सम्पादकीय

बेपरवाह राजनीति तथा भयावह होती अर्थव्यवस्था

Rani Sahu
16 Oct 2022 10:07 AM GMT
बेपरवाह राजनीति तथा भयावह होती अर्थव्यवस्था
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by Lagatar News
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद कमजोर होती जा रही है. वैश्विक आर्थिक संस्थाओं ने भारत की संभावित जीडीपी को लेकर जो अनुमान व्यक्त किए थे, उनमें भी कटौती कर दी है. चुनाव विशेषज्ञ बता रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक बुनियाद पिछले वर्षों के मुकाबले और अधिक मजबूत हुई है, जबकि उसकी आर्थिक बुनियाद तो बेहद मजबूत हो गई है. आर्थिक विशेषज्ञ बता रहे हैं कि भारत में सर्विस सेक्टर फैलने की जगह सिकुड़ने के खतरे से दो चार है और आर्थिक मंदी की आशंकाओं के मद्देनजर बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां छूटने वाली हैं. इधर, भाजपा के सदस्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. लोगों को नौकरियां बहुत कम मिल रही हैं, जबकि भाजपा की सदस्यता लगे हाथ मिल जा रही है. मोदी जी के 'विजन' से अब तो ऐसा है कि एक मिस्ड कॉल दो, भाजपा की सदस्यता आपके द्वार तक पहुंच जाएगी. ऐसे ही वह थोड़े ही दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. जब सर्विस सेक्टर फैलने की जगह सिकुड़ने के खतरे से जूझ रहा हो और नौकरियां खत्म होने की आशंका से बाजार आक्रांत हों तो नए रोजगारों के सृजन की बात ही क्या करनी.
रिपोर्ट्स बताते हैं कि भारत में गुणवत्ता हीन शिक्षा लेकर डिग्रीधारियों की जो फौज अकुशल मजदूर की शक्ल में रोजगार के बाजार में आ रही है, वह रोजगार प्रदाताओं के किसी काम की साबित नहीं हो रही है, सिवाय बोझा ढोने और एक डंडा लेकर सिक्युरिटी गार्ड बनने के. कंपनियों का रोना है कि जो थोड़े बहुत रोजगार हैं भी, उनके लायक लोग उन्हें नहीं मिल पा रहे. 2014 में चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार की देश भर में "कौशल विकास केंद्रों" को स्थापित कर युवाओं को बड़े पैमाने पर कौशल युक्त बनाने की योजना असफल होकर जमीन सूंघ रही है. आज कल मोदी खुद या उनके कोई सिपहसालार किसी भी राजनीतिक रैली में कौशल विकास केंद्रों की बातें करते सुनाई नहीं देते.
वे तो रोजगार की बातें भी नहीं करते, यहां तक कि अपने भाषणों में 'रोजगार' शब्द का उच्चारण करने से भी बचते हैं. बोलने के लिये शब्दों की कमी थोड़े ही है. एक से एक शब्द हैं, जिनके सतत उच्चारण से तालियां भी मिलती हैं, जयजयकार भी मिलता है. जैसे…राष्ट्र, पाकिस्तान, घुस कर मारा, औकात बता दिया, जय श्रीराम, वंदे मातरम, हिंदुत्व, मां भारती, तीन सौ सत्तर आदि. बीच-बीच में परिवारवाद, भ्रष्टाचार, दुनिया लोहा मानने लगी है आदि कुछ शब्द भी अनिवार्य रूप से उच्चरित होते हैं. अर्थशास्त्रियों का कहना था कि भारत के बाजार को अगर उत्पादन, क्रय शक्ति और रोजगार का सामंजस्य बिठाना है तो देश में औसतन दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष सृजित करनी होंगी. अर्थशास्त्रियों के इसी कथन को भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक ने लपक लिया और नरेंद्र मोदी अपने पहले राष्ट्रीय चुनावी अभियान में दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष देने का वादा करते देश भर में घूमने लगे.
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देश आर्थिक रूप से कमजोर होता गया, जबकि भारतीय जनता पार्टी आर्थिक रूप से मजबूत होती गई. रिपोर्ट्स बताने लगे कि राजनीतिक फंडिंग, थोड़े साफ शब्दों में कहें तो कॉरपोरेट की राजनीतिक फंडिंग का अधिकतम हिस्सा भाजपा की झोली में जाता रहा और सितम यह… कि देश के लोग यह सवाल भी नहीं पूछ सकते कि किस कॉरपोरेट घराने ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना फंड दिया. गडकरी और होसबोले की बातों के मर्म को समझें तो समझ बनती है कि देश के आर्थिक विकास के अधिकतम लाभ ऊपर के ही कुछ लोगों की जेब में जाते रहे हैं. ये बड़े लाभार्थी कौन हैं? देश के आर्थिक निर्णयों में उनकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका कैसी है.
क्या यह ऐसी है कि… सर जी, आपलोग मंदिर-मस्जिद, कश्मीर-पाकिस्तान करो, राष्ट्र आराधन की प्रेरणा बांटो, तिरंगा यात्रा आदि करो-करवाओ, लोगों को जम कर भरमाओ, विश्व गुरु, विश्व नेता, विश्व शक्ति आदि के सपने दिखाओ…बात रही रुपए पैसे के हिसाब की…तो टेंशन मत लो, हम हैं न, हमारे गुर्गे आपके सलाहकार बनकर आपका सारा बोझ अपने माथे पर ले लेंगे, वे नीतियां बताएंगे, आप निर्णय की घोषणा करना. आप राज करो, करते रहो, हम देश के संसाधनों पर कब्जा करते रहेंगे, करते जाएंगे. आप भी खुश, हम भी खुश. नई सदी में दुनिया के बहुत सारे देशों में "नेशन फर्स्ट" टाइप की राष्ट्रवादी नारेबाजी करती पार्टियों का बोलबाला बढ़ा है. यूरोप के आधे दर्जन से अधिक देश इस राजनीतिक फेनोमिना से रूबरू हैं.
Rani Sahu

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