सम्पादकीय

अकबर इलाहाबादी या अकबर प्रयागराजी : जिसके पास आज के कट्टर होते समाज का मुक़म्मल इलाज था

Rani Sahu
30 Dec 2021 5:33 PM GMT
अकबर इलाहाबादी या अकबर प्रयागराजी : जिसके पास आज के कट्टर होते समाज का मुक़म्मल इलाज था
x
अकबर इलाहाबादी तरक़्क़ी पंसद शायर थे

हेमंत शर्मा अकबर इलाहाबादी तरक़्क़ी पंसद शायर थे. धर्म, जाति, मज़हब से ऊपर. अपनी न्याय प्रियता के लिए जाने, जाने वाले जज. उन्होंने कभी सोचा नहीं होगा कि उनकी मौत के सौ साल बाद उनकी पहचान बदल जाएगी. वे अकबर इलाहाबादी से अकबर प्रयागराजी हो जाएंगें. किसी व्यक्ति का नाम बदलना उसकी वल्दियत बदलने जैसा है. किसी का नाम बदलना उसकी निजता से खिलवाड़ तो है ही. फिर सोचने वाली बात यह भी है कि आख़िर किसका नाम बदलने की कवायद की गई? अकबर इलाहाबादी का! एक ऐसा शायर जो आज़ाद और प्रगतिशील ख्यालों की जीती जागती इबारत था. अकबर इलाहाबादी कट्टर नहीं थे. दोनों तरफ़ की रूढ़ियों पर उन्होंने हमला किया था. सबकी सुनना और सबको सुनाना उन्हें प्रिय था. अकबर परंपरावादी थे, लेकिन वे जड़ परंपरावादी नहीं थे. वे मज़हबी थे, लेकिन मज़हबी ईमान के नाम पर चलने वाले पाखंड का मज़ाक उड़ाने से उन्हें कभी गुरेज़ नही था. तभी तो उन्होंने लिखा-

'मेरा ईमान मुझसे क्या पूछती हो मुन्नी,
शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी.'
उनकी लेखनी में ऐसा कीमिया था जिसके पास आज के कट्टर होते समाज का मुक़म्मल इलाज था. उन्होंने उस दौर में अपने लेखन में जिस दर्जे की आज़ाद ख्याली दिखाई, आज उसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता. यह कल्पना से भी परे है कि आज से सवा सौ साल पहले कोई मुसलमान काबा के बारे में ऐसा लिख सकता था-
'सिधारें शैख़ काबे को हम इंग्लिस्तान देखेंगे,
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे.'
वे ऐसा इसलिए लिख सकते थे क्योंकि वे किसी भी तरह की रूढ़ि, तंग ख्याली या फिर संकीर्णता से कोसों दूर थे. उनकी दूरदर्शी आंखों ने आज के समाज की पहचान कोई डेढ़ सौ बरस पहले ही कर ली थी. तभी उन्होंने लिखा-
'हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती.'
ये अलग बात है कि उनके चाहने वालों की आह के असर के चलते उनके नाम के क़त्ल की कोशिशों की इस कदर चर्चा हो गई कि नाम बदलने वालों को आखिरकार अपने इरादे बदलने पर मजबूर होना पड़ा. अकबर इलाहाबादी को इलाहाबाद पर नाज़ था. इलाहाबाद उनकी रगों में दौड़ता था. वे खुद को इस शहर की रूह में धंसा हुआ पाते थे. शायद तभी वे लिख गए-
'कुछ इलाहाबाद में सामां नहीं बहबूद के,
यां धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के.'
यानि इस इलाहाबाद में उनके और अमरूद के सिवा और क्या है? इस कदर वे इलाहाबाद के साथ एकात्म हो चुके थे कि अपने वजूद को इस शहर के वजूद में घुला हुआ पाते थे. अकबर की इलाहाबाद से और इलाहाबाद की अकबर से पहचान हो गयी. ऐसे में इलाहाबाद को उनके नाम से अलगाना अन्याय होगा.
