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- सियासी नाले में सेब
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By: divyahimachal
हिमाचल में फल आर्थिकी का अधिकतम वजन सेब उठाता है या यही तस्वीर अब बागबानी की सियासत को मजबूत करती है। अंतत: राजनीति के चश्मे गवाह हैं कि फलों का हिमाचली राजा सेब है और इसके नखरों में हवा है, तो नाराजगी में वफा है। इसमें दो राय नहीं कि मौसम की बेरुखी से सेब का संघर्ष वर्षों पुराना है, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि सरकारें इसकी संवेदनशीलता को नजरअंदाज नहीं करतीं, फिर भी इस बार एक तथाकथित वीडियो ने ‘सेब’ को गलत तरीके से मुद्दा बना दिया। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने सेब फेंकने के वीडियो को फर्जी बता कर प्रशासनिक तौर पर ऐसी सियासत को दरकिनार किया है, लेकिन भाजपा ने मौसम के बिगड़े मिजाज से सियासत का मसाला निकाल लिया है। जाहिर है आपदा की इस घड़ी में प्रतिकूल परिस्थितियों से मुकाबला इतना भी आसान नहीं कि हर इंच पर बहाली हो जाए। कुछ भौगोलिक कठिनाइयां हमेशा रहेंगी और जब आसमान दैत्य बन जाए, तो राहत के इंतजाम हर बार एक नई कहानी बना देते हैं। बेशक कुल्लू, मंडी व शिमला की परिस्थितियों ने बागबानी के वार्षिक फलादेश पर कुठाराघात किया है, लेकिन यह समूचे हिमाचल की तस्वीर नहीं। फलोत्पादन की व्यापकता के बजाय सेब की पहचान में यह प्रदेश अपनी सियासत को तपाता रहा है और इस बार आलोचना के संदर्भ सोशल मीडिया तक जा पहुंचे। एक वायरल वीडियो ने इतने इल्•ााम इक_े कर लिए कि सरकार को जवाब देने का ठोस धरातल दिखाना पड़ रहा है।
हम इसके सत्य व असत्य के बीच बाढ़ विभीषिका को कमतर नहीं आंक सकते और न ही ऐसी राजनीतिक आलोचनाओं को किसी एक बिंदु पर निचोड़ सकते हैं। बाढ़ एक यथार्थ है जो केवल एक खास फल पौधे पर ही कुअसर नहीं रखता है, बल्कि मौसम की हर खुराफात खेत-बागीचे और घर-आंगन को बर्बाद कर सकती है। दर्द को खास मकसद से दबाएंगे या इसे नुमाइश का हिस्सा बनाएंगे, तो किसी भी परिस्थिति में न्याय नहीं होगा, बल्कि इसकी आर्थिकी के दृष्टिकोण से मदद करनी होगी। दर्द तो खीरा,लौकी या कद्दू की बेल उजडऩे पर भी होता है। दर्द लीची, आम, गलगल या किन्नू पर मौसम की प्रतिकूलता पर भी पड़ता है। कल अगर वायरल वीडियो की जुबान में हर उपज या पैदावार को नंगा करके प्रचारित करना शुरू कर दिया गया, तो किस अखाड़े की वकालत पर राज्य की सही बात होगी। जमीन का दर्द सदाबहार है और उसके लिए सोशल मीडिया का वीडियो नहीं, व्यवस्था की आंख चाहिए। दर्द सिर्फ पैदावार नहीं, फसल को उपभोक्ता तक सही तरीके से पहुंचाने का हवाला भी है। अंतत: हिमाचल का उपभोक्ता भी तो बाढ़ का पीडि़त है। लगातार दो सौ रुपए प्रति किलो के हिसाब से टमाटर खरीदने वाले की तकलीफ भी तो कहीं वायरल है।
हमारी आपत्ति वायरल संदेशों की भूमिका पर है और अगर पक्ष-प्रतिपक्ष इसी तरह तू तू-मैं मैं में सच-झूठ खोजने लगे, तो हकीकत के पैगाम कहीं गुम हो जाएंगे। कमोबेश हर साल बारिश के अलावा जलवायु के बिगड़ते चक्र के कारण सेब की फसल पर अस्थिरता का खतरा बढ़ रहा है, लेकिन दूसरी ओर किसान तो अपने बीज की गुणवत्ता से लड़ रहा है। एक ओर मौसम की मार और दूसरी ओर गलत बीज के प्रसार से किसान के लिए खेत खोदना मुश्किल हो रहा है। सत्ता और विपक्ष को कम से कम कृषि और बागबानी के मामले में मतैक्य पैदा करके किसान और बागबान के प्रति जवाबदेह होना ही पड़ेगा। बाढ़ के बहाने सेब उत्पादक की बात हो गई, लेकिन जहां साल भर बंदर, आवारा पशु और वन्य प्राणी उत्पात मचाते हों, उस खेती या बागबानी की सुध कौन लेगा। बेशक सेब की पैदावार को तुरंत मंडी तक पहुंचाने में सरकार को हर संभव कोशिश करनी चाहिए, लेकिन आपात की स्थिति में महज सियासत करना भी तो सही नहीं।
Rani Sahu
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