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एक ही समय पर दो दृश्य और दोनों में जमीन और आसमान जैसा अंतर
शिरीष खरे
एक ही समय पर दो दृश्य और दोनों में जमीन और आसमान जैसा अंतर. पिछली 31 मार्च को बिहार की दसवीं परीक्षा में रामायणी रॉय नाम की एक लड़की ने टॉप किया तो सब खुश तो हुए, लेकिन इस हद तक हैरानी भी नहीं हुई, क्योंकि भारत के कई राज्यों से इस प्रकार के नतीजे अब चौंकाते नहीं हैं, जहां परीक्षा परिणामों में अक्सर लड़कियां लड़कों से बेहतर प्रदर्शन करती हैं और यह एक तरह से सामान्य बात हो गई है.
वहीं, ठीक इसी समय लड़कियों के लिए स्कूल बंद होने की खबर मिले तो हैरानी होती है कि कौन देश है, जो वर्ष 2022 में मध्य युग में लौटने के लिए फरमान जारी कर रहा है. लेकिन, जब पटना में सभी एक लड़की के टॉपर बनने पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे, तब महज कुछ दिनों पहले पटना से करीब 1,850 किलोमीटर दूर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में वहां की सरकार ने लड़कियों के स्कूल जाने पर प्रतिबंध लगा दिया, वह भी अनिश्चितकाल के लिए. महज सात दिनों के भीतर एक दुनिया दूसरी दुनिया से कई सौ साल पीछे चली गई दिखती है.
"तालिबान की सरकार के नीचे एक युवा लड़की का अफगानिस्तान में रहना पहले ही असहनीय है, लेकिन अपने सपनों और भविष्य को इस तरह टूटते हुए देखना यह दिखाता है कि हम आसमान तक नहीं पहुंच सकते."
इस प्रकार के बयान पढ़कर एक बार तो यह एहसास ही नहीं होता कि कोई सोलह साल की लड़की ऐसे भी बात कर सकती है, इस सीमा तक परिपक्व, लेकिन निराशाजनक और हताशा से भरी हुई. मगर, बात जब अफगान की बेटी की हो, तो लगता है वह इन दिनों जिस दर्द से होकर गुजर रही है, सब संभव है. अतेफा को यदि पढ़ने दिया जाता तो वह दसवीं की क्लास में बैठती. लेकिन, पूरी अफगानिस्तान की बेटियों को ही वहां की सरकार ने मिडिल स्कूलों में जाने से रोक दिया है. स्कूली शिक्षा अब उनके लिए नहीं रही है
सहर फेतरत, जो कि मूलतः अफगानिस्तान की हैं और लंदन स्थित रिसर्चर हैं, मानवाधिकार पर कार्य करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के लिए तैयार की गई अपनी ताजा रिपोर्ट में अतेफा और दूसरी कई लड़कियों के अनुभवों को साझा करती हैं. वे बताती हैं कि पिछली 23 मार्च अफगान की तमाम लड़कियों के लिए एक रोमांचक नई शुरुआत हो सकती थी, लेकिन ऐसा होने की बजाय यह तारीख गहरी हताशा में दर्ज हो चुकी है. इसी कड़ी में एक दूसरी लड़की अपना शोक व्यक्त करते हुए कहती है,
"मैं 22 मार्च की रात अपनी आंखें बंद नहीं कर सकी, मुझे चिंता भी थी और एक उम्मीद भी थी कि सरकार को लड़कियों की शिक्षा की चिंता है, लेकिन जो हुआ उस पर विश्वास नहीं होता. 23 मार्च को पता चला कि स्कूल ही हमारे लिए नहीं हैं. हम नहीं जानते कि हमारे लिए यह अंधेरा कब खत्म होगा."
23 मार्च को अफगानिस्तान की सरकार ने न सिर्फ अपने देश, बल्कि दुनिया भर की स्कूली लड़कियों और उनके परिजनों को झटका देते हुए यह घोषणा की कि लड़कियों के मिडिल स्कूल तब तक बंद रहेंगे, जब तक कि नीतियां और स्कूली यूनिफार्म 'इस्लामी कानून और अफगान संस्कृति के सिद्धांतों' के मुताबिक निर्धारित नहीं हो जाते. लिहाजा, अतेफा और उसकी सहेलियों को घर भेज दिया गया. लड़कियां बताती हैं कि स्कूल से लौटते समय सभी की आंखों में आंसू थे.
ताली, निंदा और चुप्पी
वहीं, एक दूसरी मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एक लड़की जो कई महीने पहले काबुल की सड़कों पर अन्य महिलाओं और लड़कियों के साथ विरोध में शामिल हुई थी, इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा की जा रही उपेक्षा से नाराज है. पश्चिमी देश के एक पत्रकार के सामने उसका दर्द कुछ इस प्रकार झलका: "जब हमने विरोध किया तब संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने ताली बजाई. जब नई सरकार ने हमें गालियां दीं, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने सिर्फ निंदा की. और, जब हम में से कुछ का अपहरण कर लिया गया, तो वे चुप रहे. स्कूली छात्राएं तत्काल मदद के लिए रो रही हैं, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की एजेंसियों आगे नहीं आ रही हैं.
