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कृष्ण कुमार कुन्नथ उर्फ केके सुपर स्टार नहीं थे, पर अपनी गहरी आवाज और तराशे गए हुनर के चलते उन्होंने खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली थी
शशि शेखर
कृष्ण कुमार कुन्नथ उर्फ केके सुपर स्टार नहीं थे, पर अपनी गहरी आवाज और तराशे गए हुनर के चलते उन्होंने खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। कोलकाता में एक प्रस्तुति के तत्काल बाद उनकी मौत ने उनके प्रशंसकों को स्तब्ध कर दिया है। इसके साथ ही प्याली का वह पुराना तूफान उमड़-घुमड़ पड़ा है, जो हर नामचीन शख्सियत की अकाल अथवा अस्वाभाविक मृत्यु पर लोगों की संवेदनाएं झकझोरने लगता है।
मैं केके के साथ उन तमाम लोगों की चर्चा करना चाहता हूं, जो 'शो बिजनेस' में हैं। राजकपूर की अति महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर याद कीजिए। उसमें धर्मेंद्र ने अपने खास अंदाज में अंगे्रजी का मशहूर मुहावरा बोला था- 'शो मस्ट गो ऑन', यानी तमाशा जारी रहना चाहिए। यकीनन, किसी सयाने ने पेशेवर लोगों की जिंदगी को परखने के बाद इसे गढ़ा होगा। इसी मानसिकता के चलते उन्हें जाती जिंदगी में तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है। भीषण भौतिकता के इस दौर में जब तनाव को नाम और दाम कमाने की अनिवार्य शर्त मान लिया गया हो, तब ऐसे हादसे अनिवार्य हो जाते हैं। केके से पहले अभिनेता सिद्धार्थ शुक्ला और कन्नड़ फिल्मों के स्टार पुनीत राजकुमार अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। स्टारडम की कीमत इन सितारों को जान देकर चुकानी पड़ी।
जान लें। हर समय प्रतिस्पद्र्धा में बने रहने के लिए महज रियाज या होमवर्क काफी नहीं है। 'शो बिजनेस' से जुडे़ लोगों को हर हाल में खुद को चुस्त-दुरुस्त दिखाना होता है। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनका जिस्म इसके लिए कितना अत्याचार झेलता है। एक दिवंगत बॉलीवुड हीरोइन ने अपनी पुरानी सूरत को कायम रखने के लिए इतनी बार प्लास्टिक सर्जरी कराई कि वह रोते वक्त भी मुस्कराती प्रतीत होतीं। उनकी मौत आज तक रहस्य के परदे में है। मशहूर कन्नड़ टीवी अभिनेत्री चेतना राज तो इस सर्जरी के कारण भरी जवानी में ही जान गंवा बैठीं।
ध्यान रहे, केके और उनकी पीढ़ी के तमाम गायक मंच पर सिर्फ गाना नहीं गाते। दर्शकों को मनोरंजक तरीके से बांधे रखने के लिए उन्हें तमाम करतब करने पड़ते हैं। माइकल जैक्सन ने इस विधा को जन्म दिया था। उनसे पे्ररणा लेने वाले माइकल के दर्दनाक देहांत को क्यों भूल जाते हैं? बार-बार की प्लास्टिक सर्जरी और चुस्त-दुरुस्त रहने के तमाम उपायों और उपादानों ने उनकी जान ले ली। हालांकि, जान-बूझकर जान गंवाने वालों की सूची माइकल से नहीं शुरू होती, यह सिलसिला पुराना है। 1970 के दशक से आज तक अपने मार्शल आर्ट और शरीर सौष्ठव के लिए आदर्श माने जाने वाले ब्रूस ली की मौत भी भरी जवानी में हुई थी। रहस्य के कुहासे में लिपटी उस अकाल मौत की एक वजह अत्यधिक दबाव बताया जाता है। सफलता की लत ने ली को देह के रखरखाव के प्रति जुनूनी बना दिया था। वह वक्त-बेवक्त कसरत अथवा मार्शल आर्ट का अभ्यास करते रहते। कहते हैं, इसी दौरान वह दिमाग की नस फटने से ऐसे गिरे कि फिर उठ न सके।
कभी यू-ट्यूब के खजाने में पंडित भीमसेन जोशी, रवि शंकर अथवा ऐसे अन्य किसी कलाकार को मंच पर प्रस्तुति देते हुए देखिए। ऐसा लगता है, जैसे उनके आभामंडल से कला की शांत सदानीरा निकलकर चारों ओर पसर चली है। कोई शोर-शराबा नहीं, कोई दावा नहीं, कोई वायदा नहीं, पर जिसने भी इन्हें रूबरू गाते-बजाते सुना, वह मुग्ध हुए बिना नहीं रह सका। आप कह सकते हैं कि केके शास्त्रीय संगीत के गायक नहीं थे, वह फिल्मों के लिए गाते थे।
