सम्पादकीय

हिमाचली भाषा के खिलाफ

Neha Dani
6 Jan 2022 1:44 AM GMT
हिमाचली भाषा के खिलाफ
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कश्मीरी व हिंदी को जो स्तर हासिल हुआ, क्या हम उस स्तर तक भी नहीं पहुंच सकते।

नई शिक्षा नीति की बुनियाद पर भारतीय जन भाषाओं को संबल मिलने की आशा है, उसके विपरीत हिमाचल में यही नीति मातृ भाषा की अवधारणा से ही कन्नी काट रही है। प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष डा. सुरेश कुमार सोनी की मानें, तो हिमाचल में पहाड़ी को जन भाषा के प्रारूप से खुर्द-बुर्द करते हुए यह राज्य सिर्फ हिंदी, संस्कृत और इंग्लिश में पढ़ेगा। यानी जो शिक्षा नीति अपनी केंद्रबिंदु में पांचवीं तक मातृ भाषा, स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई को आठवीं या उससे आगे बढ़ाना चाहती है, उस पर हिमाचल में शून्यता पसर रही है। नई शिक्षा नीति के बहाने हिमाचली भाषा की जरूरत को नकारते हुए शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष ही फर्ज अदा नहीं कर रहे हैं, बल्कि ऐसी वकालत का परिचय कमोबेश हर शिक्षाविद दे रहा। आश्चर्य यह कि ऐसे बयान पर न तो साहित्यकारों और न ही लोक कलाकारों की ओर से कोई आपत्ति दर्ज की गई है। ऐसे में भाषा-संस्कृति विभाग व अकादमी का ढिंढोरची पक्ष किस दावे से पहाड़ी भाषा समारोहों का आयोजन करता है या सांस्कृतिक समारोहों के आयोजनों में कौनसी धूल उड़ाई जा रही है, जो देश का एकमात्र प्रदेश अपनी स्वभाषा से स्वाभिमान जागृत करने के बजाय नई शिक्षा नीति की शर्तों से मातृ भाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा की मूल भावना को ही तिरोहित कर रहा है।

हमसे तो उत्तराखंड बेहतर है, जहां कुल 99 बोलियों में से गढ़वाली और कुमांऊनी को केंद्र की आठवीं अनुसूची में डालने के अलावा ये प्रयास हो रहे हैं कि राज्य में लोक भाषा को लेकर लोक भाषा अकादमी बनाई जाए। पिछले साल से ही 'अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस' यानी 21 फरवरी से उत्तराखंड की सामाजिक संस्थाएं, बुद्धिजीवी वर्ग, कलाकार एवं साहित्यकारों ने 'आखर समिति' के तहत गढ़वाली भाषा को स्थानीय भाषा के रूप में लोक भाषा की मान्यता प्राप्त करने का संघर्ष शुरू किया है। इधर हिमाचल में भाषायी क्षेत्रवाद के तहत कोई यह स्वीकार करने को राजी नहीं कि प्रदेश के 70 फीसदी भाग में प्रचलित बोलियों से स्थानीय भाषा पैदा हो जाती है। हिमाचली भाषा के उदय के लिए बोलियों से जन भाषा की पहचान, अध्ययन, समानता व सांस्कृतिक पक्ष का जुड़ाव अति आवश्यक है। राष्ट्रीय स्तर पर ही बोलियों से भाषा की संरचना में तमिल, बांग्ला, असमिया, उडि़या, तेलगू, मलयालम, मराठी, गुजराती व पंजाबी साहित्यकारों तथा कलाकारों का महती योगदान रहा है। यहां भी कुलदीप शर्मा अगर 'रोहडू जाना मेरी आमिए' से शुरू होकर 'इन्हां बडि़यां जो तड़का लाणा' तक पहुंच जाते हैं, तो यह हिमाचली संस्कृति व भाषा का उन्नयन है। आज मराठी भाषा में साहित्यिक श्रेष्ठता दिखाई देती है या इससे रंगमंच प्रतिष्ठित हुआ, तो यह 65 बोलियों का सम्मिश्रण है। कोंकणी को हम जिस भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं, वह 16 बोलियों से बनी है। उडि़या में 24 बोलियां तो बांग्ला भाषा में 15 बोलियां समाहित हैं। तमिल ने खुद को 24 बोलियों से उभारा है, तो द्रविड़ भाषा परिवार 161 मातृ बोलियों से फलता-फूलता परिचय है।
ऐसे में हिमाचल की 30 के करीब बोलियों में झांकने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थानीय भाषाओं को सर्वोच्च महत्त्व देते हुए रूस, चीन, जापान व फ्रांस आदि देशों ने भारत की शिक्षा नीति को प्रेरित किया है। नई शिक्षा नीति का वास्तविक उद्देश्य भी यही है कि देश स्वभाषा से स्वाभिमान जागृत करता हुआ अपनी परंपराओं और संस्कृति से अलग न हो। इससे बोलियों को संरक्षण और भाषायी संदर्भ बदलने की ऊर्जा पैदा होगी। कमोबेश हर राज्य इस अवधारणा में अपनी बोलियों का संरक्षण करते हुए आगे बढ़ा है। हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष त्रिभाषा फार्मूला गढ़ते हुए भले ही क्षेत्रीय भाषा या स्थानीय भाषा के संकल्प को चकनाचूर कर दें, लेकिन जिस हिंदी भाषा को वह सर्वोपरि मान रहे हैं, उसको प्रमुख बोलियों- बुंदेली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, खड़ी बोली (कौरवी), अवधी बोली, बघेली बोली और भोजपुरी से अलग करके कितना स्पष्ट कर पाएंगे। कहना न होगा कि हर भाषा के पीछे बोलियां रहंेगी, लेकिन मातृ, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा के संगम पर सर्वप्रथम बोलियों का संरक्षण जरूरी है। बहुत पहले शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश को हिंदी भाषी घोषित करते हुए हमें डोगरी से भी पीछे कर दिया था और इसी प्रारूप में स्कूल शिक्षा बोर्ड, विभाग व विश्वविद्यालयों के मठाधीश भी चोर दरवाजे से हिमाचली भाषा के उद्गम को नजरअंदाज कर रहे हैं। हिमाचल की कई पश्चिमी पहाड़ी बोलियां उस धरातल पर खड़ी हैं, जहां से डोगरी, पंजाबी और पाकिस्तान की कई पहाड़ी बोलियां आपस में मेलजोल करती हैं। जम्मू-कश्मीर के आधिकारिक भाषा विधेयक को 2020 में मंजूरी मिलने के बाद डोगरी, कश्मीरी व हिंदी को जो स्तर हासिल हुआ, क्या हम उस स्तर तक भी नहीं पहुंच सकते।


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