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नीतीश और केजरीवाल के रणनीतिक पैंतरे ने भाजपा को बैकफुट पर ला दिया
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
विपक्षी राजनीति की समीक्षा करते समय हमें यह भी देखना चाहिए कि हर बार और हर जगह भाजपा की विपक्ष-विरोधी राजनीतिक चालबाजियां सफल नहीं होतीं. इस सिलसिले में दो ताजे उदाहरण गौरतलब हैं. पहला उदाहरण है बिहार का, और दूसरा है दिल्ली का.
बिहार में भाजपा नीतीश कुमार का राजनीतिक जीवन खत्म कर देने की रणनीति का खेल खेल रही थी. न केवल अभी से, बल्कि पिछले विधानसभा चुनाव से ही. विधानसभा चुनाव में उसने चिराग पासवान को प्यादे की तरह इस्तेमाल करके नीतीश कुमार की सीटें कम करने की योजना को अंजाम दिया. लेकिन, इसमें वह चार फीसदी ही सफल हो पाई. नीतीश की सीटें तो कम हो गईं, लेकिन तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल ने इतना जबर्दस्त प्रदर्शन किया कि उसकी हैसियत सबसे बड़े दल की हो गई.
सरकार बनने के बाद भी भाजपा ने दोरंगी चाल खेलनी जारी रखी. वे सरकार में भी शामिल थे. उनके दो-दो उपमुख्यमंत्री बने हुए थे. लेकिन, उनके बिहारी नेता नीतीश के प्रशासन की बार-बार आलोचना करके सुशासन बाबू की उनकी हैसियत पर प्रश्नचिह्न लगाते रहे. दूसरी तरफ नीतीश ने लगातार अपने कान खड़े रखे. जैसे ही भाजपा ने नीतीश के पुराने सहयोगी पूर्व अफसर आर.सी.पी. सिंह को शीशे में उतारा, नीतीश समझ गए कि उनके खिलाफ क्या दांव खेला जाने वाला है.
दरअसल, भाजपा खुफिया तौर पर आर.सी.पी. सिंह को जनता दल (एकीकृत) के विधायक दल का नेता चुनवाने की रणनीति पर काम कर रही थी. उसके रणनीतिकारों का मानना था कि अगर वे ऐसा करने में सफल हो गए तो फिर नीतीश के हाथ में कुछ रह नहीं जाएगा. वह उनकी राजनीति का पटाक्षेप होगा. अब हम जानते हैं कि इससे पहले भाजपा यह दांव मार पाती, नीतीश ने उसे पटखनी दे दी. भाजपा एक बार भितरघात कर चुकी थी. दूसरी बार करना चाहती थी, पर नीतीश ने जोरदार चालें चलते हुए उसके इरादों पर पानी फेर दिया.
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार की साख बिगाड़ने की भाजपाई योजना को अपनी रणनीतिक कुशलता से तकरीबन मात दे दी है. उन्नीस अगस्त यानी जन्माष्टमी के दिन पड़े छापों के समय मीडिया पर चल रहे संघर्ष से तय होने लगा था कि भाजपा यह लड़ाई आसानी से नहीं जीत पाएगी. उस दिन आम आदमी पार्टी ने न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी दिल्ली के शिक्षा-मॉडल की प्रशंसात्मक खबर का अपना पक्ष रखने के लिए न केवल इस्तेमाल किया, बल्कि उलट कर उसी खबर के जरिये भाजपा पर हमला किया.
भाजपा आम आदमी पार्टी की इस रणनीति में फंस गई. उसने यह साबित करने की कोशिश की कि न्यूयॉर्क टाइम्स में खबर नहीं छपी है, बल्कि वह सामग्री विज्ञापन के रूप में छपवाई गई है. और वही सामग्री खलीज टाइम्स में भी छपी है. यानी दोनों जगहों पर विज्ञापन छपे हैं, जिन्हें आम आदमी पार्टी अपने शिक्षा-मॉडल की प्रशंसा के रूप में प्रचारित कर रही है. लेकिन, जब न्यूयॉर्क टाइम्स ने स्वयं इस बात की पुष्टि कर दी कि वह खबर विज्ञापन नहीं थी, तो इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि खलीज टाइम्स में छपी खबर भी न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ परस्पर बंदोबस्त का परिणाम थी.
इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने दूसरी रणनीति यह इस्तेमाल की कि उन्होंने भाजपा पर दिल्ली में ऑपरेशन लोटस चलाने यानी आम आदमी पार्टी के विधायक खरीद कर सरकार तोड़ने का इल्जाम लगाया. खास बात यह है कि उन्होंने केवल इल्जाम ही नहीं लगाया, बल्कि उसी तरह की सक्रिय पेशबंदी भी शुरू कर दी. विधायक दल की बैठक बुलाई गई. सुबह से ही यह इल्जाम हवा में था कि भाजपा ने उपमुख्यमंत्री को भी फोड़ने की कोशिश की है, और चालीस विधायकों को बीस-बीस करोड़ में खरीदने की कोशिश की जा रही है.
इस रणनीति का नतीजा यह निकला कि भाजपाई पूरे दिन सफाई देते रहे. दरअसल, आबकारी नीति में भ्रष्टाचार का आरोप तथ्यात्मक दृष्टि से इतना कमजोर है कि केंद्रीय एजेंसियां अभी तक सिसोदिया को जेल भेजने से संकोच कर रही हैं. बिना किसी ठोस और सिक्काबंद सबूत के एक प्रभावी उपमुख्यमंत्री को जेल में डालने से दूरगामी नुकसान ही होगा. शायद भाजपा के रणनीतिकार इस मसले पर अब भिन्न तरह से सोच रहे हैं.
कहना न होगा कि नीतीश और तेजस्वी का गठजोड़ बिखर भी सकता है. अंतत: भाजपा सिसोदिया को जेल भेजने का फैसला ले भी सकती है. अगर ऐसा हुआ तो उसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए. इन दो उदाहरणों को पेश करने का मकसद यह दिखाना है कि राजनीतिक कौशल के जरिये भाजपा के प्रभुत्व का न केवल मुकाबला किया जा सकता है, बल्कि उसे पसोपेश में भी डाला जा सकता है.
Rani Sahu
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