इसी इलाहाबाद के बारा क़स्बे में जन्मे अकबर के वालिद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन नायब तहसीलदार थे. आरंभिक शिक्षा घर पर हुई. आठ नौ बरस की उम्र में उन्होंने फ़ारसी और अरबी की पाठ्य पुस्तकें पढ़ लीं. आर्थिक स्थिति अच्छी न होने की वजह से उनको स्कूल छोड़कर पंद्रह साल की ही उम्र में नौकरी तलाश करनी पड़ी. उसी कम उम्र में उनकी शादी भ हो गई. उनकी बेगम ख़दीजा ख़ातून एक देहाती लड़की थीं. उनसे उनकी बनी नहीं.
अपनी अलग ही बेख्याली की दुनिया में डूबे अकबर ने इलाहाबाद की तवायफ़ों के कोठों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए. कहते हैं कि इलाहाबाद की शायद ही कोई ख़ूबसूरत और दिलकश तवायफ होगी, वे जिसके ठौर से न गुजरे हों. वे एक तवायफ बूटा जान के इश्क में भी पड़े और उससे शादी भी कर ली. लेकिन उसका जल्द ही इंतक़ाल हो गया जिसका उन्हें गहरा सदमा रहा. उसी ज़माने में उन्होंने अंग्रेज़ी में कुछ महारत हासिल की और 1867 ई. में वकालत का इम्तिहान पास कर लिया. फिर जजी का लंबा दौर चला और आखिर साल 1905 ई. में वो सेशन जज के ओहदे से रिटायर हुए. फिर बाक़ी ज़िंदगी इलाहाबाद में गुज़ारी. उन्होंने अदालत की कार्यवाहियों के बहाने जिंदगी को बेहद करीब से देखा और समझा, जिसकी झलक उनकी शायरी में दिखाई देती रही. वकीलों की बाबत लिखा उनका ये शेर उनके इसी भोगे हुए यथार्थ का आइना था-
'पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा,
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए.'
वे दुनिया की कड़वी सच्चाइयों से वाकिफ थे, मगर दुनियादारी से दूर थे. उनके शेरों में उनकी इस शख्सियत की मिसाल मिलती है. उन्होंने इस बाबत लिखा भी-
'दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं,
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं.'
अकबर इलाहाबादी अगर आज होते तो नाम बदलने की इस कोशिश पर आदतन ही कोई लतीफ़ा पढ़ते और शायद एक बार फिर से अपना यही शेर दोहरा देते-
'मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं.'
अकबर ने उर्दू की एक पत्रिका भी निकाली. यानि वे सम्पादक की क़तार में भी शुमार हुए. पत्रकार रहते हुए पत्रकारिता के गिरते स्तर पर उनकी चोट देखिए.
"चोर के भाई गिरहकट तो सुना करते थे,
अब ये सुनते हैं एडिटर के बरादर लीडर."
अकबर परंपराओं के नाम पर कूढ़मगज़ी के सख्त खिलाफ थे. उन्होंने इसकी मुख़ालिफ़त की शुरुआत अपने मज़हब में फैली बुराइयों को निशाना बनाते हुए की. खासकर औरतों के मामले में वे उन्हें पर्दे के पीछे रखने या फिर दोयम दर्जा देने की दक़ियानूसी सोच के खिलाफ थे. उनकी तरक्की पसंद शायरी में आज का नारी स्वातन्त्र्य आन्दोलन समाया हुआ था जो आज के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की बानगी है. परदे, घूंघट, बुरके को महिलाओं की तरक्की की राह का पत्थर बताते हुए वे आज से सवा सौ साल पहले लिख गए-
'बेपर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीवियां
अकबर ज़मीं में हैरते क़ौमी से गड़ गया,
पूछा जो उनसे आपका परदा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया.'
औरतों को पर्दे में रखने के हिमायती मर्दों को उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बेनकाब करने का अभियान जारी रखा. इस बाबत सवाल उठाते हुए उन्होंने यहां तक पूछा-
'बिठाई जाएंगी परदे में बीबियां कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियां कब तक.'
