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बरसात का मौसम शुरू होते ही देशभर में वन महोत्सव, हरियाली और हरेला नाम से क्षेत्र विशेष की भाषा और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार वृक्षारोपण पर्व मनाए जा रहे हैं। बरसात का यही सीजन है जिसमें पौधों को अपने बाल्यकाल में पर्याप्त जल के साथ ही वातावरण में नमी और तापमान मिल जाता है।भले ही पौधारोपण के कार्यक्रम प्रचार, पुरस्कार और औपचारिकता के लिए ज्यादा होते हैं, फिर भी विकास के नाम पर वनों के विनाश के बीच समाज में वृक्षारोपण के प्रति ऐसी जागरूकता आशा की एक नई किरण जरूर दिखाती है, क्योंकि वृक्ष नहीं तो मानव जीवन भी संभव नहीं है। मानव ही नहीं बल्कि बिना पादप या वनस्पति के इस धरती पर जीवन ही संभव नहीं है।
वृक्षों लिए अमृता समेत सैकड़ों ने गंवाए थे प्राण
हमारे देश में वृक्षों के प्रति पहली बार चेतना जागृत नहीं हो रही है। चण्डी प्रसाद भट्ट और सुन्दरलाल बहुगुणा मानव जीवन के लिए वनों और पर्यावरण चेतना को लेकर भारत को विश्वगुरू के रूप में स्थापित कर चुके हैं। उनसे भी पहले भारत के पहले केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री के.एम. मुंशी सन् 1950 में वन संरक्षण और पेड़ लगाने के लिए लोगों में उत्साह पैदा करने के लिए वन महोत्सव की शुरुआत कर चुके थे।
यह त्योहार भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है। के. एम. मुंशी से भी पहले सन 1730 में अमृता देवी विश्नाई वृक्षों की रक्षा के लिए सेकड़ों लोगों के साथ बलिदान देकर दुनिया में ऐसी मिसाल पेश कर चुकी हैं जो न भूतो और न भविष्यति है।
वास्तव में सन 1730 में राजस्थान के मारवाड़ में खेजड़ली में जोधपुर के महाराजा द्वारा हरे पेड़ों को काटने से बचाने के लिए, अमृता देवी विश्नाई ने अपनी तीन बेटियों आसू, रत्नी और भागू के साथ अपने प्राण त्याग दिए। उनके साथ 363 से अधिक अन्य बिश्नोई , खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए मर गए। विश्नोई समाज आज भी वृक्षों और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए विश्व के लिए एक उदाहरण है।
के.एम.मंशी ने शुरू किया था वन महोत्सव
वृक्षों के लिए सपरिवार अपने प्राण गंवाने वाली अमृता देवी का कहना था कि ''अगर किसी के सिर की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो यह इसके लायक है।'' यही कारण है कि भारत में पेड़ों से जुड़े इतने सारे त्योहार हैं। उनमें से एक वन महोत्सव दिवस या वन दिवस है। इसे धरती मां को बचाने के ऊंचे उद्देश्य से धर्मयुद्ध के रूप में आजादी के तत्काल बाद के.एम. मंशी ने शुरू किया था। लेकिन समाज में ऐसे भी तत्व हैं जिनको समाज या मानवता से नहीं बल्कि केवल अपने निजी हितों से मतलब है या जिनकी नजर में प्रकृति गौण और विकास की चकाचौंध अधिक महत्वपूर्ण है।
कुछ लोग जब अपनी आजीविका के लिए दूसरों की हत्या का पेशा अपना सकते हैं तो वन तस्करों के लिए पेड़ों की हत्या गाजर मूली काटने के समान ही है। झूम खेती करने वालों की तरह कुछ के लिए पेड़ काटना आजीविका के लिए जरूरी है तो कुछ अज्ञानतावश पेड़ काट कर खेती करते हैं।
amarujala
Admin2
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