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सम्पादकीय
दंगा आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाना : एक छज्जे का टूटना, सिर फूटने और सीने में गोली लगने से ज्यादा तकलीफदेह नहीं होता
Gulabi Jagat
17 April 2022 8:04 AM GMT
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दंगा आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाना
बिपुल पांडे |
मध्यप्रदेश के खरगोन (Khargone) में प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान ( SHIVRAJ SINGH CHAUHAN) सरकार ने दंगा आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलवा दिया. आरोपी इसलिए, क्योंकि दोष साबित ना होने तक उन्हें दंगाई नहीं कहा जा सकता. अब डिबेट इस बात पर हो रही है कि बिना कोर्ट के फैसले के किसी आरोपी के घर पर प्रशासन बुलडोजर (Bulldozer) कैसे चला सकता है? क्योंकि देश की शासन व्यवस्था कहती है कि उचित ये है कि खरगौन दंगे की फाइल को मध्यप्रदेश की सरकार न्यायालय में ले जाए. दंगा करने के आरोपों को सबूतों से सिद्ध करे. आरोप सिद्ध होने के बाद न्यायालय से दंगाइयों को दंड मिले. और ऐसा दंड मिले कि देश का कोई भी दूसरा नागरिक दंगा करने का साहस ना कर सके. किंतु ये आदर्श स्थिति है, व्यावहारिक नहीं.
अगर न्यायालय के फैसलों से दंगा रोकना व्यावहारिक होता तो आज तक दंगाई दहशत से भर चुके होते, जगह-जगह दंगे ना हो रहे होते. न्यायालय को इस सच को स्वीकार करना चाहिए कि वह त्वरित न्याय देने में सक्षम नहीं है. यहां तक कि फास्ट ट्रैक कोर्ट भी फास्ट नहीं हैं. न्यायालय से न्याय निकलने में अत्यधिक विलंब होता है और इतना विलंब होता है कि न्याय भी अन्याय बन जाता है. इसलिए धाराओं में उलझने की जगह, प्रशासन को ही त्वरित दंड देने का अधिकार होना चाहिए. खास तौर पर दंगे जैसे संवेदनशील विषयों पर 'बुलडोजर' से भी सख्त कार्रवाई का सरकारी प्रावधान होना चाहिए. क्योंकि एक छज्जा का टूटना, सिर फूटने और सीने में गोली लगने से ज्यादा तकलीफदेह नहीं होता.
दरअसल, बीजेपी शासित प्रदेशों में बुलडोजर चलाने का ये एक नया चलन है. जो तेज होता जा रहा है. उत्तर प्रदेश से असम तक फैलता जा रहा है. हम इस कार्रवाई को पार्टियों के चश्मे से तो देखते हैं, बीजेपी शासित प्रदेशों के ध्रुवीकरण की मंशा को तो भांप लेते हैं. जबकि ये एक विशुद्ध प्रशासनिक समस्या है, जिसे खरगोन दंगे से समझते हैं.
रामनवमी पर दंगा करने का दुस्साहस कहां से आया?
रामनवमी के दिन चंद मिनटों में मध्यप्रदेश का खरगोन सुलग उठा. बताया जा रहा है कि उस दिन यहां पर रामनवमी का जुलूस निकला था. जिस जुलूस पर पथराव हुआ और इसके बाद दंगा भड़क उठा. दंगाई पूरे शहर को रौंदते रहे. गाड़ियां जलाई गईं, घर जलाए गए. दंगाइयों की भीड़ शीतला माता मंदिर तक पहुंची और मंदिर से लेकर हिंदुओं के घरों तक को निशाना बनाया गया. पूरे शहर में रविवार को रात तीन बजे तक दंगा होता रहा. गोली लगने से खरगौन के एसपी सिद्धार्थ चौधरी के अलावा 20 पुलिसकर्मी घायल हो गए. दंगे के अगले दिन यानी सोमवार को दंगा आरोपियों के मकानों को तोड़ने की कार्रवाई शुरू हुई. इसी के बाद प्रश्न उठा कि प्रशासन ने किस कानूनी प्रक्रिया के तहत हिंसा आरोपियों के करीब 45 घरों और दुकानों को बुलडोजर से गिरा दिए. क्योंकि वो सिर्फ आरोपी थे, उनपर दोष सिद्ध नहीं हुआ था. प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इसका जवाब दिया और कहा कि- 'जिन्हें कैमरे में पत्थर मारते देखा गया था, उनकी पहचान की गई है और फिर उनके घर पर बुलडोजर चलाया गया है. सारी प्रक्रिया का पालन किया गया है.'
