सम्पादकीय

जाति आधारित आकांक्षाओं ने जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को दिया झटका

Gulabi Jagat
24 March 2022 8:06 AM GMT
जाति आधारित आकांक्षाओं ने जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को दिया झटका
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राजनीति समाज को बदलती है तो समाज भी राजनीति को बदलता है
बद्री नारायण। राजनीति समाज को बदलती है तो समाज भी राजनीति को बदलता है। इसीलिए समाज एवं राजनीति के रूप में परिवर्तन होता रहता है। पुरानी अवधारणाएं टूटती हैं और नए बनती हैं। जनतांत्रिक राजनीति ने भारतीय समाज में आकांक्षाओं की अनंत लहरें पैदा की हैं। जिन सामाजिक समूहों में पहले सपने देखने और उन्हें व्यक्त करने की क्षमता नहीं विकसित हो पाई थी, उनमें अब ऐसा होने लगा है। ऐसे ही समूहों को विकासपरक राजनीति की भाषा में आकांक्षी यानी एस्पिरेंट समूह कहा जाता है। इसीलिए नीति, नियोजन एवं प्रशासन की भाषा में यह शब्द बार-बार प्रयुक्त होने लगा है।
हाशिये पर बसे समुदायों में अपनी आकांक्षा की अभिव्यक्ति उनमें बढ़ती आत्मशक्ति का प्रतीक है। इसी के बल पर ये समूह जनतंत्र में अपनी हिस्सेदारी के लिए सत्ता पर दबाव बनाते हैं। वैसे तो यह प्रक्रिया कल्याणकारी एवं विकासपरक राजनीति के ही कारण विभिन्न समाजों में विकसित हुई है, किंतु अब वह अपनी शक्ति के प्रभाव से जनतंत्र के ऊपरी तल पर अवस्थित जनतांत्रिक ढांचों को प्रभावित करने लगी है। समय के साथ जनतांत्रिक आत्मशक्ति निचले तलों पर अवस्थित सामाजिक समूहों में लगातार विकसित होती जा रही है। आकांक्षी समूहों की राजनीतिक चेतना ने अस्मिता की राजनीति के ढांचे को हिला दिया है। इसने जाति एवं अनेक सामाजिक अस्मिताओं को थोड़ी देर के लिए ही सही, पीछे धकेल दिया है। हालांकि जाति अभी भी जनतांत्रिक गोलबंदी की राजनीति के प्रभावी अस्त्र के रूप में कारगर है, किंतु जाति आधारित आकांक्षाओं ने एक वर्ग जैसा स्वरूप भी गढ़ना शुरू किया है।
इसने जनतांत्रिक राजनीति एवं सामाजिक गतिशीलता के स्तर पर दो काम किए हैं-पहला, जातियों से परे विकास की चाह से संचालित होने वालों का एक बड़ा समूह तैयार किया है। दूसरा, जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को एक बड़ा झटका दिया है। हाशिये के समूहों में यह चेतना भी फैली है कि जो दल उनकी विकासपरक आकांक्षाओं एवं दैनिक जीवन की समस्याओं के निदान में सहायक होगा, वही उनका अपना होगा। इस नए जनतांत्रिक परिवर्तन ने भारतीय शासन, प्रशासन एवं राजनीति को भी प्रभावित किया है।
वैसे तो हर दल एक लाभार्थी समूह विकसित करता है, किंतु भाजपा की डबल इंजन सरकारों ने केंद्र एवं राज्यों की विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से दलितों एवं हाशिये पर बसे सामाजिक समूहों को जोड़कर लाभार्थियों का एक बड़ा समूह तैयार किया है। भाजपा ने अपने राजनीतिक कार्यक्रमों से इन समूहों को एक ऐसे समुदाय में तब्दील कर दिया है, जिनमें आकांक्षी चेतना विकासमान रहती है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हें विकास योद्धा का नाम दिया। भाजपा ने एक ऐसी राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी है, जिसके कारण दलित, गरीब एवं उपेक्षित तबकों का एक बड़ा वोट बसपा जैसे दलित सशक्तीकरण की राजनीति करने वाले दल से छिटक कर उसकी तरफ जा रहा है। इसे मैं एक नई अस्मिता के उभार के रूप में देखता रहा हूं। यह अस्थायी होती है और बनती-बिगड़ती भी रहती है, पर यह प्रभावी होती है। इसे स्थायी बनाए रखना राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेद्र प्रधान ने चुनाव प्रचार की शुरुआत में ही गरीब कल्याण को एक बड़े वृत्तांत के रूप में प्रस्तुत किया था। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने जब अपना चुनाव प्रचार प्रारंभ किया तो उनका जोर गरीब कल्याण एवं विकास योद्धाओं पर रहा। गरीब कल्याण के कार्यक्रमों को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी एक महत्वपूर्ण विमर्श के रूप में रखा। इस प्रकार दलित एवं हाशिये के समूहों का राजनीतिक पक्ष तय करने में जातीय अस्मितापरक विमर्श से ज्यादा बड़ी भूमिका विकास की चाहत की रही।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपने सेवाकार्यो के माध्यम से हाशिये के समूहों के एक भाग में हिंदुत्व की चेतना को प्रखर किया है। इस चेतना ने पिछड़े वर्गो एवं दलित जातियों में जातीय अस्मिता की चेतना के आक्रामक उभार को काफी कुछ संतुलित एवं अनुकूलित करने का काम किया है। संघ एवं उससे प्रभावित अनेक संगठन हाशिये के समाजों में कई दशकों से सेवा कार्य करते आ रहे हैं। संघ परिवार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सृजन के अनेक कार्यक्रम हाशिये के समाजों के बीच संचालित करता है। विद्या भारती संचालित स्कूल दलितों एवं हाशिये के समाजों में शिक्षा प्रसार के माध्यम से पहुंच रहे हैं। इसी प्रकार वनवासी कल्याण आश्रम शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्वावलंबन के कार्यो के जरिये जनजातीय समूहों के बीच हिंदुत्व की चेतना जगा रहा है।
हमारे महानगरीय बुद्धिजीवी अपने चश्मे से हाशिये के समूहों को देखने के क्रम में प्राय: यह तथ्य भूल जाते हैं कि उनकी जरूरतें भिन्न होती हैं। ऐसे बुद्धिजीवी उनके भीतर अपने जैसे एक 'क्रांतिकारी' की खोज में लगे रहते हैं। वे यह नहीं भांप पाते कि कैसे धीरे-धीरे उनकी जीवन स्थितियां उनकी मनोदशा में परिवर्तन ला रही हैं। वे यह भी नहीं देख पाते कि पारंपरिक अस्मिताओं के साथ उनके संबंध कैसे बन-बिगड़ रहे हैं? ऐसे में वे उनकी राजनीतिक चाहत में आए परिवर्तन को या तो देख नहीं पाते या फिर देखते भी हैं तो समझ नहीं पाते और समझते भी हैं तो उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते।
(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)
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