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सम्पादकीय
मुस्लिम वेंडरों के विवाद के बाद अब कर्नाटक में फूड सैंपल के परीक्षण में कमी पर उठे सवाल
Gulabi Jagat
5 April 2022 1:55 PM GMT
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अब कर्नाटक में फूड सैंपल के परीक्षण में कमी पर उठे सवाल
डॉ. सिल्विया करपगम
जुलाई 2021 तक कर्नाटक (Karnataka) में 44,501 रजिस्टर्ड फूड बिजनेस यूनिट थीं, लेकिन राज्य में अब तक फूड सेफ्टी (Food Safety) की जांच के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है. अप्रैल 2019 से दिसंबर 2020 के दौरान बेंगलुरु, मैसूर, बेलागावी और कलबुर्गी में स्थित चार सरकारी प्रयोगशालाओं में 7324 सैंपल की जांच की गई, जिनमें 553 मिलावटी पाए गए. वहीं, फरवरी 2020 से जनवरी 2021 के दौरान FSSAI (फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया) द्वारा अप्रूव्ड दो प्राइवेट लैब में 6549 सैंपल की जांच की गई.
इनमें 153 सैंपल मिलावटी पाए गए. दिसंबर 2020 में इन चारों सरकारी लैब के लाइसेंस FSSAI ने NABL (नेशनल एक्रिडिटेशन बोर्ड फॉर टेस्टिंग एंड कैलिब्रेशन लेबोरेटरीज) मान्यता नहीं होने की वजह से रद्द कर दिए. कर्नाटक के फूड सेफ्टी कमिश्नरेट ने भी 55 फूड सेफ्टी अधिकारियों की योग्यता जांचने के लिए जांच समिति बनाने का अनुरोध किया, क्योंकि वे एक महीने के दौरान न्यूनतम 985 सैंपल की जांच भी नहीं कर पा रहे थे. 2019 तक कर्नाटक में केवल 49 फुल टाइम फूड सेफ्टी ऑफिसर्स (FSO) थे. इनके अलावा 114 लोग संविदा पर काम कर रहे थे, जबकि 210 भर्तियां पेंडिंग थीं.
फूड सेफ्टी से संबंधित मसलों की समीक्षा Gizaw (2019) द्वारा की जाती है
फूड सेफ्टी का मतलब भोजन में उन खतरनाक पदार्थों को नियंत्रित और सीमित करना है, जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं. इसमें भोजन का प्रोडक्शन, हैंडलिंग, स्टोरेज, पैकिंग, पैकेजिंग, ट्रांसपोर्ट और तैयारी शामिल है. साल 2020-21 के दौरान फूड सेफ्टी इंडेक्स में कर्नाटक को नौवें पायदान पर रखा गया था. यह रैंकिंग पांच मानकों ह्यूमन रिसोर्सेज और इंस्टिट्यूशनल डेटा, कंप्लायंस, फूड टेस्टिंग फैसिलिटी, ट्रेनिंग, कैपेसिटी बिल्डिंग और कंज्यूमर एमपावरमेंट के आधार पर की गई थी.
फूड मार्केट में आम जनता को नुकसान पहुंचाने वाले फूड सेफ्टी से संबंधित मसलों की समीक्षा Gizaw (2019) द्वारा की जाती है. इस सिस्टम के तहत आम जनता के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले सात सामान्य मसलों की पहचान की गई, जिनमें वायरस के कारण खाना खराब होना, केमिकल की वजह से खाना खराब होना, खाने में मिलावट, फूड एडिटिव का गलत इस्तेमाल, गलत लेबलिंग, जेनेटिकली मोडिफाइड फूड और पुराने खाद्य पदार्थ या एक्सपायर्ड सामान का इस्तेमाल शामिल है.
उत्पादन प्रक्रिया जैसे प्रोडक्शन, मैन्युफैक्चरिंग, प्रोसेसिंग, प्रीप्रेशन, पैकिंग, ट्रांसपोर्ट और स्टोरेज आदि के दौरान दूषित हुआ खाना जाने-अनजाने में जहरीला, संक्रमित या खतरनाक भी हो सकता है. यह वायरस या केमिकल की वजह से हो सकता है.
