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प्रसिद्ध अर्थशास्त्री फ्रैंक का कथन है कि व्यापार जगत में जो व्यक्ति अपना दिवाला घोषित करता है
जयप्रकाश चौकसे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री फ्रैंक का कथन है कि व्यापार जगत में जो व्यक्ति अपना दिवाला घोषित करता है उस व्यक्ति के परिवार से रोटी, बेटी का रिश्ता कोई नहीं रखता। उन्हें उद्योग बिरादरी के कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है। लोग दिवालिए की परछाई से भी दूरी बना लेते हैं। अगर वह जंगल की ओर भागे तो पशु-पक्षी वहां से चले जाते हैं। आज इस तरह के आदर्शों का लोप हो रहा है।
ज्ञातव्य है कि फिल्म निर्माता सुभाष देसाई ने साधन जुटाए और उनके भाई मनमोहन देसाई ने राज कपूर, रहमान और नूतन को लेकर फिल्म 'छलिया' बनाई। यह फ्योदोर दोस्तोवस्की की रचना 'व्हाइट नाइट्स' से प्रेरित फिल्म थी। इसी कथा से प्रेरित संजय लीला भंसाली की फिल्म 'सांवरिया' थी। बहरहाल, सुभाष देसाई ने 'छलिया' के बाद बनाई गई फिल्मों में घाटा सहा और अपना दिवाला घोषित किया।
तब शम्मी कपूर ने मनमोहन देसाई को 'राजकुमार' नामक फिल्म लिखने का काम दिलाया। इस तरह मनमोहन के लिए रास्ता खुला। उस समय पूंजी निवेशक गुणवंत लाल शाह ने प्रस्ताव रखा कि वे सुभाष देसाई का कर्ज सूद सहित लेनदारों को लौटा कर उन्हें दिवालियेपन के सामाजिक बहिष्कार से बचा लेंगे। बदले में मनमोहन देसाई, गुणवंत शाह की फिल्म 'धर्मवीर' निर्देशित करें।
उन्हें निर्देशन का मेहनताना भी दिया गया। गौरतलब है कि इस फिल्म में अमिताभ बच्चन अभिनय करने वाले थे परंतु उस समय बीमारी के कारण 'धर्मवीर' में वे नायक नहीं थे। उस दौर के फिल्मकार मोहन सिन्हा की कुछ फिल्में असफल रहीं। गुणवंत लाल शाह ने साधन जुटाए और धर्मेंद्र अभिनीत 'कर्तव्य' बनी। प्रदर्शन के पूर्व ही यह ज्ञात हो गया था कि मोहन सिन्हा की विगत फिल्मों में जिन्होंने कर्ज दिया, वे चक्रवृद्धि ब्याज सहित रकम वसूल करने के लिए फिल्म प्रदर्शन पर कानूनी प्रतिबंध का आदेश ला सकते हैं।
गुणवंत लाल शाह ने महाजनों और वितरकों की एक सभा रखी। शाह ने दस्तावेज सहित यह सिद्ध किया कि विगत दशकों में मोहन सिन्हा की फिल्मों में कितना लाभ महाजनों और वितरकों को दिया। उन्होंने कहा कि महाजन अपना सूद छोड़ दें और मूल रकम लेने को तैयार हों। साथ ही वितरण अधिकार के लिए तय राशि का 10% बढ़ाएं।
ऐसा करने से मोहन सिन्हा एक भयावह चक्र से मुक्त हो जाएंगे। गुणवंत शाह ने आगे कहा कि अन्यथा मोहन सिन्हा के दिवालिया घोषित करने के दस्तावेज अदालत में प्रस्तुत करने के लिए उनका वकील अदालत में तैयार बैठा है। इससे सारे महाजनों और वितरकों की लागत डूब सकती है। कुछ देर आपसी परामर्श के बाद सूदखोरों और वितरकों ने गुणवंत की बात मान ली। अतः इस युक्ति से मोहन सिन्हा ब्याज के चक्र से मुक्त हुए।
सारी घटना के बाद गुणवंत ने अपने सहयोगियों को बताया कि दिवालिया घोषित करने के दस्तावेज उन्होंने कभी बनाए ही नहीं थे। वे जानते थे कि काटने की जरूरत नहीं है मात्र फुंफकारने से ही काम हो जाएगा। बहरहाल, ये बातें गुजरे दौर की हैं। वर्तमान में तो बैंक से कर्ज लेते समय उन इमारतों को भी कर्ज के लिए गिरवी रख दिया जाता है, जिनका अस्तित्व केवल कागज पर ही मौजूद है।
कुछ लोग बैंक से कर्ज लेकर विदेश भाग जाते हैं, जिन्हें वापस लाने में लंबा समय लगता है। ओटीटी मंच पर 'स्कैम' नामक कार्यक्रम इसी तरह की शंका प्रस्तुत करता है। बहरहाल, वर्तमान में फिल्मकार का जोखिम कम है, क्योंकि कॉर्पोरेट कंपनी पूंजी निवेश करती है और फिल्मकार को मुंह मांगा पारिश्रमिक दिया जाता है।
इस तरह फिल्मकार मात्र कर्मचारी बन गया है। सितारे की रजामंदी मिलते ही उसे सब साधन-सुविधाएं उपलब्ध हो जाते हैं। वर्तमान में कथा-विचारों की कमी है। अतः सोच का यह दिवालियापन केवल फिल्म क्षेत्र तक सीमित नहीं है। क्या दिवालियापन सर्वत्र व्याप्त है? गोया कि सितारे पटकथा नहीं देखते। वे तो अपने मित्रों के साथ ही काम करते हैं। अत: सारे सिस्टम को बदले जाने की जरूरत है।
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