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सम्पादकीय
भाजपा ने सत्तारूढ़ टीएमसी को घेरते हुए कानून-व्यवस्था पर उठाया सवाल
Gulabi Jagat
23 March 2022 3:57 PM GMT
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राजनीतिक हिंसा की घटनाओं से मुंह मोड़ने के कैसे गंभीर परिणाम होते हैं
राजनीतिक हिंसा की घटनाओं से मुंह मोड़ने के कैसे गंभीर परिणाम होते हैं, इसका प्रमाण है बंगाल के बीरभूम जिले में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता की हत्या के बाद इसी दल के विरोधी समङो जाने वाले गुट के करीब दस लोगों की हत्या। यह घटना इसलिए खौफ पैदा करने वाली है, क्योंकि लोगों को जिंदा जला दिया गया। बंगाल में इस तरह की घटनाएं नई नहीं हैं। कुछ ही समय पहले एक ही दिन में दो पार्षदों की हत्या की गई थी। ये दोनों हत्याएं निकाय चुनावों के बाद हुई थीं।
इन हत्याओं ने हिंसा की उन भीषण घटनाओं की याद दिलाई थी, जो विधानसभा चुनावों के बाद हुई थीं और जिनमें तृणमूल कांग्रेस समर्थक भाजपा, वामदल और कांग्रेस के समर्थकों पर टूट पड़े थे। प्रदेश और देश को शर्मसार करने वाली इस हिंसा में न केवल दर्जनों लोग मारे गए थे, बल्कि बड़े पैमाने पर आगजनी और लूटपाट भी की गई थी। यह हिंसा इतनी भीषण थी कि तमाम लोगों को जान बचाने के लिए पड़ोसी राज्य असम पलायन करना पड़ा था।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हिंसा की इन घटनाओं का तब संज्ञान लिया था, जब देश भर में उनकी आलोचना हुई थी। तथ्य यह भी है कि उस हिंसा के दौरान बंगाल पुलिस मूकदर्शक बनी रही थी और इसी कारण कलकत्ता उच्च न्यायालय को इन घटनाओं की सीबीआइ जांच के आदेश देने पड़े थे। उच्च न्यायालय ने इन घटनाओं की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भी कराई थी, जिसने अपनी रपट में कहा था कि बंगाल में कानून का राज नहीं, सत्ता में बैठे लोगों का कानून चल रहा है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को न तो बंगाल शासन को लच्जित करने वाली मानवाधिकार आयोग की रपट रास आई और न ही उन्होंने कोई सबक सीखा। इसी का परिणाम है कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा का सिलसिला थम नहीं रहा है। इसका कारण यह है कि परिवर्तन के नारे के साथ सत्ता में आई तृणमूल कांग्रेस ने उन्हीं तौर-तरीकों को अपना लिया है, जो वाम दलों ने अपना रखे थे। बंगाल की स्थितियां न केवल कानून एवं व्यवस्था के लिए चिंताजनक हैं, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी। उचित यह होगा कि चुनाव आयोग इस राज्य में होने जा रहे उपचुनावों में केंद्रीय बल तैनात करने की मांग पर गंभीरता से विचार करे।
दैनिक जागरण के सौजन्य से सम्पादकीय
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