'मियां से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियां का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियां कब तक.'
अकबर इलाहाबादी एक ऐसी दुनिया का तसव्वुर करते थे जो बुद्धि और तर्क की नींव पर बनी हो. जहां किसी भी तरह की कट्टरता या संकीर्ण सोच की कोई जगह न हो. जहां खुलकर सवाल पूछे जाएं और नए विचारों के लिए हमेशा जगह बनी रहे. उन्होंने ऐसे ही एक बार चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को भी सवालों के कटघरे में खड़ा किया-
'डार्विन साहब, हकीकत से निहायत दूर थे
हम न मानेंगे कि मूरिस(पूर्वज) आपके लंगूर थे.'
अकबर इलाहाबादी की प्रगतिशील सोच का ये आलम था कि वे भाषा के प्रयोग में भी किसी भी तरह की कट्टरता को बर्दाश्त नही करते थे. उस दौर में मुस्लिम कट्टरपंथी उर्दू ज़ुबान की शुद्धता के हिमायती थे. वे इस बात को बर्दाश्त नही कर सकते थे कि उर्दू की शेरो शायरी में कोई दूसरी ज़ुबान के शब्द पिरोए जाएं. मगर अकबर इलाहाबादी ने इस सोच से खुलकर बगावत की. उन्होंने ऐसे कट्टर शुद्धतावादियों को ठेंगा दिखाते हुए उर्दू शायरी में अंग्रेज़ी शब्दों का पहले पहल और जमकर इस्तेमाल किया. उर्दू शायरी में अंग्रेज़ी के प्रयोग की उनकी पहल ने शायरी की दुनिया में बवंडर ला दिया. शुद्धतावादियों ने बहुत हो हल्ला काटा पर अकबर टस से मस न हुए. उनके इस तरह के कुछ प्रयोग देखिए-
'लिपट जा दौड़ के 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है
नहीं नहीं पे न जा, ये हया की ड्यूटी है.'
'कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया
जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया.'
'मैं भी ग्रेजुएट हूं तुम भी ग्रेजुएट
इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट.'
अंग्रेजी ही नही, बल्कि उन्होंने हिंदी की भी जमकर हिमायत की और हिंदी के विरोधियों को भी कटघरे में खड़ा किया. उन्होंने लिखा-
'दोस्तों तुम कभी हिंदी के मुख़ालिफ़त न बनो,
बाद मरने के खुलेगा कि ये थी काम की बात.'
आईसीएस अफ़सरों के लिए लोगों की उतावली को देखते हुए उनका शेर देखिए.
'शौके लैलाए सिविल सर्विस ने मुझ मज़नू को
इतना दौड़ाया लंगोटी कर दिया पतलून को.'
हमें उनकी तरक्की पसंद सोच से सीख लेनी चाहिए. अकबर इलाहाबादी की यही ताकत है कि वे जितने प्रासंगिक अपने दौर में थे, उससे कहीं ज्यादा प्रासांगिक आज हो चले हैं. वे गजब की ज़िंदादिल शख्सियत थे. उनके क़िस्से बेहद मशहूर हैं. इन क़िस्सों में उनकी हाज़िर जवाबी और मौके से फूट पड़ने वाली सहज शायरी मिसालें हैं. इलाहाबाद से जुड़ा उनका एक ऐसा ही मशहूर क़िस्सा है. एक बार गायिका गौहर जान जानकी बाई के साथ ठहरी थीं. रुखसती के वक़्त उन्होंने अपनी मेज़बान से कहा कि, "मेरा दिल ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से मिलने को बहुत चाहता है." मेजबान जानकी-बाई ने कहा कि, "आज मैं वक़्त मुक़र्रर कर लूंगी, कल चलेंगे."
अगले दिन दोनों अकबर इलाहाबादी के यहां जा पहुंचीं. जानकी-बाई ने तआरुफ़ कराया और कहा, 'ये कलकत्ता की निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ गायिका गौहर जान हैं. आपसे मिलने का बेहद इश्तियाक़ था, लिहाज़ा इनको आपसे मिलाने लायी हूं'.
