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पोलिश साइकॉलजिस्ट और फिलॉसफर एलिस मिलर अपनी किताब “द प्रिजनर्स ऑफ चाइल्डहुड” में लिखती हैं
मनीषा पांडेय पोलिश साइकॉलजिस्ट और फिलॉसफर एलिस मिलर अपनी किताब "द प्रिजनर्स ऑफ चाइल्डहुड" में लिखती हैं कि वयस्कों की दुनिया बच्चों के प्रति इतनी हिंसक और क्रूर है कि पूरी दुनिया में हर तीसरा बच्चा दो से 15 साल की उम्र के बीच किसी-न-किसी रूप में मेंटल, फिजिकल, इमोशनल और सेक्सुअल वॉयलेंस का शिकार होता है और ये हिंसा उन लोगों के द्वारा की जा रही होती है, जो बच्चों के प्राइमरी केयरगिवर हैं. जिन पर उनके पालन और संरक्षण की जिम्मेदारी है.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की वेबसाइट पर मौजूद ये आर्टिकल पिछले साल 8 जून को प्रकाशित हुआ, जिसकी हेडलाइन है- "वॉयलेंस अगेन्स्ट चिल्ड्रेन." इस आर्टिकल में आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि पिछले साल यानि 2019 में पूरी दुनिया में 2 से 17 आयु वर्ष के तकरीबन एक अरब बच्चे मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और यौन हिंसा का शिकार हुए. कोविड के दौरान छपा यह आर्टिकल यह संभावना व्यक्त करता है कि कोविड महामारी और लॉकडाउन के दौरान घर से बाहर के स्पेस में बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा में कमी जरूर आई है, लेकिन संभवत: घरों के अंदर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हिंसा में चार गुने का इजाफा हो सकता है. इसकी पुष्टि अगले साल के आंकड़ों के बाद ही होगी.
इन सारे आंकड़ों से गुजरने की मेरी जद्दोजहद उस समय में हो रही है, जब मैंने दो दिन पहले ही डॉ. गाबोर माते की किताब "होल्ड ऑन टू योर किड्स" पढ़कर खत्म की है. इस किताब में डॉ. माते दुनिया के प्रमुख साइंस जनरलों में छपे अध्ययनों, सर्वे के हवाले से कहते हैं कि पिछले तीन दशकों में पूरी दुनिया में बच्चों में ऑटिज्म, एडीएचडी (अटेंशन डिफिसिट हायपरएक्टिविटी डिसऑर्डर), अस्थमा, डिप्रेशन, ऑटो इम्यून बीमारियों समेत साइकॉलजिकल इलनेस की संख्या में 37 फीसदी का इजाफा हुआ है. आज की तारीख में पूरी दुनिया में हर छठा बच्चा किसी न किसी रूप में फिजिकल और साइकोलॉजिकल इलनेस का शिकार है.
डॉ. माते तर्क करते हैं कि बीमारियों में इस आश्चर्यजनक इजाफे की वजह माता-पिता से मिले जीन कतई नहीं है क्योंकि मनुष्यों के जीन ऐसे तीन-चार पीढि़यों में नहीं बदलते. दस पीढ़ी में भी नहीं बदलते. वे कहते हैं कि इसकी वजह प्राइमरी केयरगिवर्स यानि पैरेंट्स, टीचर्स और आसपास मौजूद वयस्कों के साथ बच्चों का डिसकनेक्ट है. वो सैकड़ों केस स्टडीज और मेडिकल डेटा के साथ यह तर्क करते हैं कि बच्चों में बढ़ती बीमारियों की वजह यह है कि एक परिवार और समाज की इकाई के रूप में हम अपने बच्चों को सुरक्षित रखने, उनके मानसिक और भावनात्मक विकास की गारंटी करने में बुरी तरह असफल हुए हैं.
किताब में एक जगह डॉ. माते आधुनिक विकास के तमाम मिथकों को तोड़ते हुए कहते हैं कि इंसानियत के लिए मंगल ग्रह पर कॉलोनी बनाने से ज्यादा जरूरी है कि वो अपने बच्चों को लेकर ज्यादा गंभीर हो और अपने रिसोर्सेज का आधा हिस्सा सिर्फ बच्चों पर खर्च करे.
आज के बच्चे यानि कल का भविष्य. कल का नागरिक. कल का इंसान.
लेकिन हम कल का वो इंसान किस तरह गढ़ रहे हैं? हम उनके साथ क्या कर रहे हैं? हम उन्हें कितना प्यार, कितना सुरक्षा, कितना आश्वासन दे पा रहे हैं कि उनके सिर पर बड़ों का साया है. कोई है जो जिम्मेदार है, जो उन्हें प्रोटेक्ट कर रहा है.
