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बिहार में भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ राजनीति के जरिये पिछले डेढ़ दशक से दो साल छोड़ कर सत्ता में रही है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
बिहार में भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ राजनीति के जरिये पिछले डेढ़ दशक से दो साल छोड़ कर सत्ता में रही है. इसके बावजूद उसका समर्थन आधार ब्राह्मण, राजपूत, बनिया, भूमिहार और कायस्थों से आगे नहीं निकल पाया. पिछड़ों और दलितों के वोटों के लिए वह नीतीश कुमार पर निर्भर रही. नीतीश कुमार द्वारा भाजपा छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर सरकार बना लेने की घटना इसीलिए बिहार में 'राजनीतिक गेमचेंजर' बन सकती है. विधानसभा में तो शर्तिया, लेकिन लोकसभा में भी काफी-कुछ.
ध्यान रहे, बिहार उत्तर प्रदेश की प्रतिलिपि नहीं है. अगर ऐसा होता तो उप्र के यादवों में लालू यादव की पूछ होती और बिहार के यादवों में मुलायम सिंह यादव की. रामविलास पासवान उप्र के दलितों द्वारा स्वीकार कर लिए गए होते, और मायावती बिहार के दलितों द्वारा. हम जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ. कोशिशें दोनों तरफ से हुईं और जमकर हुईं. उप्र में द्विज और ऊंची जातियों की संख्यात्मक उपस्थिति चुनावी दृष्टि से बहुत शक्तिशाली है. ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, भूमिहार, कायस्थ और जाट मिलकर तकरीबन पैंतीस से चालीस फीसदी वोटों का निर्माण करते हैं.
विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह बड़ा मतदाता मंडल संगठित होकर भाजपा की राजनीति का मर्म बन जाता है. इस चालीस फीसदी को पैंतालीस या पचास फीसदी तक पहुंचाने के लिए भाजपा को थोड़े से पिछड़े और दलितों वोटों की जरूरत ही पड़ती है. लेकिन बिहार में ऐसा नहीं है. वहां इस तरह का मतदाता मंडल केवल पंद्रह फीसदी का ही है. अगर बहुत उदारता से हिसाब लगाया जाए तो भी इसे बीस फीसदी तक नहीं पहुंचाया जा सकता.
ठोस रूप से कहें तो अस्सी फीसदी वोट ऐसे हैं जो भाजपा के स्वाभाविक वोटर नहीं हैं. उनमें से भी कुछ भाजपा को मिल सकते हैं, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है. मुहावरे में कहें तो बिहार में भाजपा ब्राह्मण-बनिया या बाबू साहबों की पार्टी है. गरीब-गुरबा की नुमाइंदगी अपनी तमाम कमियों के बावजूद लालू व नीतीश ही करते हैं.
हाल ही में एक टीवी चैनल द्वारा आयोजित बातचीत में सुशील मोदी के साथ चर्चा हो रही थी. दस साल से ज्यादा तक नीतीश के साथ उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि वे हर बार जनादेश के साथ गद्दारी करते हैं. मैंने पलट कर पूछा कि जनादेश के साथ गद्दारी करने वाले इस नेता को आप लोग बार-बार मुख्यमंत्री क्यों बनाते रहे हैं? पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश को केवल 45 सीटें ही मिली थीं. भाजपा तो उनसे बहुत आगे थी. नीतीश ने खुद भी कह दिया था कि वे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते हैं. पर नरेंद्र मोदी ने स्वयं फोन करके उनसे आग्रह किया, और तब उन्होंने शपथ ली. क्योंकि प्रधानमंत्री को पता था कि लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों और दलितों-महादलितों के वोटों की जरूरत नीतीश के बिना पूरी नहीं हो पाएगी.
कहना न होगा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास नरेंद्र मोदी की हस्ती तुरुप के इक्के की तरह होगी. हो सकता है कि अति पिछड़ों और दलितों के कुछ वोट उनके प्रभाव में भाजपा के पास चले जाएं. लेकिन इसकी गारंटी नहीं है. भाजपा ने दोनों लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की मिलीजुली ताकत का सामना नहीं किया है. 2014 में नीतीश और लालू बंटे हुए थे, और 2019 में नीतीश भाजपा के साथ थे. इस बार भाजपा को पहली बार पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और महादलितों की मिलीजुली ताकत का मुकाबला करना पड़ेगा. यह लड़ाई भाजपा को भारी पड़ सकती है.
नीतीश-तेजस्वी को अगले डेढ़ साल तक सरकार इस तरह चलानी पड़ेगी कि महागठबंधन अति-दरिद्रों के बीच बदनाम न होने पाए. ये दोनों नेता दबदबे वाले समुदायों से आते हैं. नीतीश कुर्मी समुदाय के पुत्र हैं, और तेजस्वी यादव समुदाय के. दोनों के पास जमीनें हैं, लाठी हैं. अगर इन्होंने, खासकर यादवों ने, संयम रखा तो लोकसभा में ऊंची जातियों के खिलाफ कमजोर कही जाने वाली जातियां एकजुट हो सकती हैं. यह शर्त पूरा करना आसान नहीं है. लेकिन, दोनों नेताओं ने एक-दूसरे का साथ छोड़ने का खामियाजा भुगत लिया है.
नीतीश जानते हैं कि मोदी की भाजपा अटल-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है. तेजस्वी जानते हैं कि अगर इस बार सत्ता उनके हाथ से गई तो भाजपा उनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करवा ही चुकी है. पिता पहले से ही जेल में हैं, और अगर तेजस्वी को भी सलाखों के पीछे जाना पड़ा तो उनकी पार्टी पूरी तरह से बेसहारा हो जाएगी इसलिए एक-दूसरे का साथ छोड़ने से पहले ये दोनों नेता सैकड़ों बार सोचेंगे.
Rani Sahu
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