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- भाजपा के नए सवाल
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By: divyahimachal
हिमाचल भाजपा ने इससे पूर्व चुनाव में बहुत खोया और अब एक अध्यक्ष सुरेश कश्यप को जाना पड़ा। ठीक शिमला नगर निगम चुनाव से पहले, लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव की गणना में एक सांसद के पास प्रदेश भाजपा की बागडोर का रहना अप्रासंगिक माना गया। कई मायने में भाजपा आलाकमान ने हिमाचल को गोद ले रखा है। कई तरह की आजादियां हिमाचल में पार्टी और सरकार को मिलीं और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने अवतार में करिश्माई शक्ति देकर सींचने की कोशिश भी की, लेकिन रिवाज बदलने का संकल्प औंधे मुंह गिरा। ऐसा सवाल तब भी उठा था, जब एक साथ चार उपचुनाव हारकर भी भाजपा के मंथन से बचकर प्रदेश अध्यक्ष और तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वस्थ व एक छत्र शक्तियों के आका आंके गए थे। भाजपा की लोरियां उस वक्त अपनों को चैन की नींद सुला रही थीं, लेकिन कहीं कार्यकर्ताओं के बीच कमजोर नेतृत्व की तकलीफ का एहसास रहा होगा। राज्य भाजपा के लिए ‘हाथी का पांव’ बने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का बेशक आधिपत्य रहा है, लेकिन जमीन पर हाजिरी के लिए जो ढांचा आपेक्षित था उसे कहीं नजरअंदाज किया जाता रहा है। पिछले चुनाव में टिकटों का आबंटन और मैदान में विद्रोह की आंधियों के बीच भले ही समाधानों की खेती हुई, लेकिन पार्टी के भीतर खड़पतवार दूर नहीं हुए।
ऐसे में कश्यप का इस्तीफा अप्रत्याशित नहीं, बल्कि भाजपा की आगामी रणनीति का पैगाम और पार्टी परिवार के बीच नए समीकरण व संतुलन बनाने की शुरुआत भी है। सुरेश कश्यप के प्रस्थान के बाद नए अध्यक्ष की पारी के लिए, भाजपा अपने इतिहास व राज्य की भौगोलिक क्षमता में नए संदेश देने की कोशिश करेगी। पार्टी के मिशन रिपीट को जाहिर तौर पर कांगड़ा समेत निचले क्षेत्रों में ब्रेक लगा है। ऐसे में संभावना यह भी है कि इस बार पार्टी नेतृत्व के लिए कांगड़ा की जमीन तराशी जाए। स्वाभाविक रूप से विपिन सिंह परमार इस भूमिका में एक चेहरा हैं, जबकि इंदु गोस्वामी की राष्ट्रीय पहचान और पृष्ठभूमि पहले ही आलाकमान के मंथन में बिलौली जा चुकी है। कांगड़ा की ओर भाजपा का मोह इसलिए भी बढ़ रहा है, क्योंकि वर्तमान सत्ता ने भी इस क्षेत्र को सियासी बियाबान समझकर लटकाया हुआ है। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और मंत्रिमंडल की भूमिका में कांगड़ा को फिलहाल रिक्त कर रखा है। बेशक मुख्यमंत्री ने यह जानते-समझते हुए कांगड़ा के पक्ष में कई प्रशासनिक व बजटीय फैसले लिए हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर दूरियां पाटने या दिल जोडऩे के प्रयास अभी नहीं हुए हैं। ऐसे में भाजपा भी अपनी पिछली सत्ता से सबक लेती हुई कांगड़ा के किसी नेता को आगे कर सकती है। दूसरी ओर भाजपा के गणित बताते हैं कि अतीत में सतपाल सत्ती व डा. राजीव बिंदल के कार्यकाल में पार्टी का वजूद हमेशा सत्ता का सूत्रधार बना। ये दोनों नेता अपने-अपने फलक के महारथी बनकर, भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के रूप में नेताओं के सुर और विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों की धुरियां मिलाने में काफी हद तक सक्षम रहे हैं। यह दीगर है कि पार्टी अपने फैसलों में न तो किसी कयास की मोहताज रही है और न अपने अगले कदम का अंदाजा लगाने देती है। इसलिए संभव है कि किसी अप्रत्याशित तरीके से नए अध्यक्ष का पर्दापण हो जाए।
परंपराओं से विपरीत, जातीय व क्षेत्रीय समीकरणों से अलग ऐसा रास्ता चुना जाए जहां कोई नया या अंजान सा चेहरा हमारे सामने आ जाए। भाजपा जिन परिस्थितियों में सत्ताच्युत हुई है, उसके पीछे पिछले पांच साल के कालखंड की समीक्षा करना निहायत जरूरी है। ऐसे कई घटनाक्रम हैं जहां मंत्रियों तक की सीटें बदल गईं या प्रधानमंत्री तक को चुनाव में डटे पार्टी के एक विद्रोही नेता से फोन पर गुजारिश करनी पड़ी थी। पार्टी संगठन में चंद नेताओं का वर्चस्व किस हद तक ले डूबा, इस तथ्य को टाला नहीं जा सकता। सत्ता के नाम पर वित्तीय शक्तियों के आबंटन से कितने मंत्री अछूत हो गए या सरकार के केंद्र बिंदु में कितने नेता अपाहिज हो गए, इस पर भी तो विचार करना होगा। बेशक भाजपा ने अपने मनोबल में अभी हार नहीं मानी है और यह बजट सत्र आते-आते साबित हो गया है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस को कैसे विपक्ष से पाला पड़ा है, लेकिन भाजपा की सफल भूमिका का यह अर्थ नहीं कि पार्टी ने अपनी अंदरूनी खामियों को दुरुस्त कर लिया है। पार्टी किस तरह अपने नए अध्यक्ष को पेश करती है, उस पर निर्भर करेगा कि अगला सफर कितना संतुलित, कितना स्वतंत्र और कितना विस्फोटक होता है।
Rani Sahu
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