वायरस की वजह से खाना खराब होना
यह बैक्टीरिया, वायरस, परजीवी या फंगस के कारण होता है. इसे स्वाद, गंध और स्थिरता आदि में बदलाव के कारण पहचाना जा सकता है. हालांकि, कभी-कभी इसकी वजह से पेट में गड़बड़ हो सकती है, जो खुद-ब-खुद ठीक हो जाती है. वहीं, कई बार हालत इतनी बिगड़ जाती है कि अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है और काफी वक्त तक मरीज की देखभाल करनी पड़ती है.
अधिकांश देशों में खाद्य जनित जीवाणु और फंगस गंभीर बीमारी, मृत्यु और आर्थिक बोझ के प्रमुख कारण हैं, लेकिन उन्हें नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त काम नहीं किया जा रहा है. पशु चिकित्सा और इंसानों की दवाओं में रोगाणुरोधी का काफी ज्यादा इस्तेमाल और गलत प्रयोग की वजह से प्रतिरोधी बैक्टीरिया पनपने और उसके फैलने का कारण बन सकता है, जिसकी वजह से जानवरों और इंसानों के संक्रामक रोगों का इलाज अप्रभावी हो गया है. यह प्रतिरोधी बैक्टीरिया जानवरों के माध्यम से फूड चेन में एंट्री करते हैं, जैसे साल्मोनेला मुर्गियों के माध्यम से फैलता है.
परजीवी जीवाणु आम लोगों को भोजन, जानवरों के सीधे संपर्क या पानी या मिट्टी के माध्यम से संक्रमित कर सकते हैं. Prions संक्रामक प्रोटीनयुक्त एजेंट होते हैं, जो न्यूरोडीजेनेरेटिव रोग के विशिष्ट रूपों से ताल्लुक रखते हैं. बोवाइन स्पॉन्जिफॉर्म एन्सेफैलोपैथी या "मैड काउ डिसीज" मवेशियों में पाया जाने वाला प्रमुख रोग है और ब्रेन टिसूज वाले बोवाइन प्रोडक्ट्स के सेवन से इंसानों में क्रूट्ज़फेल्ड-जेकोब बीमारी हो सकती है.
केमिकल की वजह से खाना खराब होना
प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले रासायनिक विषाक्त पदार्थों और पर्यावरणीय रासायनिक प्रदूषकों की वजह से दूषित होने वाला भोजन खाने की वजह से होने वाली बीमारी का अहम सोर्स हो सकता है. हालांकि, इसके कारणों को बता पाना मुश्किल हो सकता है. प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थ जैसे मायकोटॉक्सिन, मरीन बायोटॉक्सिन, सायनोजेनिक ग्लाइकोसाइड आदि होते हैं, जो मुख्य खाद्य पदार्थों जैसे मक्का, अनाज, मछली, जंगली (जहरीले) मशरूम आदि में मिल सकते हैं.
हालांकि, इनमें से कुछ को स्पेशल ट्रीटमेंट, प्रोसेसिंग और कुकिंग आदि के माध्यम से नष्ट किया जा सकता है. वहीं, कुछ किसी भी हालत में नष्ट नहीं हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, आलू का वह हिस्सा, जो नया या हरा होता है, उसमें सोलनिन हो सकता है. यह हिस्सा जहरीला होता है, जो पकाने के बाद भी नष्ट नहीं होता है. ऐसे में इसे पकाने से पहले हटाना जरूरी होता है. गोभी में थियोग्लाइकोसाइड होते हैं, जो कम आयोडीन वाला आहार लेने वालों में खप सकता है, लेकिन थायरॉइड बढ़ने का कारण बन सकते हैं. इसी तरह कुछ मछलियां या मशरूम प्राकृतिक अवस्था में बेहद जहरीले हो सकते हैं.
पर्यावरणीय प्रदूषक ऐसी मिलावट है, जो या तो इंसानी गतिविधियों की वजह से भोजन में मिल जाती है या हवा, पानी और मिट्टी की वजह से प्राकृतिक रूप से पाई जाती है. डाइऑक्सिन और पॉलीक्लोराइनेटेड बाइफिनाइल (पीसीबी) जैसे स्थायी ऑर्गेनिक पॉल्यूटेंट्स औद्योगिक प्रक्रियाओं और अपशिष्ट भस्मीकरण के कारण बनने वाले अनचाहे उप-उत्पाद हैं, जो पर्यावरण, इंसानी शरीर और फूड चेन में जमा होते हैं, जिससे कई गंभीर और छोटी समस्याएं हो सकती हैं.