यदि हम ताजा घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में जाएं तो लड़कियों की शिक्षा पर तालिबान के प्रतिबंध काफी हद तक वही हैं, जब उसने 1996-2001 में शासन किया था. लड़कियों के स्कूल बंद करने के बहाने बेबुनियाद हैं: लक्ष्य है लड़कियों को अनिश्चितकाल तक पढ़ने से रोकना है. वर्ष 1990 के दशक के अंत में यह वही पैटर्न है; बहाने पर बहाने, वादे पर वादे, विश्वासघात पर विश्वासघात, झूठ पर झूठ. इतने धोखे के अफगानिस्तान के भीतर से यह मांग उठ रही है कि उनकी सरकार के लिए दान दे रहे देशों को इस बारे में उससे पूछताछ करनी चाहिए. नई सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि इस प्रकार के निर्णय निरस्त किए जाएं. साथ ही, ऐसे देश इस बात पर जोर दें कि मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी रखने के गंभीर नतीजे हो सकते हैं.
एक साथ पूरे देश की लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने जैसे मुद्दे पर बाहरी दुनिया को चाहिए कि वह मिलकर अफगान लड़कियों की मदद करें, ताकि वे धरती की दूसरी लड़कियों की तरह रहने योग्य बनी रहें. यदि चाहें तो आसमान को छू सकने लायक उड़ सकें.
दो दिनों बाद ही मुकर क्यों गया
आश्चर्य की बात यह कि ऐसा तब हुआ, जब 21 मार्च को अफगानिस्तान की सरकार ने वहां सभी स्कूलों को फिर से खोलने का वादा किया, उसने मिडिल स्कूल में लड़कियों के सात महीने के प्रतिबंध को समाप्त करने की बात कहीं थी. पर, महज दो दिन बाद जब कई लड़कियां स्कूल के नये सत्र के पहले दिन में हाजिर रहने की तैयारी कर रही थीं, वहां की सरकार अपने ही निर्णय से पलट गई, यह घोषणा करते हुए कि लड़कियों के लिए मिडिल स्कूल बंद रहेंगे, अनिश्चित काल तक के लिए
अफगानिस्तान के इस अमानवीय दौर का बुरा असर वहां की अर्थव्यवस्था पर पड़ने के कारण दिन-ब-दिन स्थितियां जटिल ही होती जा रही हैं. 31 मार्च को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय दाता सम्मेलन में इसके नकारात्मक परिणाम हासिल हुए. इस सम्मेलन में अफगानिस्तान को दुनिया की दाता सरकारों से 4.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाना था. लेकिन, संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य दाता सरकारों ने गैर-मानवीय समर्थन काट दिया है और अफगान केंद्रीय बैंक की साख को रद्द कर दिया है. नतीजा, अर्थव्यवस्था काम नहीं कर सकती, लोग काम नहीं कर सकते और अधिकांश परिवार अपना पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 95 प्रतिशत अफगान परिवार अब भुखमरी की कगार तक पहुंच गए हैं.
इधर, मिडिल स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियों पर प्रतिबंध लगाकर अफगानिस्तान की सरकार ने मानो दुनिया की दान सरकारों को यह संदेश दिया है कि वित्तीय मदद के बदले वह अपनी सांस्कृतिक नीतियों के साथ समझौता नहीं करेगा. दरअसल, दानदाता सरकारों को यह उम्मीद थी कि अफगान लड़कियों के लिए मिडिल स्कूलों को खोलना सुधार की दिशा में सरकार का एक महत्त्वपूर्ण संकेत हो सकता है. लेकिन, हुआ इसके ठीक उलट और वहां की सरकार का इस तरह अचानक मुकरना यह दिखाता है देश भूख से क्यों न मर जाएं, लेकिन वे रहेंगे अपनी जिद्द पर ही.
बिना शिक्षिकाओं का वाला देश
अफगानिस्तान की नई सरकार की नियम है कि केवल महिलाएं ही महिला छात्रों को पढ़ा सकती हैं और केवल पुरुष ही पुरुष छात्रों को पढ़ा सकते हैं. अफगानिस्तान पहले से ही शिक्षिकाओं की भारी कमी का सामना कर रहा है, कुछ अंचलों में एक भी शिक्षिका नहीं है. कई शिक्षिकाएं देश छोड़कर भाग गईं और कई ने डर तो कई ने वेतन न मिलने के कारण अपनी नौकरी छोड़ दी.
वहां की सरकार ने महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा का संरक्षण करने के लिए स्थापित संस्थाओं, प्रणालियों और सेवाओं को लगभग नष्ट कर दिया है, जिसमें आश्रय, और अदालतें शामिल हैं. स्थिति यह है कि वहां महिला मामलों का मंत्रालय ही समाप्त कर दिया गया है, जिसने कभी अपने प्रांतीय कार्यालयों सहित हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं और लड़कियों की सहायता की.
तालिबान के सत्ता अधिग्रहण से पहले, अफगानिस्तान में सरकार के बजट का लगभग 75 प्रतिशत और शिक्षा व्यय का 49 प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय दानदाताओं से आता था. इसका अच्छा असर लड़कियों की शिक्षा के तौर पर भी देखने को मिलता था. लेकिन, नई सरकार स्थापित होने के बाद विदेशों से वित्तीय मदद मिलनी लगभग बंद हो गई है. इससे वहां न सिर्फ लड़कियों, बल्कि लड़कों की शिक्षा पर भी ग्रहण लगता दिख रहा है.
Rani Sahu
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