दंगे के चार दिन बाद इसका वीडियो भी आया. जिसमें नकाबपोश दंगाई शीतला माता मंदिर की ओर बढ़ते दिखे. मंदिर के पास रहने वाले त्रिलोक जाधव और धन्नालाल के घरों को निशाना बनाते दिखे. इन दंगाइयों को रोकने के लिए वहां सिर्फ एक पुलिसवाला था. जो ये सबकुछ रोक पाने में असहाय था. प्रशन ये है कि ऐसे जघन्य अपराधों को कोर्ट में ले जाकर दशकों बाद दंड क्यों दिलाई जानी चाहिए? ये सिद्ध करने की जरूरत क्यों है कि कैमरे में जो दंगाई कैद हुए हैं, वो कैमरा फर्जी वीडियो नहीं बना रहा था. या फिर ये सिद्ध करने की जरूरत क्यों है कि जिस एसपी को गोली लगी, उसने गलती से खुद को ही गोली नहीं मार ली थी बल्कि दंगाइयों ने मारी थी. आखिर एक दंगाई सिर्फ न्याय के मंदिर में ही दंगाई क्यों साबित हो सकता है. प्रशासन उसकी पहचान करके कार्रवाई क्यों नहीं कर सकता?
क्या किसी को 'रामनवमी' के उत्सव को नापसंद करने का अधिकार है?
प्रशासन के मुताबिक खरगोन दंगे में एक करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति के नुकसान का अनुमान है. इस दंगे में 66 मकानों, 10 दुकानों और 27 वाहनों को जलाया गया. इसके बाद दंगा आरोपियों के घरों और दुकानों पर बुलडोजर चलाया गया. इसके बाद दोनों ही पक्षों के लोगों ने सोशल मीडिया पर जमकर भड़ास निकाली. एक यूजर ने लिखा कि सालों लग जाते हैं एक घर बनाने में, इन्हें शर्म तक नहीं आती बुलडोजर चलाने में. एक अन्य यूजर ने लिखा कि आरोपियों को सजा देने का काम भी सरकार कब से करने लगी? एक यूजर ने लिखा कि हिंसा दोनों तरफ से हुई पर भाजपा सरकार में सजा एक धर्म विशेष को मिलेगी। तो वहीं एक यूजर ने लिखा कि- 'हम रोज अजान सुनते हैं, तुम एक दिन जय श्रीराम नहीं सुन सकते?'
इस घटना पर नेताओं के बीच भी तर्क वितर्क हुए.
प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा- 'सिर्फ हमारे त्योहारों के दौरान ही हिंसा क्यों की जाती है? रामनवमी साल में एक बार आती है, लेकिन इस दिन देश भर में 12 जगहों पर दंगा हो गया. जेएनयू में मांसाहार के लिए बवाल हो गया.' कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया- 'मामू (शिवराज सिंह चौहान) का बुलडोजर बलात्कार करने वालों पर और बलात्कारियों को सहयोग देने वालों पर नहीं चलता. केवल शक्ल देखकर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं.' दंगा राजस्थान में भी हुआ और वहां के सीएम अशोक गहलौत ने कहा कि- 'क्या राजस्थान सरकार करौली मामले में अरेस्ट हुए लोगों के घरों पर जाकर केवल इस आधार पर बुलडोजर चला दे कि वे अरेस्ट हो गए हैं. मकानों को ध्वस्त करने से उन पर क्या बीत रही होगी? मैं रात को टीवी पर देख रहा था, वे गरीब लोग थे, रो रहे थे. यह अधिकार किसी को नहीं हैं.'
सच सिर्फ ये है कि ये एक सीरियस क्राइम केस है. रामनवमी के दिन देश के 10 राज्यों में दंगे हुए, जिन्हें प्रशासन को नहीं होने देना चाहिए था. जिन 10 राज्यों में हिंसा, पथराव और आगजनी की घटनाएं हुईं, वो राज्य दिल्ली, मध्य प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, गोवा, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ हैं. नोट करने वाली बात ये है कि जिस उत्तर प्रदेश का बुलडोजर प्रतीक बन चुका है, वहां रामनवमी पर एक जगह भी दंगा नहीं हुआ. क्या ये बुलडोजर का असर है?
कब चलता है बुलडोजर और क्या है नियम?