केमिकल सेफ्टी को लेकर चिंताएं काफी समय से बरकरार हैं
हालांकि, शॉर्ट टर्म एक्सपोजर से त्वचा पर घाव और एलर्जी आदि के लक्षण नजर आ सकते हैं. वहीं, लॉन्ग टर्म एक्सपोजर इम्यून, प्रजनन, अंतःस्रावी और हार्मोनल सिस्टम को प्रभावित कर सकता है. पेस्टीसाइड्स, इनसेक्टिसाइड्स, हर्बीसाइड्स और फंगीसाइड्स के दुरुपयोग के कारण भोजन की केमिकल सेफ्टी को लेकर चिंताएं काफी समय से बरकरार हैं. इनका इस्तेमाल अक्सर अंधाधुंध तरीके से किया जाता है. खासकर तब, जब खराब विनियमित हो या उनके दुष्प्रभावों के बारे में अपर्याप्त प्रशिक्षण या कम जानकारी हो. भले ही अधिकतम आहार सेवन (FDI) और अधिकतम अवशिष्ट सीमा (MRL) के आधार पर इनकी सीमाएं स्वीकार्य हों.
इंफेंट फॉर्म्युला में पथैलेट्स, भोजन में ओस्ट्रोजेनिक एक्टिविटी वाले पदार्थ और पशु चिकित्सा दवाओं के अवशेष आदि ने भी लोगों की सुरक्षा के प्रति चिंता बढ़ा दी है. बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (ATREE) ने अपने लेख में लिखा है कि पीन्या औद्योगिक क्षेत्र से झीलों में बिना ट्रीट किए डाले जाने वाले औद्योगिक अपशिष्ट से नॉन-बायोडिग्रेडेबल रासायनों और भारी धातुओं का स्तर काफी बढ़ गया है. जब इस दूषित पानी का इस्तेमाल खेतीबाड़ी के लिए किया जाता है तो यह किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के लिए जहरीलेपन का खतरा भी बढ़ाता है.
जबकि कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (KSPCB) ने इस मुद्दे का समाधान निकालने के लिए एक कार्ययोजना बनाई थी. इसके तहत यह तय हुआ था कि पहले से फैले प्रदूषण को लेकर कदम उठाना अच्छी रणनीति नहीं है, क्योंकि उसकी वजह से आंशिक और गंभीर परिणाम पहले ही सामने आ चुके हैं.
सब्जियों का रंग मैलाकाइट से हरा किया जाता है
भोजन में मिलावट का मतलब खाने-पीने के सामान में आंशिक या पूर्ण रूप से प्रतिबंधित वस्तुओं को मिलाना है, जिससे बासी पदार्थों को ताजा दिखाकर आर्थिक फायदा हासिल किया जा सके. उदाहरण के लिए मिठाइयों का रंग पीला दिखाने के लिए रोडामाइन बी का इस्तेमाल किया जाता है. इसी तरह मिर्च पाउडर में ईंट का बुरादा या टेल्क पाउडर मिलाया जाता है. सब्जियों का रंग मैलाकाइट से हरा किया जाता है. हल्दी पाउडर में लेड क्रोमेट तो शहद में गुड़ या चीनी की चाशनी मिलाई जाती है. देब पाल ए. और जैन ए. (2018) में जांच के दौरान पाया था कि अनपैक्ड तेल के 39.3 फीसदी और पैक्ड तेल के 31.3 फीसदी सैंपल मिलावटी थे. बता दें कि तेल मिलावट के मामले में उच्च आय वर्ग (58-83 फीसदी) के लोग निम्न आय वर्ग (10-56 फीसदी) से ज्यादा जागरूक थे.
जेनेटिक इंजीनियरिंग की वजह से प्रजातियों के आरएनए और डीएनए जैसी वंशानुगत सामग्री में गड़बड़ी हो सकती है और इसका इस्तेमाल आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) खाद्य पदार्थों के लिए किया जा रहा है. ये प्रक्रियाएं अक्सर पारदर्शी नहीं होती हैं और उनके असर को पूरी तरह समझे बिना आम जनता पर थोपा जा रहा है. इनमें से कई में तो बदलाव भी नहीं हो सकता है.
