सम्पादकीय

अभिव्यक्ति की सीमा

Admin2
7 July 2022 11:55 AM GMT
अभिव्यक्ति की सीमा
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भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में अभियक्ति की आजादी के लिए सोशल मीडिया एक मजबूत स्तंभ के रूप में सामने आया है। इसने समाज में अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को मुख्यधारा से जुड़ने का एक आसान अवसर प्रदान किया है। संखात्मक दृष्टिकोण से देखें तो भारत में तकरीबन 400 मिलियन लोग सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं और वे औसतन ढाई घंटे प्रतिदिन सोशल मीडिया पर बिताते हैं। लेकिन सोशल मीडिया आए दिन दुरुपयोग के कारण चर्चा में बना रहता है।

दरअसल, यह एक दोधारी तलवार के रूप में दिखता है। बेशक इसके अनेक सकारात्मक उपयोग है। मसलन, हम देखते हैं कि इसने विश्व को एक संचार व्यवस्था के माध्यम से आपस में जोड़ा है, अनेक लोगों की आवाज बन कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा है। इससे लोगो को रोजमर्रा की सूचनाएं प्राप्त करने में आसानी हुई है। सबसे बड़ी बात कि इसने आम नागरिकों के बीच सूचनाओं को बड़ी आसानी से प्रसारित किया हैं।
लेकिन वर्तमान में यह एक जटिल समस्या भी बन रहा है, क्योंकि कई स्तरों पर आजकल इसका प्रयोग सामाजिक समरसता को बिगाड़ने और सकारात्मक सोच की जगह समाज को बांटने वाली सोच को बढ़ावा देने के लिए भी किया जाने लगा है। ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने के अलावा आजादी के सूत्रधार रहे नेताओं के बारे में भी गलत जानकारी बड़े स्तर पर साझा किए जाने के अनुचित प्रयास भी देखने को मिलते रहते हैं।
दरअसल, कुछ लोगों या उनके समूह द्वारा अपने विद्वेष से भरे विचारों को प्रसारित करने का एक आसान-सा मंच सोशल मीडिया के माध्यम से उपलब्ध हो जाता है और इसी का प्रयोग वे अपने मन-मुताबिक करते हैं। किसी राजनीतिक नेता की छवि खराब करनी हो या महिलाओं के संदर्भ में कुछ यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएं, जो उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करती हैं और समाज में छवि खराब करने के रूप में प्रयोग की जाती हैं, ऐसी अनेक घटनाएं सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित कर दी जाती हैं।
जटिल समस्या यह है कि सोशल मीडिया को ठोस तरीके से विनियमित करने का कोई भी कानून हमारे पास नहीं है। हमारे पास सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 और सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) 2021 जैसे कुछ एक कानून है जो सोशल मीडिया को विनियमित करते हैं, मगर यह भी पूर्णता सोशल मीडिया पर उस स्तर तक लगाम नहीं लगा पा रहे हैं ताकि सोशल मीडिया समाज के लिए खतरा नहीं बने।

यह आवश्यक है कि लोगों को इसके द्वारा होने वाले सकारात्मक लाभों के बारे में तो जागरूक होना चाहिए। हालांकि सोशल मीडिया को विनियमित करने के दौरान एक मुद्दा यह भी सामने आता है कि लोगों यह लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का प्रयास है। अगर इसे विनियमित किया जाता है तो इसके साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि इससे अभिव्यक्ति की आजादी बाधित न हो और साथ सत्ता को व्यक्ति पर नियंत्रण के निरंकुश और असीमित न मिल जाएं।
स्वदेश कुमार, दिल्ली विवि, दिल्ली
अपमान की परिधि
अंग्रेजी भाषा में 'ट्रोल' शब्द संज्ञा और क्रिया दोनों रूपों में प्रयोग किया जाता है, लेकिन व्याकरण से परे सोशल मीडिया के लिए ट्रोल का सीधा मतलब 'अपमान' होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो स्केंडिनिविआ की लोक कथाओं में एक ऐसे भयानक और बदसूरत जीव का वर्णन किया जाता है जिससे डरकर राहगीर अपना रास्ता भी भूल जाते हैं। इस विचित्र जीव का नाम 'ट्रोल' था। किसी पर गंदी या अश्लील निजी टिप्पणी करना ट्रोलिंग की परिधि में आता है। यही 'ट्रोलिंग' अब शाब्दिक हिंसा का आधुनिक रूप बन गया है। आज एक अत्यंत कष्टदायक और दुर्भाग्यजनक स्थिति यह है कि इंटरनेट पर सक्रिय एक वर्ग के द्वारा कतिपय फैसलों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत को भी इस अपमानजनक ट्रोलिंग का हिस्सा बनाया जा रहा है।
हाल में एक मामले ने इतना तूल पकड़ लिया है की न्यायमूर्ति कहे जाने वाले सम्माननीय जजों तक को सामने आकर सफाई देना पड़ रही है। सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा सबका कर्तव्य है। इसे किसी भी तरीके से क्षति पहुंचाना बहुत बड़ा अपराध है। साथ ही देश का सर्वोच्च न्यायालय और उसके फैसले किसी भी दृष्टि से जनचर्चा का विषय इस तरह नहीं हो सकते। इसलिए समाज और मीडिया के प्रत्येक वर्ग को इस अप्रिय स्थिति से दूर रहना चाहिए। सरकार को भी ऐसे प्रयासों पर कड़े कदम उठाना चाहिए।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल
सोर्स-jansatta
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