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- लंपी रोग को महामारी...
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हिमाचल प्रदेश में पशुधन को लंपी संक्रामक रोग दानव की तरह निगलता जा रहा है, अत: केंद्र सरकार इसे महामारी घोषित करे। प्रदेश सरकार इस बाबत केंद्र सरकार से गुहार भी लगा चुकी है। हिमाचल प्रदेश में लंपी चर्म रोग ने 64044 हजार पशुधन को अपनी चपेट में लिया है। अभी तक 2804 पशुधन लंपी चर्म रोग की वजह से मरने की पुष्टि सरकार कर चुकी है। 169397 पशुधन को वैक्सीन लग चुकी है। गउएं गुमडा, फोड़ा से ग्रसित हो रही हैं। इसलिए पशु पालकों को बहुत एहतियात बरतने की जरूरत है। गाय माता को आज सबसे अधिक जरूरत इस रोग से बचाने की है। आम जनमानस को इस संबंध में जागरूकता अभियान चलाकर गाय की सुरक्षा करनी चाहिए।
प्रदेश सरकार के पास पशु चिकित्सालयों में पर्याप्त स्टाफ उपलब्ध नहीं है। पशुधन को चर्म रोग से बचाने के लिए प्रदेश सरकार को तत्काल प्रभाव से अधिक फार्मासिस्ट तैनात करने चाहिए। राजधानी शिमला के चेली गांव में 22 जून को लंपी रोग का मामला सामने आया था। पशुधन को इस चर्म रोग ने बहुत बुरी तरह जकड़ रखा है जिसके चलते रोजाना पशुपालकों के कीमती मवेशी मरते जा रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में वेटरिनरी फार्मासिस्ट के सैंकड़ों पद खाली चल रहे हैं। ऐसे में दुधारू पशुओं को इस चर्म रोग से बचाया जाना बहुत जोखिम भरा है। प्रदेश सरकार पशु चिकित्सालयों में रिक्त पड़े खाली पदों को जल्द भरने की बजाय चर्म रोग से मरने वाले दुधारू पशुओं के मालिकों को तीस हजार रुपए की आर्थिक मदद किए जाने का ऐलान कर रही है। बशर्ते पशु चिकित्सक मृतक पशु के मरने का कारण लंपी रोग की पुष्टि करें। पशुपालन विभाग ने इस बाबत अधिसूचना जारी करते हुए सभी जिला उपायुक्तों को अधिकृत किया है। पशुपालक को चिकित्सक से इस रोग से मरने वाले पशु का सर्टिफिकेट लेना होगा। इसके बाद भू-राजस्व विभाग के माध्यम से पशुपालक को उक्त आर्थिक सहायता मुहैया करवाई जाएगी। बड़ी हैरानी की बात है कि जीवित दुधारू पशुओं को इस रोग से बचाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। चर्म रोग से मरने वाले पशुओं के पालकों को आर्थिक सहायता पहुंचाना सही है। उससे भी जरूरी है कि इस बीमारी से पशुओं को बचाने की पहल शुरू हो। कुछ दशक पूर्व बरसात शुरू होने से पहले ही पशु पालन विभाग के कर्मचारी पशुओं को होने वाली बीमारियों को लेकर सतर्क हो जाते थे। बरसात में अक्सर मवेशियों को गलगोटू, खरेडू, मुंह से लार टपकना और बुखार आदि कई बीमारियां जकड़ लेती थी। पशु पालन विभाग का स्टाफ पशु पालकों के घर द्वार जाकर मवेशियों को ऐसी बीमारियों से बचाने के लिए उन्हें जागरूक करते हुए मुफ्त इलाज भी करता था।
वर्तमान समय में पशु पालन विभाग के पास पर्याप्त स्टाफ का अभाव है। अधिकतर पशु पालकों को अपने बीमार पशुओं का ईलाज अपनी जेब से करवाना पड़ता है। पशु चिकित्सालयों में अब पशु पालकों के लिए पूर्व की भांति सुविधाएं नहीं मिलती हैं। सरकारों ने पशु चिकित्सालयों में पशु सहायक अनुबंध आधार पर रखे जिनका वेतनमान नाकाफी है। वेतन विसंगतियों से जूझ रहा यह स्टाफ पशु पालकों के घर बीमार पशुओं का चैकअप करने जाने से गुरेज करते हैं। अगर वे बीमार पशुओं को फील्ड में चैकअप करने जाते हैं तो इसकी एवज में पशु पालकों से मोटी फीस वसूलते