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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
By वेद प्रताप वैदिक
देश के सर्वोच्च न्यायालय में नफरती भाषणों के खिलाफ कई याचिकाओं पर आजकल बहस चल रही है. उन याचिकाओं में मांग की गई है कि मजहबी लोग, नेताओं और टीवी पर बहसियों के बीच जो लोग घृणा फैलानेवाले जुमले बोलते और लिखते हैं, उनके खिलाफ सरकार सख्त कानून बनाए और उन्हें सख्त सजा और जुर्माने के लिए भी मजबूर करे.
असलियत यह है कि भारत में सात कानून पहले से ऐसे बने हैं, जो नफरती भाषण और लेखन को दंडित करते हैं लेकिन नया सख्त कानून बनाने के पहले असली सवाल यह है कि आप नफरत फैलाने वाले भाषण या लेखन को नापेंगे किस मापदंड पर! आप कैसे तय करेंगे कि फलां व्यक्ति ने जो कुछ लिखा या बोला है, उससे नफरत फैल सकती है या नहीं? किसी के वैसा करने पर कोई दंगा हो जाए, हत्याएं हो जाएं, जुलूस निकल जाएं, आगजनी भड़क जाए या हड़ताल हो जाए तो क्या तभी उसकी उस हरकत को नफरती माना जाएगा?
यह मापदंड बहुत नाजुक है और उलझनभरा है. यदि कोई किसी जाति या मजहब या व्यक्ति या विचार के विरुद्ध कोई बहुत जहरीली बात कह दे और उस पर कोई दंगा न हो तो अदालत और सरकार का रवैया क्या होगा? ऐसे सख्त कानून का दुष्परिणाम यह भी हो सकता है कि कई मुद्दों पर खुली बहस ही बंद हो जाए. यदि ऐसा हुआ तो यह नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन तो होगा ही, देश में पाखंड, अंधविश्वास और धूर्तता की भी अति हो जाएगी.
भारत में हजारों वर्षों से शास्त्रार्थ की खुली परंपरा चलती रही है, जिसका अभाव हम यूरोप और अरब जगत में सदा से देखते आ रहे हैं. बोली का जवाब गोली से देना कहां तक उचित है? जो बोली के जवाब में गोली चलाए, उसको सजा जरूर मिलनी चाहिए लेकिन यदि अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लग जाएगा तो भारत, भारत नहीं रह जाएगा.
यदि बोली के जवाब में नागरिक गोली न चलाएं तो सरकार भी अपना गोला क्यों चलाए? गोली और गोला बोली के विरुद्ध नहीं, दंगाइयों के विरुद्ध चलने चाहिए. जो नफरती या घृणास्पद भाषण या लेखन करते हैं, वे अपनी इज्जत खुद गिरा लेते हैं.
Rani Sahu
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