सम्पादकीय

संघर्ष की एक और अनकही दास्तां

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2 July 2022 4:59 AM GMT
संघर्ष की एक और अनकही दास्तां
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जनता से रिश्ता : कानपुर से जगदीशपुर गांव का वह सफर हमने बस और खड़खड़े पर बैठकर पूरा किया। शहीद भगत सिंह के साथी डॉ. गयाप्रसाद की इस बस्ती तक पहुंचने का मार्ग हमें हर पल रोमांच से भर देता रहा। उनके घर के दरवाजे पर नीम का दरख्त और पीछे चौपालनुमा कुछ हिस्सा। डॉक्टर साहब से भेंट हुई, तो कल्पना के रंगों से उनका मिलान मुश्किल था। ठिगनी और सामान्य-सी कद-काठी। धोती और बनियान लापरवाही से पहने हुए, लेकिन आंखें चश्मे से दूर तक झांक रही थीं।हम कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि इसी शख्स ने भगत सिंह के साथ एक समय क्रांति के लंबे डग भरते हुए सुदूर अंडमान की लंबी सजा काटी। उन्होंने डॉक्टरी का पेशा जब शुरू किया, तब वह शादीशुदा थे। क्रांतिकारी दल में शामिल होने के बाद घर आकर पत्नी से कहा कि तुम अपने माथे का सिंदूर पोंछ डालो और मेरे सिर पर हाथ रखकर देश के लिए विदा करो। सुनकर पत्नी रोने-धोने लगीं। आखिर उन कठिन क्षणों में वह आजादी के संघर्ष में हिस्सेदारी करने के लिए निकल पड़े।

'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ' के सदस्य के नाते उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह थी कि बाहर डॉ. बीएस निगम के नाम से डॉक्टर की दुकान होती और भीतर क्रांतिकारियों के केंद्र में बम बनाने का कारखाना। वह आर्य समाज और गांधी के सत्याग्रह से भी जुड़े, लेकिन चौरी-चौरा की घटना के बाद वहां से उनका मन उचट गया और वह मजदूर सभा में आए। हरिहरनाथ शास्त्री और गणेशशंकर विद्यार्थी से उनकी भेंट हुई।वह मुनेश्वर अवस्थी से भी मिले, जो उन दिनों गोरखपुर से स्वदेश का संपादन करने के साथ ही क्रांतिकारी दल से संबद्ध थे। क्रांति के मार्ग पर चलते हुए उनकी मुलाकात विजयकुमार सिन्हा, शिव वर्मा, सुरेंद्र पांडेय, जयदेव कपूर, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद से हुई, जो समाजवाद के प्रति गहरे तक समर्पित थे। आजाद से वह पहली बार झांसी में मिले। जाजमऊ के पास होने वाली बैठक के लिए उन्हें आजाद को झांसी लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
क्रांतिकारी भगवानदास माहौर से भी वहीं के एक पुस्तकालय में आमना-सामना हो गया। दल के नेता योगेश चंद्र चटर्जी को जेल से छुड़़ाने की कोशिशों में वह एक बार पुलिस के हाथों में आने से बाल-बाल बचे। बाद में वह फीरोजपुर जाकर छिपे तौर पर डॉक्टरी की प्रैक्टिस करने लगे। वहां उनके साथ दल का सदस्य जयगोपाल भी था, जो बाद में मुखबिर बना। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में बम फेंके जाने से पहले आगरा क्रांतिकारियों का केंद्र बन गया था।
वहां हींग की मंडी में बम बनाने का कारखाना स्थापित किया गया। भगत सिंह के बुलावे पर बंगाल से यतींद्रनाथ दास ने आकर बम बनाने की कला सिखाई। आगरा में गयाप्रसाद को यह काम सौंपा गया कि वह सहारनपुर जाकर किराये पर मकान लेकर इस तरह रहें कि किसी को शक न हो। बाहर होम्योपैथिक दवाखाना और भीतर पार्टी का काम। बाद में लाहौर षड्यंत्र मामले में इसी केंद्र पर जयदेव कपूर, शिव वर्मा और डॉक्टर साहब गिरफ्तार कर लिए गए।लाहौर में सुखदेव पहले ही पकड़े जा चुके थे। लाहौर मुकदमे में अभियोग पक्ष एक भी ऐसा सबूत पेश नहीं कर सका कि गयाप्रसाद किसी सशस्त्र कार्रवाई में लिप्त थे। पर वह जिस दल के सदस्य थे, उसने हुकूमत के खिलाफ युद्ध का एलान किया था और वह एक बम फैक्टरी के भीतर गिरफ्तार हुए थे। उन्हें सजा दिलाने के लिए यह पर्याप्त था। जेल में क्रांतिकारियों की तीन श्रेणियां थीं। पहली पंक्ति उनकी थी, जिनका केस वकीलों को लड़ना था।
इसमें देशराज, प्रेमदत्त, मास्टर आज्ञाराम, अजय घोष और पं. किशोरीलाल थे। दूसरी श्रेणी शत्रु की अदालत को मान्यता न देने वालों की थी, जिसमें डॉ. गयाप्रसाद, महावीर सिंह, बटुकेश्वर दत्त, कुंदनलाल और जितेंद्रलाल सान्याल, तथा तीसरी श्रेणी में अपना केस खुद लड़ने वाले भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी और सुरेंद्र पांडेय को रखा गया। गयाप्रसाद राजनीतिक वाद-विवाद में सम्मिलित होते रहे और मार खाने वाले साथियों की सूची में उनका नाम सबसे ऊपर होता था।गयाप्रसाद जी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें पंजाब की जेलों में रखने के बाद महावीर सिंह के साथ बेलारी सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां सत्याग्रहियों के साथ हो रहे उत्पीड़न के विरुद्ध साथ देने के लिए उन्हें कड़ी सजा मिली। जनवरी, 1933 में वह अंडमान भेज दिए गए, जहां उन्होंने 1937 की प्रसिद्ध भूख हड़ताल में हिस्सा लिया। बीमार होने पर उन्हें बलरामपुर और सुल्तानपुर की जेलों में लाया गया।
उनकी रिहाई 21 फरवरी, 1946 को हुई। आजादी मिलने पर भी उन्होंने चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के समाजवादी सपने को पूरा करने के संघर्ष को विस्मृत नहीं किया। मुझे याद है कि पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझसे कहा था, 'हम गुलामी को सिर्फ भारत से ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया से मिटा देना चाहते थे। हम तत्कालीन व्यवस्था को सिर्फ इसलिए खत्म करना चाहते थे क्योंकि उसका आधार हिंसा थी।'
इसके बाद डॉक्टर साहब हरदोई के एक जलसे में मिले, जहां चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा का अनावरण करने कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल आई थीं। तब उनके दोनों पैरों में सूजन थी। फिर कानपुर के एक विवाह समारोह में उनसे भेंट हुई। 10 फरवरी, 1993 को उनके निधन का समाचार मिला, तो उनके घर में बिताए पल आंखों के सामने जीवंत हो उठे। वह सही अर्थों में सदाबहार क्रांतिकारी थे।source-amarujala


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