हैं। ऐसे में पशु पालकों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं के मायने ही बदलकर रह जाते हैं। सरकार की तरफ से दुधारू पशुओं के लिए फीड व कीमती दवाइयां तक भेजी जाती थी। बदलते दौर में आज हालत इस कदर नाजुक बन चुके हैं कि पशु चिकित्सालयों में मवेशियों के जख्मों पर लगाने के लिए मरहम पट्टी तक नहीं मिलती है। पशु चारा के लिए गरीब पशु पालकों को बरासीन, चरी और बाजरा तक मुफ्त में दिया जाता था। यही नहीं मशीनी औजार भी सब्सिडी पर पशु पालकों को देकर उसकी मदद की जाती थी। पशु पालकों को सेमिनार में पशुपालन और उन्हें होने वाली बीमारियों बारे सजग किया जाता था। आजकल डबल इंजन सरकारें प्राकृतिक खेतीबाड़ी किए जाने के लिए किसानों व बागवानों को जागरूक करने की कोशिश कर रही हैं, मगर जिस तरह पशुधन चर्म रोग की चपेट में आया, उससे ऐसी योजनाएं क्या सिरे चढ़ पाएंगी? गांवों में पशु नहीं रहेंगे तो प्राकृतिक खेतीबाड़ी से किसानों को जोडऩे का सवाल कहां उठता है। किसानों व बागवानों की आर्थिकी में इस तरह कभी इजाफा हो पाएगा? हिमाचल प्रदेश में पशु पालन के प्रति लोगों का लगाव कम होता जा रहा है। नतीजतन ग्रामीण बाजारों का कैमिकल युक्त दूध अत्यधिक घरों में इस्तेमाल कर रहे हैं। पशु चिकित्सालयों में गाय, भैंस को गर्भधारण करने के लिए उन्हें लगाए जाने वाले टीकों की गुणवत्ता सही नहीं होती है। नतीजतन गाय, भैंस बांझ बनकर रह जाती हैं और पशु पालक उन्हें आवारा छोडऩे के लिए मजबूर हो जाते हैं। देश में गाय माता पर राजनीति हमेशा हावी रहती आई है। आज वही गाय माता इस चर्म रोग की लपेट में आ रही है। इसलिए उसकी सुरक्षा के कड़े प्रबंध होने चाहिए।
प्रदेश सरकार ने सितंबर 2012 में पांच हजार मासिक वेतन पर 878 पशु सहायक रखे थे। तीन वर्ष बाद उनका वेतनमान सात हजार रुपए किया गया। सन 2016 में 257 पशु सहायक अनुबंध आधार पर रखे गए। हैरानी इस बात की कि बाद में रखे गए पशु सहायक नियमित भी किए जा चुके हैं जो 35 हजार रुपए मासिक वेतनमान ले रहे हैं। 507 पशु सहायकों का सन् 2018 में अनुबंध किया गया, लेकिन तीन साल से अधिक समय गुजरने के बावजूद वे नियमित नहीं किए गए हैं। पशु सहायक पिछले दस वर्षों से चंद सिक्कों पर अपनी सेवाएं दिए जाने को मजबूर हैं। फसलों पर कीटनाशक स्प्रे, दवाइयां आंखें बंद करके छिडक़ाव किए जा रहे हैं, इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि बरसात में जहरीली घास खाने की वजह से पशुओं में यह रोग उत्पन्न हुआ हो। सरकारें प्रदेश में सघन दुग्ध क्रांति लाने के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करने की बात कहती हैं, इसके बावजूद अभी तक सफल नहीं हो पाई हैं। मिल्क प्लांटों की मरम्मत किए जाने के नाम पर सरकारों ने करोड़ों रुपए आंखें बंद करके खर्च किए हैं। पशु पालकों को दूध का सही दाम न मिलने की वजह से आज दूध प्लांट खंडहर बनकर रह गए हैं। पशु पालकों की सुविधाओं के लिए मेलों का आयोजन भी किया जाता था। पशु पालक ऐसे मेलों में अपने मवेशी बेचने के लिए लेकर आते थे और पशु पालन विभाग के अधिकारी उन्हें कई तरह के लाभ पहुंचाते थे। आज गाय माता भयंकर परिस्थितियों से जूझ रही है तो कोई उसके इलाज के लिए सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।
सुखदेव सिंह
लेखक नूरपुर से हैं
By: divyahimachal
Rani Sahu
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