सिनेमा के हजारों गाने तो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश, मन्ना डे, लता मंगेशकर और आशा भोसले ने भी गाए। आशा ताई के अलावा कोई उनमें से अब सशरीर हमारे बीच उपस्थित नहीं है, पर इनमें से किसी ने भी जब कभी 'लाइव कंसर्ट' किया, तो उन्होंने खुद को सुरों और रागों तक ही बांधे रखा। किशोर कुमार इसके थोडे़ से अपवाद थे। 1970-80 के दशक में वह भी मंच पर 'धमाल' मचाने लगे थे, फिर भी आज के गायकों से उनकी कोई तुलना नहीं है। गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और ऊपर से तरह-तरह के दबाव, आज के 'प्रोफेशनल्स' की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं।
ताजा अमेरिकी रिसर्च के मुताबिक, जिंदगी का तीसरा और चौथा दशक बसर कर रहे लोगों में दिल के दौरे की घटनाओं में 13 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि पश्चिमी देशों के मुकाबले भारतीयों में औसतन 10 साल पहले दिल के रोग घर कर रहे हैं। प्रदूषण, जीवन शैली और पल-पल की प्रतिस्पद्र्धा की कीमत पेशेवरों को चुकानी ही होती है। केके इसका नवीनतम उदाहरण हैं। कहते हैं कि उनका भी दिल और लिवर ठीक से काम नहीं कर रहे थे, पर वह रुक नहीं सकते थे। सवाल 'शो मस्ट गो ऑन' का था। यहीं प्रश्न उठता है, क्या पनपती हुई प्रतिस्पद्र्धा अपने साथ जानलेवा रोग भी उगाती चलती है? पिछले कुछ वर्षों के हादसों से यही प्रतीत होता है।
यही वजह है कि दिल के रोगों के साथ अवसाद भी महामारी के रूप में उभरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में पांच करोड़, 60 लाख से अधिक इसके मरीज हैं। नींद पर शोध करने वाली वेबसाइट 'सैवीस्लीपर' के एक सर्वे में दुनिया के सबसे तनावग्रस्त शहरों में टोक्यो के बाद मुंबई का नंबर है। केके वहीं रहते थे, पर यह सूची बहुत लंबी है। अतीत की सुरंगों में बहुत दूर भटकने के बजाय सुशांत सिंह राजपूत का दर्दनाक अंत याद कर लीजिए। मौजूदा हिंदी सिनेमा के सबसे सक्षम माने जाने वाले सितारों में से एक सुशांत ने खुद अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी। सिनेमा और आत्महत्याओं का रिश्ता पुराना है।
इनके लिए अक्सर उनके शिकार ही दोषी होते हैं।
यहां, मैं अमर पार्श्व-गायक मन्ना डे का उद्धरण याद दिलाना चाहूंगा। एक बार वह इलाहाबाद आए थे और मुझे उनसे मिलने का मौका मिला था। मैंने उनसे पूछा, आपको नहीं लगता कि अपने समय की सबसे सफल त्रयी, यानी रफी, किशोर और मुकेश के बराबर आपको यश नहीं मिला? उनका जवाब अपने आप में एक सीख है। मन्ना दा ने कहा था- 'मुझे किसी तरह का कोई पछतावा नहीं है। हर आदमी को उतना ही मिलता है, जितना उसके हिस्से का होता है। मेरे लिए यह कम है क्या कि मैंने हर मशहूर अभिनेता के लिए हिट गाना गाया? यह बात अलग है कि मुझे किसी ने अपनी स्थायी आवाज नहीं बनाया।' कुछ देर रुककर उन्होंने यह भी जोड़ा था कि दुर्भाग्य से वे सब लोग चले गए, पर मैं आज भी आप लोगों के बीच गा रहा हूं। वह उसके बाद भी लगभग तीन दशक तक गाते रहे।
मन्ना डे समझते थे कि उन्हें कितना तेज चलना है, कितनी दूर तक चलना है और कब रुक जाना है। बाकी लोग इस सच को कब समझेंगे? अपनी सामर्थ्य की सीमा पर संकोच में नहीं, संतोष में ही भलाई है।
Twitter Handle: @shekharkahin
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Rani Sahu
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