सम्पादकीय

दल-बदल विरोधी कानून

Admin2
28 Jun 2022 10:56 AM GMT
दल-बदल विरोधी कानून
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जनता से रिश्ता : हाल ही में महाराष्ट्र में हुई राजनीतिक उथल-पुथल के चलते एक बार फिर दल-बदल कानून प्रकाश में आया है और इसने एक बार फिर सोचने के लिए फिर मजबूर किया है कि क्या यह दल-बदल विरोधी कानून अपने देश में सफल हो पाया है! आज इसकी प्रसंगिकता पर ही सवाल खड़े होते दिख रहे हैं। 1985 में 52वें संशोधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची का प्रवेश हुआ और हम सबने अनुमान लगाया कि इससे भारतीय राजनीतिक जीवन में आमूलचूल एवं सकारात्मक परिवर्तन होगा। लेकिन हम जानते हैं किस तरीके से राजनीतिक दलों ने इस कानून का दुरुपयोग किया है और इसके कमजोर बिंदुओं के सहारे अपनी पार्टी राज को बढ़ावा दिया है। दल-बदल आज भी एक बीमारी की तरह भारतीय राजनीति को क्षति पहुंचा रही है।

ऐसा नहीं है कि दल-बदल करने वाले नेताओं को पार्टी की विचारधारा पसंद नहीं होती है। बल्कि इसका ठोस कारण है राजनीतिक लालसा या फिर इनको इनके लाभ के मुताबिक पद नहीं मिल पाना। इसे कई बार भारतीय सिनेमा ने समाज के सामने उकेरा है। ऐसी घटनाओं के पीछे एक कारण यह भी है कि चुनाव आयोग इस मामले में कोई दखल नहीं दे सकता। इसके अलावा, लोगों के लिए इस तरह की घटनाएं चिंताजनक नहीं होतीं। वे इसे गंभीरता से नहीं लेते। शायद इसलिए कि ऐसी घटनाएं इनसे सीधा संबंध नहीं रखती हैं जिसका राजनीतिक दल भरपूर फायदा उठाते हैं।
दल-बदल विरोधी कानून ने भले ही व्यक्तिगत दल-बदल पर एक हद तक अंकुश लगाया हो, लेकिन कहीं न कहीं उसने सामूहिक दल-बदल को बढ़ावा दिया है। ऐसी घटनाओं से होने वाले हमारे लिए नुकसान पहला संवैधानिक और लोकतंत्र के मूल्यों पर प्रहार और उनकी अवहेलना है। दूसरा नुकसान है इस प्रकार की घटनाएं लोगों का लोकतंत्र में भरोसे का पतन करती हैं, जिसके चलते वे खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि जनता उन्हें कई बार पार्टी का चेहरा देख कर लोकतांत्रिक मंदिरों में भेजती है। जब जनता को यह मालूम होता है कि उन्होंने उस विचारधारा उस पार्टी को ही छोड़ दिया है जिसके चलते उन्होंने अपना प्रतिनिधि इनको चुना था, तो लोगों को बहुत निराशा होती है।
इसके अलावा, यह भ्रष्टाचार को व्यापक रूप से बढ़ावा देता है। यहां पद, धन, शक्ति, सत्ता की लालसा दी जाती है, जिसके आगे नैतिक राजनीतिक मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। इस तरीके की घटनाएं विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं, क्योंकि जो राजनीतिक दल वर्तमान में सत्ता में है और अगर उसकी सत्ता हाथ से निकल रही हो तो वह मूल विषयों से भक कर सत्ता बचाने में अपनी ऊर्जा, समय, धन, विचार आदि को खर्च करने लगता है जो कि एक कल्याणकारी एवं लोकतांत्रिक राज्य के लिए उचित नहीं है।
फिर इससे पार्टी राज को बढ़ावा मिलता है, जिसके कारण विपक्ष बहुत सीमित हो जाता है। यह किसी भी सूरत में स्वस्थ लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए हितकारी नहीं है। इसका एक बड़ा नुकसान यह है कि अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में हमारी स्थिति लगातार बिगड़ती जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि हमारे यहां विदेशी निवेश, विदेशी अनुदान आदि में गिरावट देखने को मिलती है। इस सबका खामियाजा केवल आम जनमानस को ही भुगतना पड़ता है।
सौरभ बुंदेला, भोपाल

सोर्स-jansatta

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