त्वरित दंड का पहला प्रयोग उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुरू किया था. एक शख्त शासन का संदेश देने के लिए अपराधियों और उपद्रवियों के घरों पर बुलडोजर चलाने की शुरुआत की गई. ऐसे में अब ये समझते हैं कि बुलडोजर चलाने का नियम क्या है? यूपी पुलिस के एडीजी लॉ एंड ऑर्डर प्रशांत कुमार के अनुसार कानूनी तौर पर बुलडोजर दो परिस्थितियों में चलता है. पहला- जब कोई व्यक्ति किसी सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर ले और उस पर अपना निर्माण करा ले. इस स्थिति में जमीन को कब्जा मुक्त कराने के लिए अवैध निर्माण को गिराया जाता है.इसके लिए बाकायदा लेखपाल, कानूनगो, एसडीएम, तहसीलदार से लेकर जिला प्रशासन तक रिपोर्ट जाती है. स्थानीय पुलिस बल को तैनात किया जाता है और बुलडोजर से निर्माण को गिराया जाता है. दूसरा- जब अपराध करने के बाद अपराधी लगातार भाग रहा हो. तब प्रशासन उसकी अपराध से कमाई संपत्ति पर कुर्की का आदेश लेता है और बुलडोजर चलाने की कार्रवाई की जाती है. इसके लिए जरूरी है कि वो संपत्ति अपराध की कमाई से बनाई गई हो.
उत्तर प्रदेश अर्बन प्लानिंग एंड डेवलपमेंट एक्ट 1973 में बुलडोजर से संपत्ति ढहाने का प्रावधान किया गया है. एक्ट के मुताबिक, अगर संपत्ति गिराने का अंतिम आदेश जारी हो चुका है, तो प्रशासन को अधिकतम 40 दिनों के अंदर संपत्ति को गिराना होता है. एक्ट ये भी कहता है कि संपत्ति गिराने का आदेश उस संपत्ति के मालिक को अपना पक्ष रखने का एक अच्छा मौका दिए बिना जारी नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं, आदेश जारी होने के 30 दिन के अंदर संपत्ति का मालिक आदेश के खिलाफ चेयरमैन से अपील भी कर सकता है. चेयरमैन उस अपील पर सुनवाई के बाद आदेश को संशोधित कर सकता है या फिर उसे रद्द भी कर सकता है. एक्ट में ये भी लिखा है कि चेयरमैन का फैसला ही अंतिम होगा और उसे किसी अदालत में चैलेंज नहीं किया जा सकेगा. इसी कानून को उत्तर प्रदेश की सरकार ने हथियार बनाया. क्राइम और उन्माद को कंट्रोल किया.
कोर्ट की कार्यवाही दंगाइयों का मनोबल तोड़ने में कारगर क्यों नहीं होती?
दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में सीएए के खिलाफ़ शुरू हुए प्रदर्शनों का अंत दंगों की शक्ल में हुआ. 23 फरवरी से 26 फरवरी 2020 के बीच हुए दंगों में 53 लोगों की मौत हो गई. 13 जुलाई को हाईकोर्ट में दायर दिल्ली पुलिस के हलफनामे के मुताबिक, इस दंगे में मारे गए लोगों में से 40 मुसलमान और 13 हिंदू थे. इस केस में दिल्ली पुलिस ने दंगों से जुड़ी कुल 751 एफआईआर दर्ज की. कोर्ट में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल और क्राइम ब्रांच ने दलील दी कि दिल्ली दंगों के पीछे एक गहरी साजिश थी. ये दंगे उस समय किए गए, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर थे. चार्जशीट कहती है कि जामिया कोऑर्डिनेशन कमेटी (जेसीसी), पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई), पिंजरा तोड़, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट से जुड़े लोगों ने साजिश के तहत दिल्ली में दंगे कराए. एफआईआर में उन तमाम छात्र नेताओं के नाम शामिल हैं जो दिल्ली में सीएए के खिलाफ प्रदर्शनों में प्रमुख चेहरा रहे. एफआईआर-59 के आधार पर अब तक 22 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. जिनमें से चार जमानत पर हैं, बाकी 18 न्यायिक हिरासत में हैं. किसे कब तक क्या सजा मिलेगी, ये कोई नहीं जानता. इतना ही नहीं, तमाम सक्रियता दिखाने के बावजूद शाहीन बाग आंदोलन को कोर्ट खत्म नहीं करा सकी. महीनों-महीनों तक जनता कष्ट झेलती रही, लेकिन वो आंदोलन अपने वक्त पर ही खत्म हुआ. तमाम कोशिशों के बावजूद किसानों के आंदोलन को भी कोर्ट नहीं खत्म करा सकी. यहां तक कि आंदोलन खत्म हो जाने के बाद एक कोर्ट कमेटी की ही रिपोर्ट आई कि तीन कृषि कानूनों पर सरकार सही थी, आंदोलनकारी गलत. क्या कोर्ट की ये कार्यवाही दंगाइयों या उपद्रवियों का मनोबल तोड़ सकती है?
