सम्पादकीय

बेनकाब होने लगे आंदोलनजीवी: गुजरात दंगों से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय

Gulabi Jagat
28 Jun 2022 6:58 AM GMT
बेनकाब होने लगे आंदोलनजीवी: गुजरात दंगों से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय
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बेनकाब होने लगे आंदोलनजीवी
डा. अजय खेमरिया। हाल में गृहमंत्री अमित शाह ने गुजरात दंगों से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद जिस तिकड़ी शब्द का प्रयोग किया, वह वास्तव में एक ऐसा गठबंधन है, जो भारत के विरुद्ध लंबे समय से सक्रिय है। लेफ्ट-लिबरल प्रभाव वाला मीडिया, तीस्ता सीतलवाड़ सरीखी कथित सामाजिक कार्यकर्ता और उनकी ओर से चलाए जा रहे एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन भारत की राजनीति, प्रशासन और यहां तक कि न्याय व्यवस्था को भी अपने प्रभाव में लेकर चलते रहे हैं। यह सिलसिला 2014 के बाद कुछ कम तो हुआ है, लेकिन आज भी इसकी जड़ें मजबूत नजर आती हैं। बेशक मोदी सरकार ने एनजीओ के भारत विरोधी एजेंडे को बेनकाब करने के साथ उनकी जड़ों पर प्रहार किया है, लेकिन जनमत को प्रभावित करने के मोर्चे पर अभी देश को इस वर्ग से लंबी लड़ाई लड़नी है।
अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, मानव एवं बाल अधिकार कार्यकर्ता जैसे विशेषणों के साथ यह तिकड़ी भारत विरोधी एजेंडे पर आज भी कार्यरत है। कभी कृषि विशेषज्ञ, कभी राजनीतिक विश्लेषक, कभी मानवाधिकार कार्यकर्ता-हर भेष में हमें इन्हें पहचानने की आवश्यकता है। हर बदलाव का विरोध करना इनकी मूल प्रवृत्ति है। भारत का आत्मगौरव भाव, उसकी अस्मिता, संस्कृति, लोक परंपरा आदि इनके लिए नफरत और हिकारत के विषय हैं। झूठ और सफेद झूठ की सीमा तक विमर्श गढ़ना इनका एकमेव एजेंडा है। दुर्भाग्य से स्वाधीनता के बाद इस गिरोहबंदी को सत्ता प्राधिकार से भरपूर संरक्षण और अंध समर्थन प्राप्त रहा।
तीस्ता को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा, उसे मीडिया के एक हिस्से में कितनी जगह मिली, इसका तथ्यान्वेषण करें तो अमित शाह की बात सही सिद्ध होती है। उन्होंने तिकड़ी के एक हिस्से के तौर पर मीडिया को भी शामिल किया है। कल्पना कीजिए कि किसी दक्षिणपंथी संगठन या उससे जुड़े व्यक्ति को लेकर ऐसे ही किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई टिप्पणी की होती तो अंग्रेजी मीडिया के एक हिस्से से लेकर प्रोपेगैंडा न्यूज पोर्टल पर क्या रुदन सुनने और पढ़ने को मिला होता।
तीस्ता ने गुजरात दंगा पीड़ितों के नाम पर देश-दुनिया से चंदा जुटाया, पीड़ितों के नाम फर्जी शपथपत्र दायर किए, गुजरात फाइल्स के नाम से सफेद झूठ दुनिया में प्रचारित किया और कमाल की बात यह रही कि संप्रग सरकार ने झूठ का कारोबार करने वाली तीस्ता को पद्मश्री सरीखा सम्मान तो प्रदान किया ही, साथ में राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार भी दिया। क्या यह सब पाना किसी सामान्य सामाजिक कार्यकर्ता के लिए संभव होता? निचली अदालतों से लेकर उच्चतर अदालतों तक, सब जगह तीस्ता और उनके साथियों का सफेद झूठ चलता रहा, लेकिन लेफ्ट-लिबरल मीडिया सच से मुंह मोड़े रहा। तीस्ता इस गठजोड की एक प्रतिनिधि भर हैं। देश में तीस्ता जैसे लोग और उनके सरपरस्त भरे पड़े हैं।
