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मीनाक्षी नटराजन
जब ताली, फिर थाली बजवाई गई, दीये जलवाये गये, तब लगता था कि उन्हें ''प्रदर्शनी'' आयोजित कराने का शौक है। मगर घर-घर तिरंगा से यह मिथक टूट गया। उन्हें तमाशों का शौक नहीं है। यह उनकी रणनीति का हिस्सा है।
प्रायोजित, प्रोत्साहित, व्यस्थागत "धूमधाम" के बगैर किसी भी 'मरीचिका' का निर्माण नहीं किया जा सकता। पिछले आठ सालों में सोची समझी रणनीति के तहत मरीचिका बनाई गई है। इस देश की विडंबना हैं कि स्वतंत्रता का पचहत्तरवां साल भी इसकी भेंट चढ़ रहा है। मरीचिका निर्माण की संज्ञा किसी कुंठा, नैरारथ या सार्वजनिक सामाजिक विवेक के विलाप की परिणति नहीं है। सत्य की अभिव्यक्ति है। हुक्मरानों ने बड़ी मेहनत से इसको गढ़ा है।
पहली मरीचिका पूरे देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी है। यह बार-बार प्रचारित किया जाता है कि दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ रही है। मगर असलियत क्या है? बढ़ती आर्थिक विषमता, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, क्षुधा के तमाम आंकड़े मरीचिका के धोखे को उघाड़ते रेत के सूखे कण साबित होते है। दुनिया की विश्वसनीय संस्थाओं के आँकड़ों को सत्ता की मदांधता में नकारने से सत्य बदल नहीं जाता। सबसे गरीब के पास मात्र 6% संपत्ति का हिस्सा है। जबकि सबसे अमीर 1% के पास एक तिहाई और सबसे अमीर 10% के पास दो तिहाई संपत्ति है। निजी संपत्ति निरंतर बढ़ी है और सार्वजनिक संपत्ति घटी है। 2021 के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 116 देशों की सूची में 101 वें स्थान पर है। महँगाई में वृद्धि इस परिस्थिति को और भी गंभीर बनाती है। सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सी.एम.आई.ई.) के आंकडे बताते है कि 2021 में श्रम योग्य आयु के 52 करोड़ लोगों में से 4.76 करोड़ बेरोजगार थे। यानी कि सकल घरेलू उत्पाद भले ही बढ़ा हो रोजगार का सृर्जन नहीं हो पा रहा।
भारत के नक्शे में सबसे अधिक गरीबी, पलायन, विस्थापन, सामाजिक शोषण जिन क्षेत्रों में है वहीं सर्वाधिक पर्यावरणीय साधनों का दोहन, चीरफाड़, उत्खनन भी हो रहा है। उस दोहन में वहां के स्थानीय वासियों का कोई हाथ नहीं है। हालांकि उन्हीं की बसाहटे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उजाड़ी जाती है। जबकि वैश्विक विषमता सूचकांक अनुसार भारत के गरीब वर्ग का कार्बन उत्सर्जन मात्र 2.2 मिट्रिक टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। सबसे अमीर वर्ग का औसतन 32.4 मिट्रिक टन है। यदि पर्यावरणीय संरक्षण जल जंगल जमीन के पुनर्जीवन को रोजगार से जोड़ा जाकर पंचायतों के माध्यम से काम हो तो परिदृश्य बदल सकता है।
मगर मरीचिका का स्वभाव होता हैं कि वो लुभावनी होती है। गढ़ने वालों को भी थोड़े दिनों में अपना झूठ सच लगने लगता है। देश के बड़े वर्ग से तो मरीचिका का सच छुपाने के लिए सांप्रदायिक वैमनस्य का सफल प्रयोग किया जा रहा है।
लेकिन दुनिया के सामने तिलिस्म टूटता जा रहा है। हर सूचकांक को हम गलत ठहराकर सही साबित नहीं हो जायेंगे। यह भी याद रखना होगा कि हमारे सबल पड़ोस चीन ने वैश्विक भौगोलिक सामरिकता और राजनीति का रणक्षेत्र ही बदल दिया है। पुराने रेशम मार्ग से होकर गुजरने वाली उनकी नई सड़क व्यापारिक व्यवस्था विस्तार का एलान है।
हमारे समूचे पड़ोस को उन्होंने किसी न किसी रूप में अपना साझेदार बना ही लिया है। भूटान अपवाद है। यहां तक कि दक्षेस के भारत छोड़कर सभी सदस्य राष्ट्र चीन को भी शामिल करने की मुखर पैरवी कर रहे है।
चीन में शतरंज की तरह एक अन्य खेल का प्रचलन है। जहां आमने-सामने के दांव नहीं होते। शताब्दियों का लक्ष्य रखा जाता है। उसके लिए घेराबंदी की जाती है। हमारे तीनों तरफ की तटीय सीमा से लगे मुल्कों की साझेदारी करके चीन बंदरगाह बना चुका है। हमारी सीमा तक घुस चुका है। मगर सरकार ने दूसरी बड़ी मरीचिका से इन सब सत्यों को ढ़क रखा है। भारत विश्व गुरू बनने जा रहा है और हमारे प्रधानमंत्री जी की सलाह के बिना दुनिया के कोई देश किसी तरह का भी फैसला नहीं लेते।
इस मरीचिका में हम इतना फंस चुके हैं कि अब हम अलग थलग पड़े है। जब हमारी हुकूमत कहती है कि कोई घुसपैठ नहीं तो दुनिया की दूसरी महाशक्ति से क्या सामरिक अनुबंध हो पायेगा, उस महाशक्ति को तो वैसे भी हमसे कोई सहानुभूति नहीं होगी। अपने शस्त्र उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए नित नये रणक्षेत्र चाहिए। यूक्रेन में वही हो रहा है। कहीं भारत दूसरा यूक्रेन न बन जाये। जहां दो महाशक्तियों टकरायेंगी। हम पश्चिमी महाशक्ति के शस्त्र उद्योग का बाजार उपभोक्ता हो जायेंगे। उसका उपयोग हमारे ही लोगों पर होगा। इन दोनों मरीचिकाओं का समय रहते ध्वस्त होना जरूरी है। वरना आधुनिक युग में आर्थिक विकास देशों के बीच की सामरिक नीति की अहम कड़ी है। महाशक्तियाँ आर्थिक तंगी, बेरोजगारी से विचलित समुदाय का भी इस्तेमाल करती है। कुछ नहीं तो पास पड़ोस पर इसका असर पड़ता है। कमजोर मुल्क से कोई जुड़ना नहीं चाहता। उसी तरह हमारी सामरिक नीति को भी झूला झुलाने जैसे "तमाशों" के आयोजन से बाज आना होगा। वरना हमें बड़ी चुनौती का अकस्मात सामना करने की नौबत आ सकती है।
सोर्स- नवजीवन
Rani Sahu
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