दुनिया में दंगे से निपटने के लिए क्या रणनीति अपनाई जाती है?
उदाहरण के लिए अमेरिका के कैपिटोल हिल हिंसा को लीजिए, जिसके एक साल में अमेरिकी पुलिस ने अपनी व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाया. 6 जनवरी 2021 को अमेरिका में लोकतंत्र के प्रतीक कैपिटोल हिल पर हमला हुआ था. जुलाई, 2021 में वर्जीनिया की फेयरफॉक्स काउंटी और मेरीलैंड की मॉन्टगोमरी काउंटी में पुलिस विभाग के पूर्व प्रमुख जे. थॉमस मंगर को कैपिटल हिल पुलिस का नया प्रमुख चुना गया. मंगर ने कार्यकाल संभालने के बाद कैपिटल हिल पुलिस में कई बदलाव किए. उन्होंने पहली पंक्ति के अफसरों और सिविल डिस्टरबेंस यूनिट में शामिल अफसरों के लिए दंगाइयों से निपटने के लिए नए गैजेट्स के इंतजाम किए. पुलिसकर्मियों की नेशनल गार्ड और अन्य एजेंसियों के साथ ट्रेनिंग कराई. ताकि दंगा करने वालों को तगड़ी चोट दी जा सके.
ब्रिटेन में अगर पुलिस को कोई प्रोटेस्ट रोकना है तो उसे सिर्फ सीरियस पब्लिक डिसऑर्डर और सीरियस डिसरप्शन का हवाला देना होता है. इसके आधार पर पुलिस किसी भी प्रदर्शन पर तत्काल रोक लगा सकती है. प्रदर्शन का रूट लिमिट कर सकती है, ध्वनि की सीमा तय कर सकती है और खास बात ये कि ये एक अकेले इंसान पर भी लागू हो सकता है. प्रतिबंध लग जाने के बाद अगर इकलौता व्यक्ति भी लाउडस्पीकर, बैनर लेकर प्रदर्शन करता है, तो उस पर बिना कोर्ट के गए 2500 पाउंड का जुर्माना लग सकता है. अगर कोई जुर्माना नहीं देता है तो उसपर कड़ी कार्रवाई की जा सकती है.
ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया में Unlawful Assemblies and Processions Act 1958 के तहत कार्रवाई होती है. जिसमें एक मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया है कि उसका मौखिक आदेश भी मान्य होगा. अगर मजिस्ट्रेट किसी प्रदर्शन को खत्म करने का मौखिक आदेश दे देता है, तो 15 मिनट के अंदर आदेश का पालन अनिवार्य है. इसके बाद भी प्रदर्शन जारी रखने पर एक महीने की जेल, दोबारा गलती करने पर तीन महीने की जेल हो सकती है. इतना ही नहीं, पुलिस को एक्ट में ये भी अधिकार दिया गया है कि गैर कानूनी रूप से जमा भीड़ को हटाने के लिए अगर बल प्रयोग किया जाता है, बल प्रयोग में किसी की जान जाती है तो इसके लिए उसे जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. उसपर कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.
राज्य सरकारों को 'बुलडोजरों' का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता?
जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि चंद छज्जों के टूटने की पीड़ा उतनी बड़ी नहीं है, जितनी सिर फूटने की, सीने में गोली लगने की, घर-दुकान-गाड़ी फुंक जाने की होती है. राज्य सरकारों का काम है लॉ एंड ऑर्डर कायम करना और सरकारों को पूरा अधिकार होना चाहिए कि वो देश में सांप्रदायिक आग लगाने की कोशिश कर रहे लोगों को त्वरित दंड दे. उन्हें ऐसी गहरी चोट पहुंचाए कि वो दंगा करना तो दूर, दंगा करने की सोच भी ना सकें. साथ में राज्य सरकारों को भरोसा दिलाना चाहिए कि वो अधिकारों का दुरुपयोग नहीं कर रहे. किसी की पीड़ा पर राजनीति नहीं कर रहे. बल्कि एक ईमानदार शासन लागू कर रहे हैं.
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