सम्पादकीय

शिवलिंग पर भागवत-कथा

Rani Sahu
5 Jun 2022 7:14 PM GMT
शिवलिंग पर भागवत-कथा
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ज्ञानवापी और शिवलिंग के संदर्भ में सरसंघचालक मोहन भागवत का कथन महत्त्वपूर्ण है

ज्ञानवापी और शिवलिंग के संदर्भ में सरसंघचालक मोहन भागवत का कथन महत्त्वपूर्ण है, लेकिन बेमानी-सा लगता है, क्योंकि उसकी स्वीकृति और सहमति नगण्य है। संघ-प्रमुख अक्सर टिप्पणियां करते रहते हैं, जिन पर व्यापक विमर्श होते रहे हैं। उनका मानना रहा है कि हम सभी आनुवंशिक तौर पर समान ही हैं। हमारे पूर्वज और डीएनए एक ही हैं। भागवत ने 'अखंड भारत' की भी परिकल्पना की है, जो लगभग असंभव है। भारत मानसिक और सरहदी तौर पर भी 'अखंड' नहीं हो सकता। सरसंघचालक ने देश में मुसलमानों के महत्त्व को भी रेखांकित किया था। उन्होंने देश की विविधता में कई तरह की एकताओं की भी बात कही है। उनकी ताज़ा टिप्पणी है कि हरेक मस्जिद में 'शिवलिंग' तलाशने की जरूरत क्या है।

अयोध्या के प्रति हमारी विशेष भक्ति, आस्था और श्रद्धा रही है, लिहाजा वह आंदोलन चलाया गया। अब कोई और आंदोलन संघ नहीं चलाएगा। वैसे भी जन-आंदोलन खड़े करना संघ का काम नहीं है। संघ-प्रमुख भागवत का यह कथन सटीक है कि ज्ञानवापी का इतिहास न तो आज के मुसलमानों ने लिखा है और न ही हिंदुओं ने। जो विवाद है, वह अदालत के विचाराधीन है। मथुरा की श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। अब सवाल है कि सरसंघचालक ने यह कथन क्यों कहा है? क्या इसे हिंदू पक्ष के लिए कोई निर्देश माना जाए? क्या मंदिर-मस्जिद से जुड़े तमाम विवादों का कोई समाधान इस भागवत-कथा में निहित है? क्या मंदिर-मस्जिद विवादों पर संघ और संतों के अभिमत समान हैं? भागवत के कथन से जुड़े ऐसे तमाम सवालों का कोई भी समाधान हमें तो नहीं दिखाई देता। दरअसल भाजपा, विहिप, बजरंग दल आदि संघ के ही सहयोगी संगठन हैं।
विरोधी पक्ष का भी लगातार आरोप रहा है कि ज्ञानवापी सरीखे विवादों और अभियानों के पीछे संघ परिवार की ही रणनीति रही है। हम किसी भी प्रकार की साजि़श मानने के पक्ष में नहीं हैं। कुछ हद तक साझा रणनीति मानना उचित है, क्योंकि संघ-भाजपा के प्रवक्ता और समर्थक विभिन्न मंचों पर मंदिर-मस्जिद विवाद की पैरोकारी करते रहे हैं। भाजपा प्रशासन से भी उन्हें परोक्ष समर्थन और सहयोग मिलता रहा है। हालांकि हिंदू संगठन असंख्य हैं और वे संघ से जुड़े भी नहीं हैं। भागवत का कथन उन्होंने खारिज तो नहीं किया है, लेकिन मंदिर के लिए उनकी लड़ाई जारी है। हम सवाल करते हैं कि विवादित ढांचे के बाहर, खुली सड़क पर, जिन्होंने 'हनुमान चालीसा' का पाठ किया है, क्या उसे आस्था या श्रद्धा माना जा सकता है? शंकराचार्य के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने ज्ञानवापी में कथित शिवलिंग पर जलाभिषेक करने की जिद ठान रखी है, लिहाजा पुलिस ने उन्हें उनके मठ से बाहर नहीं जाने दिया है। स्वामी जी ने अन्न-जल त्याग कर अनशन शुरू कर दिया है और अदालत में याचिका भी डाल दी है। उनसे पहले भी कुछ महिलाओं ने श्रृंगार गौरी की पूजा करने के अधिकार को लेकर याचिकाएं डाल रखी हैं। एक साधु-संत ने 'ताजमहल' के भीतर अनशन करने की कोशिश की थी। यह मंदिर पक्ष का अतिवादी रूप है। यह सरसंघचालक का भी मानना है कि आक्रांताओं ने हिंदुओं के आस्था-केंद्रों, देवस्थानों को तोड़ा था।
यदि संघ-प्रमुख की मान्यता यह है, तो इतिहास में झांक कर देखना पड़ेगा। उसके बिना 'अखंड भारत' कैसे संभव होगा? माना जा रहा है कि देश में करीब 4000 धार्मिक स्थल विवादास्पद हैं। मस्जिदों की संख्या 3 लाख से भी ज्यादा है। क्या 4000 शिवलिंगों की खोज में हररोज़ विवाद पैदा करने जरूरी हैं? क्या संस्कृति-सभ्यता उन्हीं में निहित है? क्या वे सभी 'ज्योतिर्लिंग' हैं? सवाल है कि इन धार्मिक स्थलों पर सुलह की स्थिति नहीं है, तो क्या कलह को रोका जा सकता है? हिंदू पक्ष के प्रवक्ता हररोज़ वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य प्राचीन ग्रंथों से उद्धरण देकर साबित करने में जुटे हैं कि मस्जिद के स्थान पर मंदिर था। सहमति नहीं है, तो विवाद जरूर होगा और उसे धर्म का संरक्षण मिलता रहेगा। सरसंघचालक चाहते हैं कि देश में मतभेद, हिंसा अथवा टकराव की नौबत न आए। बहुत सकारात्मक सोच है, लेकिन भागवत की सलाह मान कौन रहा है? कमोबेश अयोध्या, काशी और मथुरा ऐसे धर्मस्थल हैं, जो हिंदू को हर हाल में वापस और मुक्त चाहिए। मुसलमानों के आका खुले दिल से लौटाने और बादशाहों के कुकर्मों को कबूल करने को तैयार नहीं हैं।

सोर्स- divyahimachal


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