सम्पादकीय

किसानों के लिए बहुत सारी योजनाएं...ढेरों दावे, फिर भी क्यों नहीं रूक रहे आत्महत्या के मामले?

Rani Sahu
29 Sep 2022 4:44 PM GMT
किसानों के लिए बहुत सारी योजनाएं...ढेरों दावे, फिर भी क्यों नहीं रूक रहे आत्महत्या के मामले?
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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
हाल में एक उपन्यास पढ़ा मैंने- ढलती सांझ का सूरज. मधु कांकरिया के इस उपन्यास में सिमटी (या फैली?) है देश के उन किसानों की व्यथा-कथा जो कहलाते तो अन्नदाता हैं, पर अभावों की मार से हारकर मरने के लिए अभिशप्त हैं. इस उपन्यास में एक ऐसे बेटे के माध्यम से इन अभिशप्त आत्माओं से परिचय कराया गया है जो बीस साल पहले अपनी विधवा मां और अपना देश छोड़कर सुविधा का जीवन जीने के लिए विदेश चला गया था.
बीस साल बाद लौटकर आया तो सही, पर तब वह अपनी मां को नहीं देख पाया था! मर चुकी थी उसकी मां. पर उन किसानों की जिंदगी में वह जिंदा थी जिनकी सेवा को उसने अपनी जिंदगी बना लिया था. परेशान है बेटा यह सोच कर 'किसान मौत को गले क्यों लगाता है? शायद तभी जब उम्मीद से भी उम्मीद नहीं रह जाती होगी.' अपने किसान मामा से वह यही सवाल पूछता है और जब मामा कहता है, 'दलदल में फंसा किसान क्या एक दिन मरता है? हर दिन वह थोड़ा-थोड़ा मरता है... असफलता से नहीं डरता वह, हिम्मत हार जाता है वह जब अपनी क्षमता पर विश्वास खो देता है. हमारा सिस्टम किसान को लगातार यही अहसास करवा रहा है...'
कहीं भीतर तक हिला देता है यह उपन्यास. उस दिन मैं इसे पढ़ते हुए इसी अहसास को जी रहा था. तभी एक खबर सामने आ गई. एक किसान की आत्महत्या की खबर थी यह. महाराष्ट्र के इस 42 वर्षीय किसान ने मरने से पहले देश के प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी थी.
इसी साल की शुरुआत में संसद में सरकार ने यह जानकारी दी थी कि 2016 से 2020 के चार सालों में देश में 17 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी. जनवरी से लेकर जुलाई 2022 तक की अवधि में अकेले महाराष्ट्र में 600 से अधिक किसान जिंदगी की लड़ाई हार गए थे.
आज देश में किसानों के लिए बहुत सारी योजनाएं चल रही हैं. ढेरों दावे किए जा रहे हैं किसानों के कल्याण के बारे में. पिछले पांच-सात दशकों में किसानों की स्थिति में कुछ सुधार भी आया ही होगा, पर यह हकीकत हमें सोचने के लिए बाध्य क्यों नहीं करती कि देश में होने वाली आत्महत्याओं में बड़ी संख्या कृषकों और कृषि-मजदूरों की है.
आज हम अपने ही नहीं, दुनिया के कई देशों के लोगों के लिए भी खाद्यान्न का उत्पादन करने में सक्षम हैं. लेकिन इस सबके बावजूद किसानी से जीवन-यापन करने वालों के जीवन में अपेक्षित खुशहाली क्यों नहीं आ पा रही? पांच साल पहले उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा था 'यह सुनिश्चित करना सरकार का काम है कि किसानों को आत्महत्या न करनी पड़े.' पर इसके बावजूद साल-दर साल यह संख्या कम नहीं हो रही. आखिर क्यों?
Rani Sahu

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