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जनता से रिश्ता : स्कूल की स्थिति, शिक्षकों का वेतन, कार्य करने के घंटे, उनका व्यावसायिक अवलोकन, प्रशिक्षण और साथ ही शिक्षा के प्रति आकर्षण को बरकरार बनाए रखना शिक्षक सशक्तिकरण के प्रमुख घटक हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की गुणवत्ता कहीं अधिक गिरावट के साथ इसलिए भी है क्योंकि शिक्षा के निजीकरण में पेशेवर शिक्षकों के बजाय सस्ते शिक्षकों को अधिक अवसर दिया जा रहा है।
शिक्षकों की प्रभावशीलता का अंतिम परीक्षण यह है कि उनके द्वारा पढ़ाए गए विद्यार्थी अपनी शैक्षिक क्षमता तक पहुंचने में सक्षम हैं या नहीं। मात्रा, गुणवत्ता और समता के संघर्ष में शिक्षा और शिक्षक को बदलने के लिए शिक्षकों की ही भूमिका महत्त्वपूर्ण है। हालांकि सरकार की नीतियों और उनके सशक्त क्रियान्वयन से अनुकूल बदलाव संभव होते हैं, मगर बिना सशक्त शिक्षक के व्यावहारिक दक्षता संभव नहीं है।शिक्षकों के सशक्तिकरण से राह न केवल चौतरफा खुलती है, बल्कि अंत्योदय से लेकर सर्वोदय तक की भावना का भी आभामंडल इसमें शुमार होता है। रिपब्लिक और प्लेटो पर टिप्पणी करते हुए बार्कर ने लिखा है कि प्लेटो जिस सवाल का जवाब खोज रहे थे, वह बस इतना था कि आदमी अच्छा कैसे बन सकता है? हालांकि इस सवाल के जवाब में न्याय, सौंदर्य और गुणों का समावेशन निहित है, मगर इन सभी को प्राप्त करने के लिए शिक्षा ही अनिवार्य है जो बिना सशक्त और कुशल शिक्षक के संभव नहीं हो सकती।
जब बात सुशासन की होती है तो शिक्षा के बगैर इसे पूर्णता नहीं मिलती। जहां सामाजिक-आर्थिक न्याय हो, लोक कल्याण की राह खुलती हो और साथ ही लोक सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलता हो, वहां सुशासन नजर आता है। एक शिक्षक उन सभी विचारों का पुंज है जो विद्यार्थियों के आचरण, कौशल और जीवनधारा का विकास करके बदलाव पैदा कर सकता है। मगर शिक्षा और शिक्षक जब दोनों बदले दौर में उचित राह पर न हों तो शिक्षा और सुशासन के ताने-बाने का कमतर होना निश्चित है।इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए एक ज्ञानवान समाज बनाने की आवश्यकता सर्वोपरि है। इस आकांक्षा की पूर्ति में जहां स्कूली शिक्षा को मजबूत करना अपरिहार्य है, वहीं शिक्षकों का सशक्तिकरण भी अनिवार्य है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है। गौरतलब है कि भारत में शिक्षक और शिक्षा की प्रणाली में बदलाव बहुत धीमी गति से रहा है।
इसके पहले शिक्षा नीति 1986 में आई थी। ज्ञान को हस्तांतरण करने की कवायद अभी भी बरकरार है, जबकि विद्यार्थी में शोध और नवोन्मेष से युक्त शिक्षा व्याप्त करने की कवायद आज भी संघर्ष लिए हुए है। शायद यही कारण है कि पूरे देश में उच्च शिक्षा में लगभग चार करोड़ विद्यार्थी सभी प्रारूपों के हजार से अधिक विश्वविद्यालयों और चालीस हजार से अधिक महाविद्यालयों में प्रवेश तो लेते हैं, मगर शोध और नूतनता के मामले में पीछे रह जाते हैं।बीती नौ जून को लंदन के विश्व उच्च शिक्षा विश्लेषक क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) यूनिवर्सिटी रेटिंग में भारत के महज चार विश्वविद्यालय ही आ पाए। जबकि चीन के इकहत्तर विश्वविद्यालय, अमेरिका के दो सौ एक और ब्रिटेन के नब्बे विश्वविद्यालय इसमें शामिल हैं। यह महज एक आंकड़ा है, मगर ये देश की शिक्षा को समझने का एक दायरा है जो शिक्षकों के सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य से भी परिचय कराता है। एक दशक पहले भारत में शिक्षा का अधिकार कानून आया था। उसके बाद प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को लगभग सौ फीसद तक हासिल कर लिया गया। मगर सामने जो समस्या है, वह शिक्षा की गुणवत्ता की है।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए पारंपरिक रणनीतियों में बदलाव करना होगा। भारत आज दो तरह की चुनौतियों का सामना कर रह है। पहली तो यह कि औसत दर्जे के विश्वविद्यालय बनाए जा रहे हैं और दूसरा शिक्षकों की बहुत ज्यादा कमी है। रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत की जनसंख्या लगभग चीन के बराबर होने के बावजूद चीन की तुलना में विद्यालयों की संख्या भारत में अधिक है। भारत में जहां पंद्रह लाख विद्यालय हैं, वहीं चीन में पांच लाख हैं। भारत के लगभग चार लाख विद्यालयों में डेढ़ करोड़ विद्यार्थी औसत विद्यालय में पढ़ते हैं। शिक्षकों के खाली पड़े पद भी पढ़ाई में बड़ी बाधा हैं। ऐसे में कैसे शिक्षा और शिक्षक का सशक्तिकरण हो सकता है?