अकबर इलाहाबादी ने जवाब दिया, "ज़ह-ए-नसीब, वर्ना मैं न नबी हूं न इमाम, न ग़ौस, न क़ुतुब और न कोई वली जो क़ाबिल-ए-ज़यारत ख़्याल किया जाऊं. पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ अकबर रह गया हूं. हैरान हूं कि आपकी ख़िदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूं. ख़ैर एक शेर बतौर यादगार लिखे देता हूं."
ये कह कर मुंदरजा ज़ैल शेर एक काग़ज़ पर लिखा और गौहर जान के हवाले किया.
'ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा.'
उनकी इसी हाज़िरजवाबी ने उनके क़द्रदानों की अच्छी खासी फौज जमा कर दी थी. उनकी पहली नौकरी भी इसी हाज़िरजवाबी की देन थी. उस वक्त वे मैट्रिक पास थे. अट्ठारह साल का नौजवान अकबर हुसैन रिज़वी अर्ज़ी-नवीस की नौकरी की तलाश में अपनी अर्ज़ी लेकर कलक्टर साहब के पास उनके किसी दोस्त का सिफ़ारिशी ख़त लेकर गया.. कलक्टर साहब ने उसकी अर्ज़ी और अपने दोस्त का ख़त लेकर अपने कोट की जेब में रखकर उसे एक हफ़्ते बाद मिलने के लिए कहा. एक हफ़्ते बाद जब अकबर हुसैन ने पहुंचकर कलक्टर साहब को सलाम किया तो वो उसे देखकर बोले – 'तुम्हारी अर्ज़ी मैंने कोट की जेब में तो रक्खी थी पर वो कहीं गुम हो गयी. ऐसा करो, तुम मुझे दूसरी अर्ज़ी लिखकर दे दो.'
अगले दिन अकबर हुसेन अख़बार के पन्ने की साइज़ की अर्ज़ी लिखकर कलक्टर साहब के पास पहुंचा. कलक्टर साहब ने हैरानी और नाराज़ी के स्वर में पूछा — 'ये क्या है?' अकबर हुसैन ने बड़े अदब से जवाब दिया — 'हुज़ूर, ये अर्ज़ी-नवीस की नौकरी के लिए मेरी अर्ज़ी है. आपकी जेब में यह गुम न हो जाय इसलिए इसको इतने बड़े कागज़ पर लिखकर लाया हूं. कलक्टर साहब अकबर हुसैन के जवाब से इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे फ़ौरन अर्ज़ी-नवीस की नौकरी दे दी.
अकबर इलाहाबादी तालीम के जमकर हिमायती थे मगर उनकी नज़र में तालीम डिग्रियों का कोई कारख़ाना नही थी. इसीलिए वे डिग्री की धौंस दिखाने वालों को हमेशा ही क़ाबू में रखते थे. एक हजरत उनके घर पहुंचे. उनके पास अंग्रेजी में छपा विजिटिंग कार्ड था जिसमें नीचे फाउंटेन पेन से लिखा था बीए पास. वे अकबर साहब के घर में विजिटिंग कार्ड भेजकर इंतजार करने लगे. थोड़ी देर में अंदर से एक पर्ची आई. उसमें लिखा था-
'शेख जी निकले न घर से और ये फरमा दिया
आप बीए पास हैं तो बंदा बीवी पास है.'
अकबर इलाहाबादी देखते ही देखते अदब की दुनिया का चमकता सितारा बन चुके थे. उनके लिए जिंदगी ज़िंदादिली का दूसरा नाम थी. उनके लतीफ़ों की चर्चा हर तरफ थी. ऐसे में कई ऐसे भी लोग थे जिन्होंने खुद को उनका उस्ताद घोषित कर दिया. ऐसे ही एक शख्स हैदराबाद में थे. जब अकबर तक ये खबर पहुंची कि हैदराबाद में उनके एक उस्ताद का ज़ुहूर हुआ है, तो कहने लगे, "हां मौलवी ‎साहब का इरशाद सच है. मुझे याद पड़ता है मेरे बचपन में एक मौलवी साहब इलाहाबाद में ‎थे.