संप्रग सरकार के समय पूर्व नौकरशाह हर्ष मंदर के जलवे किसी से छिपे नहीं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में बैठकर मंदर ने देश भर में अपना नेटवर्क खड़ा किया। बगैर अनुमति के दर्जनों चिल्ड्रंस होम खोलकर उनमें रहने वाले अनाथ बच्चों को नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध धरनों में बैठाया। फोर्ड फाउंडेशन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, एक्शन एड, पीपुल्स वाच जैसे तमाम एनजीओ ऐसे हैं, जिनके विरुद्ध पिछले आठ वर्षो में ऐसी गंभीर शिकायतें सरकार के पास आई हैं, जो भारत में अराजकता का माहौल बनाने के उनके मंसूबों को प्रमाणित करती हैं। इसी कड़ी में एक नाम यूनिसेफ का भी है, जो अपनी वैश्विक छवि की आड़ में तमाम एनजीओ को पार्टनर के रूप में बड़ी आर्थिक सहायता उपलब्ध कराता है। यह संस्थागत खामी है कि एफसीआरए से छूट हासिल करने वाला यूनिसेफ अपना बहीखाता सार्वजनिक नहीं करता। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग जैसी संवैधानिक संस्था के तमाम नोटिस के बावजूद यूनिसेफ अपने सहयोगी एनजीओ की सूची देने को तैयार नहीं।
लेफ्ट-लिबरल प्रभाव वाले एनजीओ सरकार के हर महकमे में अपनी पकड़ आज भी बनाए हुए हैं। नेताओं के सामने अफसरशाही ऐसा प्रस्तुतिकरण करती है, मानो सारी विशेषज्ञता एनजीओ वालों के पास ही है। नतीजतन लोककल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं में इन्हीं एनजीओ का बोलबाला है। महिला बाल विकास का एक चौथाई से अधिक बजट जिन एनजीओ के माध्यम से व्यय किया जा रहा है, उनके प्रोफाइल मोदी सरकार के विरोध से भरे पड़े हैं। न्यायपालिका का क्षेत्र भी एनजीओ की चकाचौंध भरी दुनिया से अछूता नहीं। यह किसी से छिपा नहीं कि संदिग्ध किस्म वाले एनजीओ की याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई होती रही है।
मोदी सरकार ने एनजीओ की ओर से मनमाने तरीके से विदेशी चंदा हासिल करने के सिलसिले पर रोक लगाने के लिए एफसीआरए में कई संशोधन किए हैं। इस कानून में संशोधन से पहले 2010 से 2019 के बीच विदेशी चंदे की आमद दोगुनी दर से बढ़ी पाई गई। 2016-17और 2018-19 में विदेशों से 58 हजार करोड़ रुपये भारतीय एनजीओ के खातों में आए। हजारों एनजीओ ऐसे मिले, जो इस कानून में संशोधन से पहले इस्लामिक देशों के साथ कनाडा, फ्रांस, अमेरिका, चीन जैसे देशों से चंदा हासिल करते रहे। सरकार ने करीब 21 हजार ऐसे एनजीओ के लाइसेंस निरस्त किए हैं। इसके बाबजूद देश मे पंजीकृत 33 लाख एनजीओ में से महज 10 प्रतिशत ही अपना हिसाब-किताब सरकार से साझा करते रहे हैं। प्रधानमंत्री जिन आंदोलनजीवियों की ओर इशारा किया था, असल में वे एनजीओवाद का ही एक संस्करण हैं। इनसे सरकार के साथ देश की जनता को भी सावधान रहना होगा।
(लेखक लोकनीति विश्लेषक हैं)
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