शिक्षकों की स्थिति को लेकर तैयार किए गए वैश्विक सूचकांक (द ग्लोबल टीचर्स स्टेटस इंडेक्स 2018) से यह भी पता चलता है कि शिक्षक की स्थिति और विद्यार्थी के प्रदर्शन में सीधा संबंध होता है। यूरोप और लैटिन अमेरिका में शिक्षकों को एशिया और मध्य पूर्व की तुलना में सम्मान के मामले में काफी निराशा हाथ लगती है। शिक्षकों का सबसे ज्यादा सम्मान चीन में होता है। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि यहां ज्यादा लोग अपने बच्चों को शिक्षक बनाना चाहते हैं। असल में शिक्षक एक ऐसा मार्गदर्शक है जिसकी सबलता से व्यक्ति ही नहीं, बल्कि देश की सफलता को भी बड़ा किया जा सकता है। मगर इसे लेकर कमजोर होती धारणा पीढ़ी को खतरे में डाल सकती है।शिक्षा पर 2018 की वैश्विक विकास रिपोर्ट बताती है कि अध्यापक का शिक्षण कौशल और प्रेरणा दोनों मायने रखते हैं और यह व्यक्तिगत रूप से लक्षित होने चाहिए। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रषिक्षण परिषद (एनसीआरटी) के एक अध्ययन में देखा गया कि शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण डिजाइनिंग में उनसे मिली प्रतिक्रिया को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।
सवाल यह है कि शिक्षकों का सशक्तिकरण किसी एक परिघटना से सुनिश्चित नहीं होगा। स्कूल की स्थिति, शिक्षकों का वेतन, कार्य करने के घंटे, उनका व्यावसायिक अवलोकन, प्रशिक्षण और साथ ही शिक्षा के प्रति आकर्षण को बरकरार बनाए रखना शिक्षक सशक्तिकरण के प्रमुख घटक हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की गुणवत्ता कहीं अधिक गिरावट के साथ इसलिए भी है क्योंकि शिक्षा के निजीकरण में पेशेवर शिक्षकों के बजाय सस्ते शिक्षकों को अधिक अवसर दिया जा रहा है।शिक्षा की बदहाली के लिए सरकारें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। यह समझना आवश्यक है कि शिक्षा देश को बदल सकती है और सुशासन की बड़ी लकीर खींच सकती है। मगर इसके लिए दावों पर ईमानदारी से खरा उतरने की जरूरत है। नई शिक्षा नीति में जो संदर्भ निहित हैं, वे शिक्षा और शिक्षकों के सशक्तिकरण की दृष्टि से तुलनात्मक बेहतर दिखाई देते हैं।
गौरतलब है कि भारत में स्कूली शिक्षा और शिक्षण की वर्तमान पद्धति का उदय ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ था। स्वतंत्रता के बाद यह व्यवस्था कई उतार-चढ़ाव से गुजरी है मगर भाषायी रूप से यह अंग्रेजी के प्रभुत्व से मुक्त नहीं हो पाई। मौजूदा समय में भारत में अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था से शायद ही देश के ढाई लाख पंचायतों और साढ़े छह लाख गांव वंचित हों। यह अंग्रेजी के प्रति बढ़ी आकांक्षा का परिचायक है।हालांकि यूनाइटेड इन्फारमेशन सिस्टम और एजुकेशन प्लस की 2019-2020 की रिपोर्ट फार स्कूल एजुकेशन में स्पष्ट है कि देश के सत्रह फीसद स्कूलों में बिजली और हाथ धोने जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थी। मगर यह बात दुविधा से भरी है कि क्या अंग्रेजी में पढ़ाने वाले शिक्षक भी पूरी तरह उपलब्ध हैं? 2012 में न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने भी पूर्व-सेवा और सेवाकाल में शिक्षक की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया था।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने साल 2014 में बीएड कार्यक्रम को भी पुनर्गठित करते हुए इसकी अवधि को एक साल से बढ़ा कर दो साल कर दिया था। राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) द्वारा नए शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रम में योग्य शिक्षा, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा, पर्यावरण शिक्षा तथा जनसंख्या शिक्षा समेत कई बदलाव किए। जाहिर है सशक्तिकरण की आवश्यकता निरंतर बनी रहती है।
सोर्स-jansatta
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