'वो मुझे इल्म सिखाते थे और मैं उन्हें अक़्ल, मगर दोनों नाकाम रहे. न मौलवी साहब ‎को अक़्ल आई और न मुझको इल्म."‎
एक बार अकबर इलाहाबादी से उनके एक दोस्त मिलने आए. अकबर ने पूछा, "कहिए आज ‎इधर कैसे भूल पड़े." उन्होंने जवाब दिया, "आज शब-ए-बरात है. लिहाज़ा आपसे शबराती ‎लेने आया हूं." अकबर इलाहाबादी ने ऐसा जवाब दिया, कि वे लाजवाब हो गए-
'तोहफ़ा-ए-शबरात तुम्हें क्या दूं‎,
जान-ए-मन तुम तो ख़ुद पटाखा हो.'
उनकी पैनी दृष्टि छोटी से छोटी और आमफहम चीज़ तक जाती थी और वे उसमें भी शायरी की संभावनाएं खोज लेते थे. उन दिनों दाढ़ी मुंडवाने का रिवाज हिंदुस्तान में आम था. लेकिन लार्ड कर्ज़न जब हिंदुस्तान आए तो ‎उनकी देखा-देखी मूंछ भी सफ़ाया होने लगी. अकबर इलाहाबादी की कलम ने इस नए रिवाज़ को भी नही बख्शा. उन्होंने लिखा-
'कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों को सूरत देखिए ‎
आबरू चेहरे की सब फ़ैशन बनाकर पोंछ ली ‎
सच ये है इंसान को यूरोप ने हल्का कर दिया ‎
इब्तिदा दाढ़ी से की और इंतिहा में मूंछ ली.'
उनके लिए शायरी का कोई अलग वक्त मुक़र्रर न था बल्कि ये रोज़मर्रा की ज़िंदगी और घटनाओं से उपजती थी. एक बार अकबर इलाहाबादी दिल्ली में ख़्वाजा हसन निज़ामी के यहां मेहमान थे. सब लोग खाना खाने ‎लगे तो आलू की तरकारी अकबर को बहुत पसंद आयी. उन्होंने ख़्वाजा साहब की दुख़्तर हूर ‎बानो से (जो खाना खिला रही थी) पूछा कि बड़े अच्छे आलू हैं, कहां से आए हैं? ‎उसने जवाब दिया कि मेरे ख़ालू बाज़ार से लाए हैं. इस पर अकबर ने ये शेर पढ़ा-
'लाए हैं ढूंढ के बाज़ार से आलू अच्छे ,
इसमें कुछ शक नहीं हैं हूर के ख़ालू अच्छे.'
1907 ई. में फ़िरंगी सरकार ने अकबर को "ख़ान बहादुर" का ख़िताब दिया और उनको इलाहाबाद युनिवर्सिटी का फ़ेलो भी बनाया गया. 9 सितंबर 1921 ई. को इस महान शायर का इंतकाल हो गया. सोचने वाली बात यह है कि जिस शिक्षा विभाग को चाहिए था कि वो अकबर इलाहाबादी के तरक्की पसंद विचारों से हर तालिबे इल्म के ज़ेहन को रौशन करने की कवायद करें, उसने उनका नाम ही बदल डाला. हालांकि अगर अकबर इलाहाबादी आज होते तो नाम बदलने पर हुए इस हंगामे का भी मज़ा लेते और अपनी मशहूर ग़ज़ल के चंद शेर पढ़ देते-
'हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नही डाला, चोरी तो नही की है.'
अकबर इलाहाबादी आज भी हमारे बीच मौजूद हैं. अपनी लिखे के जरिए. अपने विचारों के जरिए. अपनी सोच के जरिए. उनकी सोच जो हमें सिखाती है कि नाम बदलने से इतिहास नही बदलता. समय नाम बनाने वालों का इस्तक़बाल करता है और इसीलिए इलाहाबाद रहे न रहे अकबर इलाहाबादी का नाम इतिहास में अमर रहेगा.
Next Story