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा 2018 में की गई एक स्टडी में सामने आया था कि देश में जीएम फूड की अनुमति नहीं है. इसके बावजूद स्थानीय स्तर पर तैयार होने वाले और आयात किए जाने वाले खाद्य तेलों, प्रोसेस्ड और पैकेज्ड फूड के अलावा इंफेंट फूड आइटम्स के कई नमूनों में जीएम अंश पाए गए. 32 फीसदी सैंपलों में जांच के दौरान जीएम अंश पाया गया था. इनमें से अधिकतर आयात किए गए थे. स्टडी में सामने आया कि आनुवंशिक रूप से मोडिफाइड खाद्य पदार्थों की वजह से अल्जाइमर, स्ट्रोक, पार्किंसंस, गुर्दे की गंभीर बीमारी, किडनी फेलयर, कैंसर के कई रूप, सांस, गैस्ट्रो-इनटेस्टाइन संबंधी बीमारी, हार्मोनल असंतुलन, इम्यून सिस्टम में दिक्कत और एलर्जी आदि की दिक्कत हो सकती है. यही वजह है कि विशेष रूप से भारत में जीएम फूड को लेकर ज्यादा ईमानदारी बरतने की जरूरत है.
फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड
फूड हैंडलिंग से लेकर मार्केटिंग, ट्रांसपोर्टेशन, एग्रीकल्चर प्रैक्टिस, प्रोडक्शन और फूड सप्लाई चेन तक हर स्टेज पर फूड सेफ्टी स्ट्रैटजी को लागू किया जाना चाहिए. प्रशिक्षण, इंफ्रास्ट्रक्चर, लैब्स और मानव संसाधन पर निवेश करने की जरूरत है, जिससे फूड सेफ्टी में मौजूद गैप से बचाव और उन्हें रोका जा सके. व्यवसायों और उद्योगों को प्रदूषण रोकने और उनके द्वारा बनाए और बाजार में आने वाले खाद्य पदार्थों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जवाबदेह होने की जरूरत है. भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण (FSSAI) की प्राथमिक जिम्मेदारियों में से एक यह है कि वह राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों और नियामक ढांचा तैयार करके खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता मानकों को सुनिश्चित करे और लोगों की सेहत की रक्षा करे. बता दें कि FSSAI फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट 2006 के तहत काम करती है. FSSAI को सार्वजनिक डोमेन में नियमित रूप से खाद्य सुरक्षा पर रिपोर्ट भी पेश करनी चाहिए.
रेहड़ी-पटरी वालों, भोजनालयों, रेस्तरां, सुपरमार्केट, खुले बाजारों, कसाइयों, मछली विक्रेताओं आदि को खाद्य पदार्थों के रखरखाव और स्टोरेज के उचित तरीकों के अलावा विशेष रूप से दूषित या खराब खाद्य पदार्थों की पहचान और प्रबंधन के बारे में नियमित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. प्रशिक्षण में पैकिंग के तरीके और अच्छी गुणवत्ता वाली पैकेजिंग के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए. कभी-कभी स्ट्रीट फूड को असुरक्षित बताते हुए उस पर निशाना साधा जाता है. दरअसल, फूड सेफ्टी के नाम पर इस तरह की मुहिम बड़े कारोबारियों द्वारा स्ट्रीट वेंडर्स को हटाने के मकसद से चलाई जा सकती हैं. स्ट्रीट फूड का फायदा यह है कि इसमें इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री और तैयार करने की विधि काफी हद तक आपके सामने होती है. यहां खाने का सामान आपके सामने ही पकाया और तुरंत ही गरम-गरम परोसा जाता है, लेकिन इसके स्टोरेज और दोबारा गरम करने की गुंजाइश काफी कम होती है.
हेल्थ सिस्टम को असुरक्षित फूड की वजह से होने वाली दिक्कतों का डाटा जुटाने, उसकी पहचान और इलाज करने को लेकर बेहतर ढंग से तैयार किया जाना चाहिए. पैकेजिंग के लिए उचित गुणवत्ता के मानकों को पूरा करना चाहिए. कर्नाटक में मुस्लिम विक्रेताओं के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान के बाद यह मुद्दा सामने आया कि खाद्य सुरक्षा मानकों के लिए जिम्मेदार अधिकारी कमजोर समुदायों के विक्रेताओं को परेशान करने, डराने और जबरन वसूली करने के लिए अपने पदों का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसलिए, बुनियादी नैतिकता, गैर-भेदभाव और आचार संहिता को लेकर ट्रेनिंग रेगुलेटर्स बेहद अहम हैं.
(डॉ. सिल्विया करपगम चिकित्सक हैं और राइट टू फूड और राइट टू हेल्थ अभियान का हिस्सा हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
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