सम्पादकीय

'हमलावर' बने 'बेचारे'

Rani Sahu
15 April 2022 7:19 PM GMT
हमलावर बने बेचारे
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नफरत और हिंसा का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह ‘रामनवमी’ से लेकर ‘बैसाखी’ के पावन त्योहारों तक जारी रहा। फिलहाल कुछ शांति है

नफरत और हिंसा का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह 'रामनवमी' से लेकर 'बैसाखी' के पावन त्योहारों तक जारी रहा। फिलहाल कुछ शांति है, लेकिन नफरत खत्म नहीं हुई है। अब यह सनातन-सी लगती है। ऐसी ख़बरें भारत के भीतर तक ही सीमित नहीं रही हैं, बल्कि अमरीका में मैत्री-संवाद के दौरान भी उठी हैं। एक पत्रकार ने अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से भारत में अल्पसंख्यकों पर किए जा रहे हमलों को लेकर सवाल किया, तो ब्लिंकेन का जवाब भारत-विरोधी और एकतरफा था। अल्पसंख्यकों पर हमलों और उनके मानवाधिकारों को लेकर भारत को कटघरे में खड़ा किया गया। छवि धूमिल करने की कोशिश की गई। प्रधानमंत्री मोदी और भारत को लेकर अमरीकी सीनेट में भी एक अश्वेत, महिला सांसद ने इस मुद्दे पर सवाल उठाया कि अमरीकी प्रशासन कब कारगर कार्रवाई करेगा? शब्दों का अंतर हो सकता है, लेकिन अमरीका की सरज़मीं से ये सवाल बार-बार किए जाते रहे हैं कि भारत में सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार संकट में हैं? मुसलमानों का अस्तित्व खतरे में है! ऐसे सवाल राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा और डोनाल्ड टं्रप के कार्यकालों के दौरान भी उठाए गए। हर बार ऐसा आभास दिया गया मानो अमरीकी प्रशासन भारत सरकार को आगाह कर रहा हो कि ऐसा नहीं होना चाहिए। हालांकि हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कड़ा और माकूल जवाब दे दिया है, लेकिन ये तमाम सवाल बेबुनियाद और सफेद झूठ हैं। भारत में अल्पसंख्यक जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, पारसी आदि समुदाय हैं।

उनके मानवाधिकारों पर कोई संकट नहीं है। मुसलमानों की 20 करोड़ से ज्यादा आबादी है। बहुसंख्यकों के बाद मुसलमान ही बहुसंख्यक हैं। अमरीका ने असल अल्पसंख्यकों के प्रति चिंता और सरोकार कभी नहीं जताए। मुसलमानों के प्रतिनिधि देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री, सांसद, खुफिया एजेंसी के मुखिया तक रहे हैं। उनका उत्पीडऩ कैसे किया जा सकता है? अपवादों और पुरानी धारणाओं को तोड़ देना चाहिए और नए तथ्यों के साथ विश्लेषण किए जाने चाहिए। 'रामनवमी' के पावन दिन पर जो नफरती उत्पात मचाया गया था, उसके कुछ ताज़ा वीडियो सार्वजनिक हुए हैं। सबसे ज्यादा त्रासद मप्र के शिवम शुक्ला का उदाहरण है। वह आज भी अस्पताल में जि़ंदगी और मौत के बीच झूल रहा है। सिर्फ 15-16 साल के उस किशोर का कसूर इतना-सा था कि वह दंगाई हिंसा का शिकार बना दिया गया। वह लगातार बेहोश रहा है। उसके सिर और मस्तिष्क के बड़े ऑपरेशन किए गए हैं। न तो वह कट्टरपंथी है, न जेहादी-सा सांप्रदायिक है और न ही किसी हिंसक साजि़श का हिस्सा रहा है। यदि शिवम की मौत हो जाती है, तो उसके नागरिक मानवाधिकार जरूर कुचले जाएंगे। हमारी दुआएं हैं कि शिवम दीर्घायु हो, स्वस्थ रहे, लेकिन हमारी चिंता यह है कि कथित अल्पसंख्यकों के हाथों में तलवारें, चाकू, रॉड, बंदूक, पत्थर और पेट्रोल बम आदि हथियार अचानक कहां से आ जाते हैं?
ऐसा कई सांप्रदायिक उपद्रवों और दंगों के दौरान देखा गया है कि मुस्लिम भीड़ अचानक 'हमलावर' बनकर सामने आती है और 'मारो, काटो, आग लगा दो…' के जुमलों के साथ वे हमला करते हैं। जाहिर है कि जिन पर हमला किया जाता रहा है, वे हिंदू ही होते हैं। हमले मुसलमानों पर भी किए जाते रहे हैं, लेकिन जिस तरह सुनियोजित और लामबंद हमले मुसलमान करते हैं, वे वाकई चिंता का सबब हैं। हालिया दंगों के दौरान पुलिस अधीक्षक सिद्धार्थ चौधरी को ही सीधी गोली मार कर घायल कर दिया। वह भी अस्पताल में हैं। बड़ा दुस्साहस है अल्पसंख्यकों का! यह शोध का विषय है कि आखिर मुसलमान इतने सुनियोजित क्यों हैं? क्या उन्हें कोई निर्देश या पैसा दे रहा है? क्या कोई उनके जरिए हिंदुस्तान में साजि़शें रच रहा है? बाबा अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को थी। वह हमारे संविधान के रचनाकार हैं। सवाल है कि क्या अंबेडकर के सपनों का भारत यही है? सरसंघचालक मोहन भागवत ने 15 साल बाद 'अखंड भारत' की भविष्यवाणी की है। हमारा दावा है कि यह देश अब कभी अखंड हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह भावनाओं और पूर्वाग्रहों के स्तर पर अंदर से ही विभाजित है। हमें तो देश की आज़ादी का 'अमृत महोत्सव' भी बेमानी लगता है। उन्हें 'बेचारे' चित्रित किया जा रहा है, जो हमलावर ही नहीं, हत्यारे भी हैं। दंगाइयों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचली


Rani Sahu

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