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छोटे-मोटे नेता नहीं हैं पार्थ चटर्जी, शिक्षक भर्ती घोटाले में फंसने से ममता बनर्जी की साख पर भी लगा बट्टा
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
एक जुझारू और टिकाऊ राजनेता के रूप में ममता बनर्जी का कोई सानी नहीं है. उन्होंने दिखाया है कि वे न केवल सत्ता पाने के लिए लंबे अरसे तक संघर्ष कर सकती हैं, बल्कि पाने के बाद भारतीय जनता पार्टी जैसी सक्षम और आक्रामक पार्टी की चुनौती को भी पराजित करने का दम उनमें है. लेकिन, उनके मंत्रिमंडल में अहम हैसियत रखने वाले वरिष्ठ मंत्री पार्थ चटर्जी की महिला सहायक अर्पिता मुखर्जी के फ्लैटों में तकरीबन सौ करोड़ रुपए की नकदी और जेवरात की बरामदगी ने उनकी साख में बट्टा लगा दिया है.
उल्लेखनीय है कि जब पहली बरामदगी हुई तो ममता ने अपने इस मंत्री को नहीं हटाया. लेकिन, जब तुरंत बाद दूसरी बरामदगी हुई तो उन्हें दागी मंत्री की बर्खास्तगी करनी पड़ी. लेकिन, अभी भी तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि अगर पार्थ चटर्जी निर्दोष निकले तो उन्हें सभी पदों पर बहाल कर दिया जाएगा. संगठन से उन्हें केवल मुअत्तिल ही किया गया है.
ये महाशय कोई छोटे-मोटे नेता नहीं हैं. वे तृणमूल के उपाध्यक्ष और महामंत्री भी रह चुके हैं. उनकी हैसियत तकरीबन उपमुख्यमंत्री की है. राजनीति की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला यह समझ सकता है कि पार्थ चटर्जी ने ये रकमें केवल अपने उपभोग के लिए जमा नहीं की होंगी. यह हो ही नहीं सकता कि यह कालाधन ऊपर से नीचे तक बंटता न हो.
कितने दु:ख की बात है कि यह रकम शिक्षकों की भर्ती में भ्रष्टाचार करके जमा की गई बताई गई है. शिक्षक कौन बनता है? वह जो डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर या व्यापारी नहीं बन पाता. ज्यादातर शिक्षक मध्यमवर्गीय परिवारों से आते हैं. जब उनसे कहा जाता होगा कि अगर नियुक्ति चाहिए तो रकम लाओ, तो वे वह धन कहां से लाते होंगे. परिवार के जेवर बेचकर, या जमीन का कोई टुकड़ा बेच कर या आफत-मुसीबत के लिए जमा की गई राशि में से.
शिक्षकों की नियुक्तियों को बेचकर देश के राजनीतिज्ञों ने बहुत पैसा कमाया है. चाहे हरियाणा हो या बिहार या कोई और प्रदेश- हर जगह शिक्षकों की नियुक्तियों का किस्सा यही है. हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति के कई कारणों में से एक यह भी है.
अखबारों में खबर छप चुकी है कि एक बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री की पत्नी ने नोट गिनने की हैवी-ड्यूटी मशीन खरीदने के लिए विदेश-यात्रा की थी. मीडिया के जानकार हलकों में चर्चा होती रही है कि एक प्रदेश की मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों और बड़े अफसरों के लिए वसूलयावी के कोटे निर्धारित करती थी. जब अपेक्षित रकम नहीं आ पाती थी तो डांट-फटकार लगाई जाती थी.
भ्रष्टाचार से जमा होने वाला यह माल इतना ज्यादा था कि उसे नियमित रूप से गिनने के लिए कई-कई नोट गिनने की मशीनें दिन-रात काम करती थीं. पत्रकारों की आपसी चर्चा में अक्सर सुनने को मिलता है कि अमुक राज्य सरकार अमुक राजनीतिक दल की 'एटीएम' है. या, अमुक मंत्री या अमुक विभाग किसी सरकार या मुख्यमंत्री का 'एटीएम' है. हालत यह है कि उस पार्टी या नेता की बदकिस्मती पर लोग अफसोस व्यक्त करते हुए देखे जाते हैं जिसके पास इस तरह का कोई 'एटीएम' नहीं है.
2014 में निर्वाचित हुई भाजपा सरकार पिछले तीस साल की ऐसी पहली सरकार थी जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त था. मोदी के दबंग व्यक्तित्व और संकल्प-शक्ति का प्रचार कुछ ऐसा किया गया था कि मानो वे आते ही अभूतपूर्व किस्म का कदम उठाएंगे. उन्होंने कहा भी था कि वे न तो खाएंगे और न ही खाने देंगे. हम कह सकते हैं कि उनके ऊपर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार करने का कोई आरोप नहीं है. लेकिन, भ्रष्टाचार को रोक पाने में ज्यादा कामयाब नहीं मिल पाई है.
उनसे पहले की सरकार पर बड़े-बड़े घोटालों के आरोप लगे थे. वर्तमान भाजपा सरकार पर वैसे आरोप तो नहीं लगे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार रोकने के लिए संस्थागत बंदोबस्त करने का जो काम करना चाहिए था, वह नहीं किया गया है. इसके लिए पिछले चालीस साल से लटके हुए प्रशासनिक सुधारों, चुनाव सुधारों, न्यायिक सुधारों और पुलिस सुधारों की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए था, लेकिन वैसा नहीं हो पाया है.
Rani Sahu
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