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अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को तीन सप्ताह बीत चुके हैं, लेकिन
दिव्याहिमाचल.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को तीन सप्ताह बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक सर्वसम्मत हुकूमत नहीं बन पाई है। तालिबान में कई आतंकी गुट हैं। वर्चस्व की उनकी अपनी-अपनी भूख है, लेकिन अफगानिस्तान में गरीबी और भुखमरी के कारण हालात नाज़ुक हैं। तालिबान के खिलाफ कई तरह के विद्रोह फूट चुके हैं। पंजशीर घाटी में तो जंग जारी है। इधर काबुल, हेरात, कंधार आदि प्रांतों में औरतें सड़कों पर आंदोलन कर रही हैं। उन्हें तालिबान हुकूमत कबूल नहीं है। औरतों को मार-पीट कर लहूलुहान किया जा रहा है। आंसू गैस के गोले भी छोड़े गए हैं। जबरन निकाह कराए जा रहे हैं। दरिंदगी का सबसे भयावह उदाहरण खातिरा हाशमी का है, जिसकी दोनों आंखें चाकू से गोद-गोद कर बाहर निकाल दी गई हैं। वह पुलिस में काम करती थी, जो तालिबान को कबूल नहीं था। अब खातिरा दृष्टिहीन और बेसहारा है। किसी तरह भारत में आ गई है। सवाल है कि अब किस तरह का अफगानिस्तान होगा? कोरोना-काल से पहले अफगानिस्तान में 54.2 फीसदी लोग गरीबी-रेखा से नीचे थे, लेकिन अब करीब 72 फीसदी आबादी गरीबी-रेखा के नीचे जीने को विवश है। देश में औसतन एक-डेढ़ माह के खाद्यान्न शेष हैं और 40 फीसदी फसल सूख कर बर्बाद हो चुकी है। निश्चित तौर पर 1.4 करोड़ लोगों के सामने खाने का भीषण संकट है। एक और सर्वेक्षण सामने आया है कि अफगानिस्तान में औसतन 3 में से 1 व्यक्ति भूखा है और उसकी आजीविका भी छिन चुकी है। संयुक्त राष्ट्र ने 13 सितंबर को मंत्री-स्तरीय बैठक बुलाई है।
संगठन के प्रमुख एंतोनियो गुतारेस ने अफगानिस्तान में बढ़ रहे मानवीय संकट से निपटने का आह्वान किया हैै। संयुक्त राष्ट्र ने 2021 के लिए 1.3 अरब डॉलर की मदद की अपील की है, ताकि 1.80 करोड़ से अधिक लोगों तक कमोबेश खाद्य मदद पहुंचाई जा सके। संयुक्त अरब अमीरात ने खाद्यान्न और अन्य वस्तुओं से भरा एक विमान काबुल भेजा है। अलबत्ता अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी समेत यूरोपीय संघ और नाटो के देशों ने फिलहाल किसी मदद का ऐलान नहीं किया है। आर्थिक मदद पर तो उनकी पाबंदियां पहले से ही हैं। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था चलाने और तमाम जरूरी संसाधन जुटाने के मद्देनजर देश को 6 अरब डॉलर की राशि चाहिए, जबकि घरेलू स्तर पर 1.5 अरब डॉलर ही जुटाना संभव है। शेष पूंजी कहां से आएगी और देश को चलाना कैसे संभव होगा? अफगानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 41 फीसदी हिस्सा विदेशी फंड पर ही आश्रित रहा है। अफगानिस्तान पर चौतरफा प्रतिबंध लगे हैं। अमरीका ने अफगान सेंट्रल बैंक को सीज कर रखा है, जिसमें 700 करोड़ डॉलर रिजर्व थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने करीब 46 करोड़ डॉलर की आकस्मिक मदद पर रोक लगा रखी है। वह मदद किसी भी देश की सरकार को ही दी जाती है, लेकिन अफगानिस्तान में फिलहाल कोई सरकार और प्रशासन नहीं है। बीते 8 महीने के अंतराल में 5.70 लाख अफगान लोग विस्थापित हो चुके हैं। करीब 20 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.
संयुक्त राष्ट्र की रपट है कि कुल 5 लाख से ज्यादा लोग देश छोड़ कर भाग सकते हैं। उन्हें 'शरणार्थी का दर्जा मिलेगा, यह भी एक पेचीदा और गंभीर सवाल है। इसी माहौल में तालिबान मान रहे हैं कि चीन देश का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सहयोगी होगा। चीन की चालाक निगाहें देश के 6 लाख करोड़ रुपए से अधिक के खनिज भंडार पर हैं। अफगानिस्तान में कच्चे तेल और गैस के भंडार भी हैं। चीन ने पिछली सरकार में 25 साल का ठेका ले लिया था, ताकि वह खुदाई करके 'बहुमूल्य संपदा तक पहुंच सके। ऐसे हालात में चीन अफगानिस्तान की कितनी मदद करेगा, यह भी देखना और घोषित किया जाना शेष है। इधर तालिबान के आतंकी वर्चस्व की लड़ाई में भी जुटे हैं कि हुकूमत में किसे कितनी ताकत मिलेगी? अब पाकिस्तान की भागीदारी भी खुलकर सामने आ गई है, जब काबुल में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मुखिया जनरल फैज़ हमीद को सरेआम देखा गया। एक देश के 'मुख्य जासूसÓ की दूसरे देश की हुकूमत बनवाने में क्या भूमिका हो सकती है? या वह आर्थिक और कारोबारी संदर्भ में क्या बातचीत कर सकता है? साफ है कि नई हुकूमत में पाकिस्तान अपनी हिस्से की 'धूपÓ चाहता है। बहरहाल अफगानिस्तान में अंतत: क्या होगा और फिर हुकूमत अपनी अवाम को क्या-क्या मुहैया करा सकेगी, फिलहाल दुनिया को टकटकी लगाकर देखना ही है।
Gulabi
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