सम्पादकीय

राजनीतिक आदतें

Admin2
27 Jun 2022 12:54 PM GMT
राजनीतिक आदतें
x

जनता से रिश्ता : प्रधानमंत्री हर मौके पर याद दिलाते हैं हमें कि 'न्यू इंडिया' में सुधारों की रफ्तार इतनी तेज है कि भारत कुछ ही सालों में विश्वगुरु बनने वाला है। उनकी नकल करते भारतीय जनता पार्टी का हर दूसरा नेता भी ऐसा कहता है। रेडियो सुनती हूं इन दिनों तो 'सेवा, सुशासन, गरीब कल्याण' का नारा मेरे कानों में गूंजता है। इसलिए समझ में नहीं आता कि इस नए भारत में क्यों उस पुराने भारत की सबसे गंदी राजनीतिक आदतें अब भी देखने को मिलती हैं।यह सवाल मेरे मन में बार-बार उठा पिछले सप्ताह जब महाराष्ट्र सरकार को एक बार फिर गिराने की कोशिश हुई, बिना यह सोचे कि इतने बड़े राज्य में अस्थिरता फैलाने से आम आदमी की मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी ऐसे समय, जब कोविड से हुए नुकसान को अभी झेल रहे हैं महाराष्ट्र के लोग।

भारतीय जनता पार्टी चाहे जितना कहे कि शिवसेना के बागी विधायकों को सूरत ले जाने में उनका हाथ नहीं था और न ही इन बागियों को सूरत से गुवाहाटी ले जाने में उनका हाथ था, लेकिन इस पूरे तमाशे में साफ दिखती है भारतीय जनता पार्टी की भूमिका।कोई संयोग नहीं है कि उनको महाराष्ट्र से भगा कर पहले भाजपा शासित राज्य गुजरात में एक पांच सितारा होटल में कैद रखा गया और फिर जब खबर फैली बागी विधायकों के सूरत में होने की तो आधी रात को उनको भेड़-बकरियों की तरह इकट्ठा करके एक प्राइवेट विमान से एक दूसरे भाजपा शासित राज्य में पहुंचाया गया, जहां फिर से उनको एक पांच सितारा होटल में कैद किया गया, ताकि उनमें से कोई इधर-उधर न बहक जाए।राज्य सरकारों को बेवक्त गिराना पुराने भारत में बहुत बार होता था, खासकर इंदिरा गांधी के दौर में। इंदिराजी को बिलकुल परवाह नहीं थी कि राज्य सरकारों को गिराने से कितनी अस्थिरता पैदा होती है। न ही परवाह थी परिणामों की। फारूक अब्दुल्ला की पहली सरकार को इंदिराजी ने 1984 में तब गिराया जब पंजाब में आग लगी हुई थी।
गिराने का तरीका बिलकुल वही था, जो हमने पिछले सप्ताह महाराष्ट्र में देखा। चोरी-चुपके से फारूक के कुछ विधायकों को बहका कर बागी बनाया कांग्रेस पार्टी ने और राजभवन में शपथ दिलाई गई एक नए मुख्यमंत्री को, जिसने शासन चलाया कर्फ्यू के सहारे। इतनी बार कर्फ्यू लगा गुल शाह के दौर में कि मुख्यमंत्री का नाम गुल-ए-कर्फ्यू पड़ गया।मेरा मानना है कि कश्मीर में जो अराजकता और अशांति फैली है पिछले तीस वर्षों में, उसकी शुरुआत हुई थी फारूक की सरकार गिराने के बाद। इसलिए कि कश्मीर के लोगों को फिर से याद दिलाया गया कि उनको लोकतंत्र कभी नहीं मिलने वाला है।महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री को कभी स्वीकार नहीं था कि उनकी कुर्सी उनसे छीन कर ले गई थी शिवसेना। शिवसेना उनके साथ चुनाव लड़ी थी 2019 में और कहते हैं कि तय था कि अबकी बार अगर यह गठबंधन जीतता है, तो मुख्यमंत्री शिवसेना का बनेगा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने जिद की कि मुख्यमंत्री फडणवीस ही रहेंगे। रिश्ते में कड़वाहट आ गई और शिवसेना ने अलग होने का फैसला किया।शिवसेना के बिना भारतीय जनता पार्टी के पास विधानसभा में बहुमत हासिल करने की कोई संभावना नहीं थी। सो, पहले तो फडणवीस ने अजित पवार को उप मुख्यमंत्री की शपथ आधी रात को दिलाई और खुद शपथ ली मुख्यमंत्री की, लेकिन यह चाल नाकाम रही और उनकी यह सरकार 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद सिर्फ तीन दिन चली।इसके बाद शरद पवार ने ऐसी चाल चली कि शिवसेना की सरकार बनी उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी को इसमें शामिल करके।जबसे बनी है सरकार, फडणवीस इसको गिराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाए रहे हैं। पालघर में दो साधुओं की वहां के लोगों ने हत्या की, तो इसका दोष उद्धव ठाकरे की सरकार पर लगाया गया, यह साबित करने के लिए कि शिवसेना बाला साहेब की हिंदुत्व विचारधारा से दूर जा रही है।
यह पता नहीं चला, लेकिन फडणवीस ने सरकार गिराने की कोशिश नहीं छोड़ी, बावजूद इसके कि उद्धव ठाकरे की सरकार ने कोविड के दौर में इतनी काबिलियत दिखाई महामारी को नियंत्रण में रखने के लिए कि तारीफ देश-विदेश में हुई है।सवाल यह नहीं है कि महाविकास अघाड़ी की सरकार काम अच्छा कर रही थी कि नहीं। सवाल यह है कि मोदी के नए भारत में इस तरह की घटिया राजनीतिक सभ्यता की जगह होनी चाहिए या नहीं। सेवा, सुशासन और गरीब कल्याण दुनिया की सबसे काबिल सरकार भी नहीं कर पाएगी, अगर उसके गिरने का खतरा हमेशा सिर पर लटका रहे।मगर ऐसा लगने लगा है कि नए भारत की नई भारतीय जनता पार्टी इस घटिया सभ्यता को बदलने के पक्ष में बिलकुल नहीं है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराई गई थी बगावत करवा के और गोवा में भी कुछ ऐसा ही हुआ। राजस्थान में महीनों से सरकार गिराने का प्रयास चल रहा है, सो अशोक गहलोत कई बार अपने विधायकों को किसी पांच सितारा होटल में कैद कर देते हैं, जैसे महाराष्ट्र में हुआ है।हर बार अफवाहें गरम रहती हैं कि एक विधायक की कीमत कितने करोड़ रुपए है। यानी साबित हो गया है कि हमारे जन प्रतिनिधि राजनीति में आते हैं सिर्फ अपनी सेवा करने और जब भी इनकी बोलियां लगती हैं राजनीति के इस नीलामघर में तो अफवाहें गरम रहती हैं कि कितने करोड़ रुपए लगे इस बार एक विधायक के। इस काल्पनिक सवाल के अलावा कुछ असली सवाल भी हैं। प्राइवेट विमानों का खर्चा कौन उठा रहा है? पांच सितारा होटलों में कई दिन रहने का बिल कौन भरेगा? यथार्थ सामने आ जाएगा।

सोर्स-jansatta

Admin2

Admin2

    Next Story