ने जो कारनामा आज तक नहीं किया था, नवीन शर्मा ने कर दिया है. और मुझसे अपेक्षा कि कुछ लिख दूं, मेरे लिए गौरव की ही बात है, क्योंकि बहुत कागद कारे करने के बाद भी मैं खुद को इस काबिल नहीं समझता.
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