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यह बुनियादी तौर पर भगवा जनादेश है। हालांकि जनादेश का कोई रंग नहीं होता
यह बुनियादी तौर पर भगवा जनादेश है। हालांकि जनादेश का कोई रंग नहीं होता, लेकिन 2017 की तर्ज पर जनादेश भाजपा के पक्ष में रहा है। भाजपा के लिए 'नाक का सवाल' बने उप्र में भाजपा ने 260 के करीब सीटें हासिल की हैं। यह स्पष्ट बहुमत से भी ज्यादा है। संपूर्णानंद और 1985 में नारायण दत्त तिवारी के बाद योगी आदित्यनाथ उप्र के तीसरे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें लगातार दूसरी बार जनादेश मिला है। भाजपा ने उप्र के साथ-साथ उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी सरकारें रिपीट करने लायक जनादेश हासिल किया है, लिहाजा जनादेश को हमने 'भगवा' करार दिया है। उत्तराखंड में पार्टी ने 45 सीटें जीत ली हैं। हालांकि कांग्रेस के साथ मुकाबला 'कांटेदार' माना जा रहा था। आंकड़ों में कुछ अंतर हो सकता है, क्योंकि यह संपादकीय लिखने तक अंतिम जनादेश नहीं आया था।
बहरहाल यह जनादेश विराट और व्यापक है। इस विश्लेषण का आधार यह है कि विभिन्न राज्यों में हिंदू और सवर्णों के साथ-साथ दलित, ओबीसी, पिछड़े, आदिवासी, स्थानीय समुदायों और मुसलमानों ने भी भाजपा के पक्ष में जनादेश दिया है। दरअसल सही मायनों में यही 'सामाजिक न्याय' है, क्योंकि अधिकतर जनता और जातियों ने भाजपा को ही चुना है। बेशक 'भगवा जनादेश' विराट, व्यापक, बहुरंगी है, लेकिन इस जीत के मायने ये भी नहीं हैं कि बेरोज़गारी, महंगाई, गरीबी, सामूहिक यौन हिंसा और हत्याएं, किसानों के एक वर्ग की नाराज़गी, सांप्रदायिक धु्रवीकरण और कोरोना के दौर की विसंगतियां आदि कोई मुद्दे नहीं हैं। ये महत्त्वपूर्ण मुद्दे रहे और हमेशा रहेंगे। भाजपा के विरोध में भी वोट डाले गए। भाजपा का वोट औसत भी कम हुआ है, लेकिन चुनाव में जिसे बहुमत हासिल हुआ, वही अंतिम विजेता है। यही लोकतंत्र की खूबसूरती है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी के विकासवाद, महिला सशक्तीकरण, मुफ्त अनाज, पक्का मकान आदि इतने संवेदनशील और जनता को सीधा संबोधित करने वाले मुद्दे साबित हुए कि अंतिम जनादेश का रंग 'भगवा' हो गया। भारत एक कल्याणकारी राज्य है। सरकार आम आदमी की दहलीज़ तक गई, कमोबेश उप्र में योगी आदित्यनाथ ने यह करके दिखाया, जिसका फायदा भाजपा को मिला। यह जनादेश विशुद्ध रूप से धर्म, जाति और संप्रदाय से हटकर 'सामाजिक न्याय' का भी है और सवर्णों का समर्थन भाजपा के ही पक्ष में गया। उनकी नाराजगी के कयास फालतू साबित हुए। सामाजिक न्याय एक बेहद व्यापक अवधारणा है, जिसके आधार पर सपा, राजद और जनता दल-यू सरीखी पार्टियों को जनादेश मिलते रहे हैं। अब भाजपा उस अवधारणा की प्रतीक है।
जिस तरह 2022 के जनादेशों ने स्पष्ट कर दिया है और 2024 के आम चुनावों की ज़मीन भी पुख्ता कर दी है, उसके मद्देनजर अब विपक्षी दलों को कमोबेश प्रधानमंत्री मोदी के प्रति नफरत की हद तक राजनीति छोड़ देनी चाहिए। जनादेशों ने प्रधानमंत्री की प्रासंगिकता और लोकप्रियता को एक बार फिर सत्यापित किया है। इन चुनावों में पंजाब का जि़क्र भी जरूर करना चाहिए, क्योंकि वहां का 'सुनामी जनादेश' आम आदमी पार्टी ने हासिल किया है। कुल 117 में से 90 सीटें जीतना वाकई अभूतपूर्व और अप्रत्याशित है। पांच बार के मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, निवर्तमान मुख्यमंत्री चन्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सरीखे महादिग्गज नेता इस सुनामी में बहकर दूर चले गए। यह पूरी तरह सकारात्मक और बदलाव का जनादेश है और 'केजरीवाल मॉडल ऑफ गवर्नेंस' को स्वीकृति मिली है। अब दिल्ली के बाद पंजाब में भी 'आप' की सरकार होगी। 'आप' के विस्तार को नकारा भी नहीं जा सकता। हालांकि उप्र में सपा को प्रमुख विपक्षी बनने का जनादेश मिला है, लेकिन अखिलेश यादव ने भी शानदार चुनावी प्रदर्शन किया है, लिहाजा सपा का वोट औसत 22 फीसदी से उछलकर 36 फीसदी तक पहुंच गया है। सपा इसे अपनी चुनावी उपलब्धि मान सकती है, लेकिन बसपा और कांग्रेस की राजनीतिक उपस्थिति और जनता की स्वीकृति विडंबना के स्तर तक सिकुड़ गई है। अब यदि विपक्ष को कोई चुनौती पेश करनी है, तो नए सिरे से एक साझा मंच पर आकर घोर मंथन करना पड़ेगा।
क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल
Rani Sahu
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