फिर वो प्रोटेक्टर चाहे घर में माता-पिता हों, स्कूल में शिक्षक, सड़क पर दूसरे वयस्क, पुलिस और न्यायालय के भीतर बैठे जज.
ये सब मिलकर सम्मिलित रूप से हमारे बच्चों के साथ क्या कर रहे हैं?
इस साल जनवरी में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज के केस में एक ऐसा विचित्र फैसला सुनाया था, जिस पर देश भर में काफी हंगामा हुआ. भारत के अटॉर्नी जरनल से स्वयं हस्तक्षेप करते हुए हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें जज ने कहा था कि कपड़े के ऊपर से बच्ची को छूना अपराध नहीं है क्योंकि स्किन टू स्किन टच तो हुआ ही नहीं है. उन्हीं जज ने उसी महीने पॉक्सो के एक और केस में फैसला सुनाते हुए कहा था कि छोटी बच्ची के सामने अपने पैंट की जिप खोलना भी गंभीर अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा. यहां भी उनका तर्क यही था कि स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ है.
अब इन दोनों बेहद तकलीफदेह फैसलों को भी शर्मसार करता हुआ इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक और फैसला आया है, जिसमें जज ने कहा कि 10 साल के बच्चे के साथ ओरल सेक्स करना 'गंभीर यौन हमला' (Serious Offence) नहीं है. यूंकि यह पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट नहीं है, इसलिए इसमें पॉक्सो की धारा 6 और 10 के तहत सजा नहीं सुनाई जा सकती. यह सिर्फ पॉक्सो एक्ट की धारा 4 के तहत दंडनीय अपराध है. साथ ही जज ने इस केस में निचली दआलत के द्वारा दी गई 10 साल कारावास की सजा को कम करते हुए उसे 7 साल कर दिया है. सोनू कुशवाहा की अपील पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति अनिल कुमार ओझा ने यह विचित्र फैसला सुनाया है, जिसे लेकर फिलहाल उतना हंगामा मचता तो नहीं दिख रहा, जितना बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के बाद मचा था.
इस केस में जिस बच्चे के साथ सोनू कुशवाहा नाम के आदमी ने जबर्दस्ती ओरल सेक्स किया, उसकी उम्र 10 साल थी. वो बच्चे को घुमाने के बहाने उसके घर से ले गया, बच्चे को ओरल सेक्स करने के लिए मजबूर किया और उसके बाद अपना मुंह बंद रखने के लिए उसे 20 रु. दिए. साथ ही धमकी भी कि वो ये बात किसी से न कहे.
एलिस मिलर के शब्दों में कहूं तो "न्यायालय और न्यायालय में न्याय की कुर्सी पर बैठे हुए वयस्क उन्हीं लोगों की श्रेणी में आते हैं, जिन पर बच्चों की सुरक्षा का दारोमदार है." अगर एक बच्चा अपने साथ होने वाली किसी भी गलत हरकत का खुद विरोध कर सकता तो पॉक्सो कानून की जरूरत ही क्या थी. जज और वकीलों की क्या जरूरत थी. ये सब इसीलिए हैं क्योंकि बच्चे इतने वलनरेबल होते हैं कि वो खुद को प्रोटेक्ट नहीं कर सकते. उन्हें प्रोटेक्ट करना वयस्कों की जिम्मेदारी है
पिछले केस में और इस केस में भी बात सिर्फ कानून की धाराओं और उनकी व्याख्याओं की नहीं है, बात उस दायित्वबोध की है, उस भावना की, उस जिम्मेदारी की, जो हरेक वयस्क में बच्चों के प्रति होनी चाहिए.
न्यायमूर्ति अनिल कुमार ओझा अगर अपने मन में भी उस दृश्य की भयावहता की कल्पना कर पाते कि एक वयस्क मर्द ने एक दस साल के बच्चे के मुंह में जबरन अपना पेनिस देकर उसे ओरल सेक्स देने के लिए मजबूर किया तो क्या वो धारा 6, 10 और 4 के फेर में पड़ते. क्या वो सचमुच अपने फैसले में इन शब्दों का इस्तेमाल करते कि "ओरल सेक्स गंभीर यौन हमला" नहीं है.
पूरे चर-अचर जगत में कोई जीव ऐसा नहीं, जो अपने बच्चों के प्रति प्रोटेक्टिव न हो. जिन जीवों का जीवन दूसरे जीवों को मारकर खाने पर निर्भर है, वो भी बच्चों को नहीं मारते. कठोर से कठोर जीव भी बच्चों को क्षति नहीं पहुंचाता. संभवत: मनुष्य इकलौता ऐसा जीव है, जो अपने बच्चों के प्रति भी इतना कठोर और क्रूर है.
एलिस मिलर के शब्दों में कहूं तो "जो समाज अपने बच्चों के प्रति दयालु नहीं, उसकी आत्मा नष्ट हो चुकी है
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